हिन्दी को अर्पित श्रद्धा-सुमन

सिततम्बर का महीना विशुद्ध हिन्दी-प्रेमियों के लिए विशेष महत्त्व का होता है। इस महीने किसी अछूत कन्या की तरह दुतकारी, बेचारी हिन्दी को अचानक गले लगाने का खेल खेला जाता है। सरकार बहादुर के खेल निराले होते हैं। हिन्दी को वह राजभाषा का कागज़ों में दर्जा तो दे सकती है, लेकिन अपनी राजनीतिक विवशता के कारण इसे पूर्णतय: लागू नहीं कर सकती। वैसे भी सरकारी कार्यालयों में अंग्रेजी के बोलबाले के आगे हिन्दी पानी भरती लगती है। अंग्रेजी भाषा एक स्टेट्स-सिम्बल का काम करती है और स्टेट्स की सारी दुनिया दीवानी है। हिन्दी जन-भाषा तो बन सकती है, लेकिन सरकारी कामकाज की सर्वमान्य भाषा नहीं। इसीलिए हर चौदह सितम्बर को हिन्दी-दिवस मनाने का प्रावधान किया गया है। इसे हिन्दी-सप्ताह अथवा हिन्दी पखवाड़ा का विस्तार भी दिया जा सकता है और प्राय: दिया जाता है।
जैसे हवन-यज्ञ के समय एक पुजारी की उपस्थिति अनिवार्य है, वैसे ही हिन्दी के सरकारी हवन-यज्ञ के लिए एक अद्द हिन्दी अधिकारी का होना अनिवार्य है। यह हिन्दी अधिकारी प्राय: हिन्दी के प्रोत्साहन में हल्ला-शेरी का काम करता है। हर वर्ष सरकार बहादुर कार्यालयों में हिन्दी में कार्य करने की प्रतिशतता निश्चित करती है, अनेक प्रोत्साहन योजनाएं लागू करती है। हिन्दी अधिकारी का बस चले तो वह कार्यालय में हिन्दी में कामकाज की प्रतिशता एक-सौ-पांच-एक-सौ दस तक दिखला दे, लेकिन प्राय: निन्नावे प्रतिशत तक दिखलाकर ही संतोष रखना पड़ता है। निन्नावे का चक्रव्यूह बड़े काम का होता है। एक प्रतिशत का फर्क सोने का अंडा जैसा साबित हो सकता है। इस खाई को पाटने के लिए सरकारी कार्यालयों में हिन्दी सिखाने के लिए वर्कशॉप एवं विधिवत् प्रशिक्षण की व्यवस्था से कुछ लोगों को मानदेय के नाम पर हर महीने अपनी आमदनी में बढ़ोत्तरी का सुअवसर मिलता है। सीखने वालों को भी मुफ्त की सरकारी चाय और बिस्कुट वगैरह से ही अपने आपको तृप्त रखना पड़ता है।हिन्दी सप्ताह अथवा पखवाड़े की पावन-बेला में स्थानीय कवियों की भी बन आती है, क्योंकि कवि-सम्मेलनों के बिना इस समारोह को अधूरा माना जाता है। सितम्बर आने के कुछ दिन पूर्व ही हिन्दी को बढ़ावा देने के नाम पर तैयारी शुरू हो जाती है। बड़े अधिकारियों के आदेश भी जारी होते हैं कि हिन्दी को मात्र कागज़ों में ही पटरानी न रहने दें, बल्कि वास्तविक आदर भी प्रदान करें। इस उपलक्ष्य में इस मास में कार्यालयों में बैठकों का आयोजन भी बड़े सुनियोजित ढंग से होता है। हर स्तर पर बैठकें बुलाई जाती हैं, हिन्दी में काम करने के आदेश जारी होते हैं और कार्यालयों की दीवारों पर हिन्दी में स्लोगन चिपकाये जाते हैं। अभी पिछले सप्ताह की ही बात है जब हिन्दी को समृद्ध करने के लिए बुलाई गई एक बैठक का शुभारंभ कोल्ड-ड्रिंक से हुआ और समापन काजू और पेस्ट्री के साथ चाय-पान से हुआ। तीन दिनों तक भाषण-प्रतियोगिता, सुलेख-प्रतियोगिता और कवि-गोष्ठि आदि जैसी परम्परागत आइटमें पेश की गईं। इस सबके प्रारंभ में एक विशिष्ट अतिथि का भाषण और समापन पर अच्छा जल-पान इन कार्यक्रमों की विशेषता रही। पुरस्कार वितरण-समारोह तो और भी दिल-लुभावना रहा। हिन्दी में अच्छा काम करने का पुरस्कार उन कर्मचारियों को मिला जो काम तो अंग्रेजी में करते रहे लेकिन उनके आंकड़े हिन्दी के खाते में डालते रहे। पुरस्कार पाने की चमक उनके चेहरों की शोभा बढ़ा रही थी और वास्तव में हिन्दी में काम करने वालों की हालत पिटे हुए जुआरी की तरह अपनी गाथा कह रही थी।  सितम्बर में आयोजित इस समारोह का कुल मिलाकर यह लाभ रहता है कि अधिकारियों को एक वर्ष तक हिन्दी को बढ़ावा देने की चिंता से मुक्ति मिल जाती है।

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