एल्बर्ट आइनस्टाइन का सापेक्षता सिद्धांत

एल्बर्ट आइनस्टाइन ने 14 मार्च, 1879 को जर्मनी के उलम (वर्टमबर्ग) में जन्म लिया था और महज़ 26 वर्ष की आयु में ही वह विश्व के प्रसिद्ध और महान व्यक्ति बन गये। जब 26 सितम्बर, 1905 को उनका महत्त्वपूर्ण पेपर जर्मनी के एक संशोधन मैग्जीन में प्रकाशित हुआ। उस पेपर का नाम ‘ऑन दी इलैक्ट्रोडाइनैमिक्स ऑफ मूविंग बॉडी’ जोकि वास्तव में ‘स्पैशल थ्यूरी ऑफ रैलेटिवीटी’ ही था, उन्होंने भौतिक विज्ञान के विषय में एक ऐसी खोज की थी जिससे मनुष्य का पूरी सृष्टि के साथ संकल्प ही बदल गया। समय पड़ाव, अंतरिक्ष और पदार्थ उन्होंने एक ही शृंखला में पिरो दिये। आइनस्टाइन ने कहा कि ये तीनों वस्तु विकार एक-दूसरे पर निर्भर करते हैं और एक-दूसरे से मुक्त नहीं हैं। पहले न्यूटन के विचार के अनुसार यह माना जाता था कि समय निरपेक्ष है ओर हमेशा एक जैसा ही चलता है और है भी एक  दिशा की और (अर्थात् समय हमेशा आगे की ओर बढ़ता रहता है) पुंज (पदार्थ) का अस्तित्व या वस्तु की गति उस समय पर निर्भर नहीं करती। यह भी माना जाता था कि इस ब्रह्मांड का पुंज हमेशा एक मूल्य पर रहता है और ऊर्जा चाहे रूप बदल लेती है, लेकिन विश्व की कुल ऊर्जा हमेशा स्थिर रहती है। अंतरिक्ष के बारे में माना जाता था कि उसका आकार, संख्या हमेशा के लिए एक ही है और किसी पुंज या किसी गति का उस पर कोई प्रभाव नहीं। यह सब कुछ एक-दूसरे से स्वतंत्र हैं और समय, अंतरिक्ष और पुंज ये तीनों स्वयं में निरपेक्ष (एबसोलूट) हैं। आइनस्टाइन ने कहा था कि ‘आम समझ’ हमेशा ठीक नहीं होती। गहराई से सोचें तो और भी बहुत कुछ बन जाता है। आइनस्टाइन ने जो कुछ भी कहा था वह बिल्कुल ठीक था और जितने भी परीक्षण इसके सिद्धांत को जांचने के लिए किये गये वे सभी उनकी सोच के अधिकार में ही किये गये। पुंज ऊर्जा में बंटने लगी एटम बम बन गये। एटमी शक्ति से बिजली बनने लगी। ब्रह्मांड में ग्लैक्सियों के बनने और फैलने के बारे में समझने के लिए और सही तारा विज्ञान भी अस्तित्व में आ गया इत्यादि।आइनस्टाइन ने सापेक्षता अभियान को दो हिस्सों में पेश किया था। पहले उन्होंने वर्ष 1905 में ‘स्पैशल थ्यूरी ऑफ रैलेटीविटी (विशिष्ट सापेक्षता) का सिद्धांत दिया। जिसका रूप और परिणाम ऐसा था कि उन्होंने भौतिक वैज्ञानिकों को हैरान कर दिया। यह थ्यूरी केवल एक समान गति से चल रहे सिस्टम पर ही लागू होती थी। बाद में वर्ष 1916 में इसमें ‘जनरल थ्यूरी ऑफ सापेक्षता’ पेश की, जोकि प्रवेगता (गति बदलते) सिस्टम के बारे में व्यापक है। रैलेटीविटी केवल दो बड़े सरल बयानों पर आधारित है। जिनको स्पैशल रैलेटीविटी के दो ‘स्व-सिद्ध’ (पासचूलेट) कहा जाता है। यह स्वै-सिद्ध कहते हैं कि सृष्टि बनी ही ऐसे है। पहला स्वै-सिद्ध जड़तवी सिस्टमों की मांग करता है। जड़तवी (इन्रशीयल) सिस्टम वह होता है जो एक समान गति के साथ चलता है। इसकी चाल में कोई परिवेग नहीं आता अर्थात् वह तेज़ या धीरे नहीं होता। सिस्टम की जड़ता एक प्रकार की ऐसी बनावट है, जिसमें बैठा प्रत्येक व्यक्ति समझता है कि वह खड़ा है और दूसरा चल रहा है। उसे अपनी गति का कोई अहसास नहीं होता। हमारी पृथ्वी लगभग एक जड़तवी प्रणाली है। धरती 30 किलोमीटर प्रति सैकेंड की गति के साथ सूर्य के आस-पास घूमती है और कई घंटे इस गति से सीधी रेखा में चलती है। देखो हमें महसूस ही नहीं होता कि हम चल रहे हैं। अगर हम किसी वस्तु को ऊपर फेंक तो वह वापिस हमारे हाथ में आ गिरती है। चाहे धरती इतनी तेज़ गति के साथ चल रही है वह वस्तु पीछे नहीं रहती। एक समान गति के साथ चल रही रेलगाड़ी में हमें ऐसा महसूस होता है यह आम समझ की बातें नहीं। यह सब गैलीलियो ने 17वीं सदी में ही पहचान लिया था। गैलीली तो लोगों को उनके सामने कई प्रयोग करके हर बात को सिद्ध कर देते थे। गैलीलियो ने कहा था कि आम समझ हमेशा ठीक नहीं होती। आइनस्टाइन की स्पैशल सापेक्षता का पहला स्व-सिद्ध यह कहता है कि सभी जड़तवी प्रणाली में भौतिक विज्ञान के सभी नियम एक साथ होते हैं। कोई भौतिक प्रयोग करके हम  यह नहीं पहचान सकते कि हम खड़े हैं या चल रहे हैं। दूसरे स्व-सिद्ध में तो बड़ी अज़ीब बात थी। उसके अनुसार स्थिरता में प्रकाश की गति स्थिर है (लगभग तीन लाख किलोमीटर प्रति सैकेंड) जिससे अधिक कोई और गति नहीं होती। चाहे प्रकाश का स्रोत प्रेक्षक  की ओर आ रहा हो या उससे दूर जा रहा हो। इसकी गति प्रकाश की गति में जमा नहीं होती। जैसे हम देखते हैं कि जब गोले को फेंकते समय दौड़ रहे व्यक्ति की गति गोले की गति में जमा नहीं होती और गोला और भी तेज़ी से चलता है, लेकिन प्रकाश की गति के साथ ऐसा नहीं होता। उसका मूल्य सभी के लिए एक समान रहता है। वह स्रोत से तो तीन लाख किलोमीटर प्रति सैकेंड की दर से निकलती है। चाहे स्रोत हमारी ओर आ रहा हो या हमसे दूर जा रहा हो। हमारे माप में भी प्रकाश गति तीन लाख किलोमीटर प्रति सैकेंड ही पढ़ी जाएगी। इस स्व-सिद्ध ने तो भौतिक विज्ञान की समस्त समझ को ही नया रूप दे दिया और साथ ही की दिलचस्प तथा नई सम्भावनाएं भी उत्पन्न कर दीं। (शेष अगले रविवारीय अंक में) 

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