जन-जन के कल्याणकारी भगवान शिव

शिव की महिमा समूचे विश्व में सर्वविदित है। ऐसे सर्वव्यापी कालजयी, नीलकंठ, मृत्युंजयी भगवान शिव द्वारा न केवल सृष्टि का कल्याण होता है, बल्कि तीनों लोकों में भी महादेव की अर्चना व उन्हें प्रसन्न कर मनचाही मुराद देवताओं ने भी पाकर स्वयं को धन्य समझा है। प्रत्येक प्राणी नश्वर है व नश्वरता के काल चक्र  में फंसा मानव सुख-दु:ख की अनुभूति भी करता है, लेकिन फिर भी वह अपने कल्याण व मोक्ष को प्राप्त करने हेतु तत्पर रहता है। संसार की अखंड गति, निरंतर परिवर्तनशीलता, अविछिन्न प्रवाह, अटूट धारा ही संसार का नियम है। सृष्टि में यदि विनाश का चक्र  न चलता तो नवनिर्माण का महत्त्व नहीं होता, इसलिए अतीत से ही देवी-देवताओं के प्रति मानव समर्पित भाव से जुड़ा है। 
हमारे देश में शिव पूजन की एक व्यापक परम्परा रही है। यहां तक कि द्रविड़ों व आर्यों दोनों ने भगवान शंकर की स्तुति की है। विभिन्न देशों के पुरातत्व विभागों द्वारा की गई कला व संस्कृति की खोज में अनेक स्थानों पर शिव की प्रतिमाएं मिली हैं, जिससे यह पता चलता है कि शिव की आराधना सर्वव्यापी रही है। महाशिवरात्रि के संबंध में ऐसा माना जाता है कि इस पर्व की रात्रि में भगवान आशुतोष प्रत्येक शिवलिंग में समाते हैं। किंवदंती है कि एक बार शिव लोक में घिरे बैठे भगवान शंकर ने सभी भक्तों से कुछ न कुछ वर मांगने को कहा। इस पर एक भक्त ने कहा, ‘प्रभु! मैं मृत्यु लोक में आपके दर्शन करना चाहता हूं। बताइए कब और कैसे होंगे?’ इस पर मृत्यंजय भोलेनाथ बोले ‘मेरे दर्शन आपको फाल्गुन कृष्णपक्ष की चतुर्दशी की अर्द्धरात्रि को होंगे। मैं उस दिन मृत्युलोक के प्रत्येक शिवलिंग में प्रविष्ट होऊंगा, अर्थात् उस दिन जो भी प्राणी विधिवत पूजन, उपवास व कीर्तन से मुझे प्रसन्न करेगा, उसे न केवल मेरे दर्शन होंगे बल्कि मनोवांछित फल की प्राप्ति भी होगी।’ यह कारण है कि शिवरात्रि का व्रत अधिकांश कुंवारी कन्याएं भी रखती हैं जिससे महादेव की अर्द्धांगिनी पार्वती उनसे प्रसन्न होकर उन्हें अभीष्ट फल प्रदान करते हुए उनके अनुरूप वर प्राप्ति में सहायक सिद्ध होती हैं। वैसे देखा जाए तो शिव संहारक के रूप में भी प्रतिष्ठित हैं।  अग्नि का भी एक रूप शिव में देखा जाता है जो कि रौद्र रूप है। शिव का तांडव प्रलय का सूचक है तो पुनर्निर्माण का प्रतीक भी है। कहते हैं कि ब्रह्मा जी के लोहित लोचन से टपके आसुओं से भूत-प्रेत तथा मुख से रुद्र की उत्पत्ति हुई थी। रुद्र पैदा होते ही रोने लगे थे जो कि संहार का सूचक था। अग्नि सदृश्य शिव जितने विध्वंसक हैं, उतने ही कोमल, उदार और अपने भक्तों को अभय प्रदान करने वाले भी हैं। थोड़ी-सी भक्ति, थोड़ा सा प्रसाद शिव को प्रसन्न करने हेतु पर्याप्त है। भगवान शिव की उदारता का लाभ बड़े बड़े पराक्रमी दानवों ने भी उठाया था जिनमें रावण प्रमुख था। रावण की भक्ति से प्रसन्न होकर ही शिव ने उसे वरदान प्रदान किया था। इसलिए रावण युद्ध के दौरान भी शिव आराधना करना नहीं भूलता था। वह अपने धनुष की तुलना वीणा से करता था। भगवान शिव कला और विद्या के देव के रूप में भी माने जाते हैं। संपन्न और प्रतिभा के धनियों ने भी शिव को ही अपना आराध्य स्वीकारा है। यहां तक कि भरत मुनि ने भारतीय शास्त्रीय नाट्य शास्त्र में संगीत, नृत्य व नाट्य के सृजक महादेव को व माता पार्वती को माना है। भगवान शंकर के बाद नृत्य विशारदों में उनके शिष्य तंडुमुनि का नाम ही उल्लेखनीय है। भगवान शंकर को चार रूपों में भी माना गया है जिनमें नृत्य मूर्ति, संहारक मूर्ति, दक्षिण मूर्ति व अनुग्रह मूर्ति शामिल हैं।  नटराज के भी नाम से विख्यात शंकर का नांदानृतन स्वरूप अत्यंत प्रचलित है। कहते हैं कि एक बार शंकर व विष्णु कुछ अहंकारी ऋ षियों का दर्प चूर करने के लिए वेश बदलकर जंगल में गए। शंकर साधारण पुरुष के रूप में एवं विष्णु उनकी सुंदर पत्नी मोहिनी के रूप में थे। मोहिनी के रूप को देखकर ऋ षियों के मन में काम विकार पैदा हो गया लेकिन वस्तुस्थिति का भान होने पर वे कुपित हो उठे व हवन के अग्निकुंड में से अपने तपोबल से एक शेर को पैदा कर शिव पर झपटने हेतु छोड़ दिया। उसी समय शिव ने अपने त्रिशूल से शेर का वध कर उसकी खाल कमर पर लपेट ली व तांडव नृत्य करने लगे। तभी ऋ षियों ने सर्पों को छोड़ दिया। भगवान शंकर ने उन्हें मारने के बजाय गले में मालाओं की भांति पहन लिया एवं नृत्यरत रहे। अंत में ऋ षियों ने यज्ञ वेदी से अवस्मार नामक बौना राक्षस पैदा कर शिव को मारने हेतु भेजा लेकिन शिव ने उसे अपने पैरों तले कुचल दिया। अंतत: ऋ षियों ने हार मान ली। भगवान शंकर के इस तांडव नृत्य को देखने हेतु समूचा देवलोक एकत्रित हो गया। तब शिव ने गद्वद् होकर पुन: तांडव नृत्य किया। इस नृत्य मुद्रा में भगवान शिव के चार हाथ दिखाई देते हैं जिनमें दाहिने हाथ में डमरू नाद का संदेश होता है तो बाएं हाथ में स्थित अग्नि संहार का प्रतीक है। शिव का परमप्रिय नृत्य तांडव ही था जिसके सात प्रकार थे। जिनमें चार एकल व तीन युगल नृत्य थे। एकल तांडवों में आनंद, संध्या, त्रिपुर व संहारक थे। युगल नृत्यों में गौरी तांडव, उषा तांडव व कालिका तांडव थे। शिव नृत्यों के संबंध में कई पौराणिक घटनाएं प्रसिद्ध हैं। भगवान भोले शंकर की घर-घर में स्तुति करना व उनके प्रति समर्पित होना आम जन में उनके प्रति अटूट श्रद्धा का ही परिणाम है। शिवरात्रि के दिन तो हर जगह उनकी जय-जयकार से वातावरण शिवमय  हो जाता है। प्रत्येक मंदिर में शंखनाद, जल, भांग, फल, मिष्ठान, फूल, धतूरे ही पूजन सामग्री के रूप में शिव को अर्पित की जाती है।  (युवराज)