कहानी देव सर पगले की

(क्रम जोड़ने के लिए पिछला रविवारीय अंक देखें)
कुछ दिन पहले फीस जमा करवाने के लिए कहा तो बिगड़ कर बोली, ‘तुम तो हमारी बेइज्जती कर देते हो। लोगों ने तो बीस-बीस हज़ार देने हैं। उन्हें तो कुछ नहीं कहते। डरते हो उनसे। मैं अभी पुलिस में जा रही हूं। जो मन में आएगा, तुम्हारे खिलाफ लिखा दूंगी। फिर जेल में बैठ कर पैसे मांगते रहना।’ ‘जो मन में आए, लिखवा देना। पुलिस-अदालत सबके सामने उन आरोपों को स्वीकार कर लूंगा। यही सोच कर कि खुदा की मज़र्ी है अब मैं कैदियों को पढ़ाऊं।’ भला हो उसका जो रिपोर्ट नहीं लिखवाई, वरना कई लोग सोचते, ‘हम तो इसे बहुत अच्छा समझते थे, यह तो छुपा रुस्तम निकला।’हमें समझ में नहीं आ रहा, उनकी बातों पर मुस्कुराएं या हमदर्दी दिखाएं। हम यह भी सोच रहे थे, न जाने इनकी बातें कब खत्म होंगी। हमें तो चंदे के लिए दर-दर भटकना है। इसलिए इससे पहले कि वह किसी और बात को शुरू करते, मैंने उनसे कह दिया, ‘अच्छा! आप दो सौ एक की रसीद कटवा लो।’ उन्होंने सिर हिलाकर खामोश रहते हुए अपनी स्वीकृति दे दी। मैंने रसीद काट कर उनके सामने रख दी। उन्होंने एक बार मेज़ पर रखे एक सौ रुपये की ओर देखा, फिर जेब से पर्स निकाला। उसे खोल कर देखा। टटोला। उनका चेहरा उदास हो गया। पर्स में कागज़ ही कागज़ भरे थे। कागज़ों में कोई भी छोटे से छोटा नोट भी नहीं था। उन्होंने मेज़ पर रखे एक सौ एक की ओर इशारा करते हुए, ‘आप इसे तो उठा लें। पर्स बिल्कुल खाली है। मेरे साथ चलें। पास ही एक दुकान है, उनसे सौ रुपये दिलवा देता हूं। बहुत अच्छे लोग हैं। बड़ी इज्जत करते हैं मेरी। हम उनके साथ बाहर आ जाते हैं। मजबूरी है हमारी। रसीद काट चुके हैं, हम सड़क पर आ गए। तभी देव सर के पास लगभग सत्तर वर्ष का एक व्यक्ति रुकता है। ‘गुरु जी प्रणाम!’ साथ ही देव सर के चरण स्पर्श किए। देव सर उसकी पीठ छूते हैं, ‘खुश रहो, सुखी रहो’ कहकर आशीर्वाद देते हैं। वह आगे बढ़ जाता है। देव सर हमें बताते हैं, ‘आज से लगभग पचास वर्ष पहले मैंने इसे आर्य कालेज में पढ़ाया था। आज तक नहीं भूला मुझे। जहां भी मिल जाता है, इसी प्रकार झुक कर प्रणाम करता है। अभी हम चंद कदम ही आगे बढ़े थे कि सामने आती एक गाड़ी रुकी। देव सर भी रुक गए। गाड़ी से एक खूबसूरत अच्छे डीलडौल वाला युवक उतरा। गाड़ी में उसका परिवार भी बैठा था। नौजवान उनके पास आया। पैर छुए। देव सर का आशीर्वाद प्राप्त किया।’
‘कैसे हो सर, आप?’
‘ठीक हूं’
‘कहां जा रहे हैं? मैं ले चलता हूं।’
‘बस उस दुकान तक जा रहा हूं। आप आजकल कैसा महसूस कर रहे हैं?’
‘ठीक ही हूं। चिन्ता मन करना।’ वह चला गया देव सर ने बताया। आज से ब्यालीस साल पहले जब मैंने सर्विस छोड़ कर अपना स्कूल चालू किया था तो पहले साल इनका नर्सरी में दाखिला हुआ। आठ वर्ष तक हमारा छात्र रहा था। इस समय एक बड़ी फैक्टरी का मालिक है। बड़ा सम्मान करता है मेरा। दुकान पर पहुंचने से पहले तीन-चार छोटे-छोटे बच्चों ने भी ‘बंदे मातरम्’ कहकर उनका अभिवादन किया। यह सब देख एक ओर तो हमारे मन को बड़ी प्रसन्नता हो रही थी कि आज के युग में भी इतनी श्रद्धा से अपने अध्यापक को सम्मान देने वाले लोग हैं। दूसरी ओर मन को बड़ा अजीब-सा लग रहा था, यह देख कर कि देव सर उधार मांग कर चंदे का भुगतान करेंगे। डर लगता था, अगर ‘रहने दो कह देंगे’ तो उनके मन को दुख पहुंचेगा। हम उनके मन को दुखी भी नहीं कर सकते थे। उन्होंने दुकानदार से सौ रुपये लेकर चंदे का भुगतान किया। फिर हाथ जोड़ कर खड़े हो गए और बोले, ‘आप लोगों से क्षमा चाहता हूं। आपकी इच्छा के अनुसार सहयोग नहीं कर पाया। अच्छा! एक बात बताएं, क्या अपने स्थान पर हर वर्ष जागरण करते हैं?’‘जी! अभी तक तो पिछले दस वर्षों से लगातार होता आ रहा है। इस अवसर पर बहुत बड़ा भंडारा भी करते हैं। आस-पास के इलाके से सैकड़ों लोग आते हैं।’‘ठीक है! अगले वर्ष अगर आप इस नगर में सहयोग लेने आएं तो मेरे पास ज़रूर आइएगा। इस वर्ष आपने जो सोचा था, अगले वर्ष पूरा कर दूंगा। हर माह कुछ अलग रख दिया करूंगा। अगर प्रभु ने कुछ सांसे और दे दी तो।’ यह कहते-कहते उनकी आंखें नम हो गई थीं। हमारे मन में उनके लिए अक अबूझ-सी श्रद्धा जाग उठी थी। हाथ जोड़ कर प्रणाम करना चाहते थे पर खुद का झुक-झुक कर चरणों पर स्पर्श करते पाया। फिर विदा ले एक ओर बढ़ गए। कुछ दूर जाने के बाद अचानक ही हमारी नज़र उस बुजुर्ग व्यक्ति पर पड़ी तो कभी आर्य कालेज में देव सर का छात्ररहा था। मन में इच्छा जाग उठी, क्यों न इस देव सर के बारे में कुछ और जानकारी प्राप्त की जाए। (क्रमश:)