क्लोनिंग के चमत्कार...

क्या मानव अंग स्पेयर पार्ट की तरह मिल सकने की कोई सम्भावना है? अगर वैज्ञानिक की नवीनतम खोज के आधार पर बात करनी हो तो इस प्रश्न का हां में उत्तर देना काफी सीमा तक उचित था। लेकिन बात इतनी सीधी नहीं। इस प्रश्न के कई पहलू हैं। क्या हम ऐसे मानवीय अंग चाहते हैं जो हमारे प्राकृतिक अंगों की तरह काम करने पर, वैसे वह चाहे मशीन की तरह निर्मित करके हमारे शरीर में स्थापित कर दिये जाएं। क्या हम किसी अन्य मानव के अंग से दान के  प्राप्त अंगों के साथ गुज़ारा करना चाहेंगे? क्या  प्रत्येक अंग खरीदे जाने का प्रश्न है या कुछ विशेष अंगों की ही आवश्यकता है? क्या पूरे का पूरा हमारे जैसा मानव ही प्रयोगशाला में तैयार किया जा सकता है। क्या इस मानव के अंग आवश्यकता के अनुसार काट करक प्रयोग करने योग्य उचित हैं। क्या ऐसा करना जीवित मानव का दुरुपयोग नहीं ? क्या ऐसे उद्देश्यों के लिए पैदा किये मानव के लिए हमारा और हमारे समाज के माता-पिता, भाई-बहन या सामाजिक भाईचारे वाला कोई जज़्बाती रिश्ता हमें ऐसे रास्ते पर चलने की स्वीकृति देता है? क्या हम मशीन या रोबोट की तरह भाव विहीन होकर अपने स्वार्थ में प्रत्येक उचित एवं अनुचित पग उठाने को तैयार हैं? क्या इस काम के लिए जानवरों के शरीर को मानवीय अंगों के निर्माण के लिए कारखाने की तरह उपयोग करने सम्भावनाएं हैं। ऐसे प्रयासों से मानवीय नस्ल के वर्तमान और भविष्य पर सामाजिक, जीव वैज्ञानिक, धार्मिक, नैतिक पक्षों से किस प्रकार के प्रभाव पड़ेंगे? ऐसे बहुत-से पहलू हमारे मूल प्रश्न के साथ जुड़े हुये हैं। हमारे मूल प्रश्न के आधार पर बिन्दू हैं क्लोनिंग का संकल्प और जैनेटिक इंजीनियरिंग की खोज। मानव और अन्य जीव-जन्तू का मूल कण है आर.एन.ए.। यह जैविक यौगिक है जिसका नाम है राइबो-न्यूक्लीयन एसिड।  इससे ही डी.एन.ए. अस्तित्व में आया। यह भी आर्गेनिक पदार्थ है, जिसका पूरा नाम है डी. औक्सीराइडो न्यूक्लीयक एसिड। इससे ही सैल बने और प्राणी जगत अस्तित्व में आया। जीवों की उत्पत्ति के रहस्य सैल, जीव, क्रोमोसोम और डी.एन.ए. के साथ जुड़े हुये हैं। मानवीय शरीर के प्रत्येक सैल में 23 क्रोमोसोम जुड़े होते हैं। एक क्रोमोसोम पिता की ओर से दूसरा मां की देन होता है। क्लोन जीव की हू-बू-हू कार्बन कॉपी का नाम है। वही रंग-रूप, वही शक्ल-सूरत ज़रा भी अन्तर नहीं। जैसे देखें यह कैसे बनाया जाता है। किसी मादा ओवरी (अंड-कोष) से एक स्वस्थ अंडा लेकर उसका न्यूक्लीयस निकाल दिया जाता है। अब जिस प्राणी का क्लोन बनाना होता है उसका एक सैल लिया जाता है। न्यूक्लीयस अंडे को उपरोक्त सैल से जोड़ कर बिजली का हलका-सा झटका दिया जाता है, जिससे क्लोन का जाईगोट अर्थात स्पर्म पैदा हो जाता है। इसे किसी महिला के गर्भ में विकसित होने के लिए दाखिल कर दिया जाता है। कुछ समय के बाद प्राणी का जन्म होता है, वह मूल प्राणी का क्लोन होता है। 1997 में डा. विलमट नामक वैज्ञानिक ने एक भेड़ का क्लोन बना कर इस ओर पहला पग उठाया था। दस वर्षों के अंदर ही मनुष्य के क्लोन बनाने संबंधी कड़ी बहस शुरू हो गई है। यही नहीं आज जैनेटिक इंजीनियरी नामक का एक पूरा विज्ञान विकसित हो गया है। स्पष्ट है कि क्लोन बनाने के लिए पिता के स्पर्म (वीर्य) की ज़रूरत नहीं, इसलिए अगर किसी परिवार में पति में किसी दोष के कारण संतान न हो रही हो तो वह क्लोनिंग का सहारा ले सकता है।  क्लोनिंग उस समय भी मदद के  लिए हाज़िर है, जब संतान की मौत व्यक्ति की उस उम्र में हो जो प्राकृतिक रूप में पति-पत्नी संतान पैदा करने के योग्य नहीं रहते। अब देखें क्लोन की बेरहम और स्वार्थी उपयोग की सम्भावना। इसका आधार यह है कि कोई व्यक्ति अपना क्लोन बना कर पूरा ढांचा विकसित कर ले। जब ज़रूरत पड़े  उसके शरीर का कोई अंग निकाल कर अपने शरीर में फिट करवा ले। अपने गर्भ से जन्मी सन्तान जैसा प्यार तो क्लोन से किसी का होगा नहीं। इसलिए कोलोनों के मानवीय अंगों के स्पेयर पार्टों के व्यापार हेतु इस्तेमाल करने की सम्भावना ही शेष रहती है। इससे विकलांग और अंधे, अपाहिज कालोन तड़पते नज़र आएं तो यह इस व्यापार का प्राकृतिक परिणाम ही होगा। क्या मनुष्य इतना बेरहम, बेदर्द, नैतिककता विहीन और स्वार्थी हो सकता है। मेरे विचार में ऐसा होना नहीं चाहिए परन्तु जिस तेज़ी से मानवीय नैतिक मूल्यों का हमारे पूंजीवादी युग में पतन हो रहा है, उसमें क्या पता कल क्या हो जाए? उपरोक्त उलझनों को देखते हुए वैज्ञानिकों ने जैनेटिक इंजीनियरिंग की नई दिशाओं का आविष्कार करना शुरू कर दिया है उन्होंने इस क्रम में जानवरों पर प्रयोग शुरू कर किये हैं और इन प्रयोगों के परिणाम क्या जानवरों के  लिए करने का निर्णय लिया है। कुछ समय के बाद इन प्रयोगों के लाभ मनुष्य  को पहुंचाने की सोच रहे हैं। इन प्रयोगों की कुछ दिशाएं इस प्रकार हैं। चूहों को बकरियों और सुअरों के लिए स्पर्मज़ की निर्माणशाला के रूप में उपयोग करना। क्लोन किये सुअरों की मनुष्य के लिए लाभदायक सम्भावनाएं देखना। चूहों के दिमाग को विकसित करना। मनुष्य और जानवरों के सैल के संयोग से चमत्कार पैदा करना। ऐसे जानवर पैदा करना जिनमें मानवीय रक्त या अंग विकसित हो सकें। लगता है कि मनुष्य स्वयं चाहे आये दिन पशु होने के प्रमाण देता ही रहता है परन्तु वह पशुओं को ज़रूर मनुष्य बनाने की सोच रहा है। इसके लिए वह बहुउद्देश्यीय स्टेम सैल का इस्तेमाल करेगा। पलूरी पोटैंट, एंबरीआनिक या बोन मैरो स्टैम सैल इन कायों के लिए इस्तेमाल सम्भव है। यह सैल किसी भी प्रकार के सैल या टिशू का निर्माण कर सकते हैं। इनसे निर्मित नये सैल या टिशू, बीमारियों से नकारा हुए मानवीय अंगों के लिए उम्मीद की नई किरण बन सकते हैं। गुर्दे या लीवर के होने पर, रीढ़ की हड्डी नकारा होने, दिल में खराबी पड़ने और जोड़ नकारा होने के समय स्टीम सैल के सहारे उपचार की बात एक जीव-प्रजाति (सपीशी) के भीतर उभर कर करना तो समझ में आता है परन्तु वैज्ञानिक इस आविष्कार का अन्तर-प्रजातीय क्षेत्रों में प्रसारित कर रहे हैं। वह एक प्रजाति के एंबरीआनिक स्टैम सैल दूसरी प्रजाति में दाखिल करने की सोच रहे हैं। इससे ऐसे जीव पैदा हो सकते हैं, जिनमें दो प्रजातियों के सैल या अंग हों। आधा मनुष्य, आधा जानवर। जैनेटिक इंजीनियरिंग के क्षेत्र में सबसे क्रांतिकारी प्रयोग, जो अभी हुआ नहीं, वह होगा। मानवीय स्टेम सैल को जानवर के भ्रूण में दाखिल करना और इस भ्रूण को जानवर के गर्भ में ही रख कर विकसित करना। इस प्रयोग से पैदा हुए चमत्कार के अंगों का अध्ययन इन वैज्ञानिकों के लिए नई चुनौती होगा। ऐसे चमत्कार मनुष्य द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली दवाइयों की जांच के लिए जानवरों से अधिक अच्छे साबित होने की सम्भावना ज़रूर है परन्तु अगर कहीं मानवीय सैल मानवीय स्पर्म या मादा अंडे के रूप में विकसित होने लगे, क्या होगा। प्रश्न है जानवरों का मानवीयकरण किस सीमा तक करना उचित और सम्भव है। किसी विशेष सीमा से निकल कर वह पूरी तरह हमारे सहभागी ही बन जाएंगे।  हमारे अपने देश के एक प्रतिभावान वैज्ञानिक हैं लाल जी सिंह। नाबेल पुरस्कार के दावेदारों में कभी उनका नाम भी सामने आया था। डी.एन.ए. फिंगर प्रिंटिंग उनकी विशेषता का क्षेत्र है। आज इस तकनीक को अपराधी को काबू करने के लिए विशेष रूप से प्रयोग करते हैं। उन्होंने जेनेटिक इंजीनियरिंग की खोजों को लुप्त होने के कगार पर पहुंची जीव प्रजातियों की देखभाल के लिए प्रयोग के लिए विशेष काम किया है। उनके प्रयासों से हैदराबाद में 11 करोड़ रुपये की लागत से एक प्रयोगशाला बनाई गई है। इसका नाम है लैबोरेटरी फॉर कंजर्वेशन ऑफ एंजैंडर्ड सपीशीज़। यहां आलोप होने के ़खतरे में जी रही प्रजातियों के जीवों की क्लोनिंग के लिए टैक्नालोजी प्राप्त होगी। प्रजातियों के ज़ीन के बीच भिन्न-भिन्न प्रकार की जांच-पड़तालके प्रबंध होंगे। ज़ीन बैंक बनेगा। लुप्त हो रही प्रजातियों की जैनेटिक सामग्री सम्भाली जाएगी। लाल जी सिंह के सैंटर फॉर सैलूलर एंड मालीकुलर बॉयोलाजी ने शेरों को गणना के लिए डी.एन.ए. फिंगर पिं्रटिंग टैक्नालोजी के आधार पर नई विधि विकसित की है।  

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