बैंक वाले बाबू, मुझे लोन दिला दो!

बैंक के बाहर एक लोनार्थी मिल गए। हमने पूछा, भैये, कौन-से धंधे के लिए लोन मांगने आए हो।  वो कहने लगे- कुछ टीआरपी वाले बैरोमीटर खरीदने हैं। हमने सुना है आजकल इसमें बड़ी कमाई है। हमने पूछा, कैसे...। वो बताने लगे-अजी बड़ा मस्त धंधा है। न हींग लगे, न फिटकरी और रंग चोक्खा ही चोक्खा। बस कुछ चैनलों से सेटिंग कर लो, मुहल्ले के कुछ घरों में बाक्स लगवा लो और मोटा कमीशन खाओ। हम सोच में डूब गए। लोग खामख्वाह सीए के पास जाकर नए-नए प्रोजेक्ट बनवाते रहते हैं। अरे जब इतने अच्छे धंधे की देश में शुरुआत हो ही गई है तो फिर भटकने की जरूरत ही क्या है। सेटिंग के धंधे ने दर्शकों की पसंद तक को बदल दिया है। अब सास-बहू के रुआंसे, ड्रामाई सीरियलों की जगह, न्यूज चैनलों ने ले ली है। पब्लिक को अब इनमें ज्यादा मजा आने लगा है क्योंकि मनोरंजन करने के लिए तरह-तरह के एंकर मौजूद हैं। सबके हुंकारने के अलग-अलग अंदाज हैं। कोई सुर्रा बम की तरह धीमे-धीमे बोलता है और आग लगाकर साइड हो लेता है। कोई सिर्फ अपनी हाँकता है, दूसरे की सुनता ही नहीं और कुछ हमारे मुहल्ले के शर्मा जी की तरह होते हैं। 
पिछली बार शर्मा जी अपने लौंडे को सिर्फ इसलिए ठोक रहे थे क्योंकि अगले दिन बेटे का रिजल्ट आना था। खुद उन्हें दफ्तर के किसी काम से बाहर जाना था। ज्ञानी बाप को पता था कि छोरे के नंबर कितने आने हैं, सो अडवांस में कूट रहे थे। ऐसे शर्मानुमा एंकर शो शुरू होते ही आगबबूला हो जाते हैं। न इसे देखेंगे न उसे, बस जोर-जोर से चिल्लाएंगे। पट्ठे घर से ही एजेंडा तय करके निकलते हैं कि आज ऊँट को किस करवट बिठाएंगे। वैसे हैं तो और भी कई तरह के लेकिन अब जमाना हुंकारियों, हाहाकारियों, चीत्कारियों और प्रलयंकरकारियों का है, सो ऐसे ही लोग देखे और पसंद किए जा रहे हैं। अब इस तमाशे को ज्यादा से ज्यादा लोगों को दिखाना भी चाहिए, सो टीआरपी का धंधा तो बढ़ाना ही पड़ेगा। जिसकी टीआरपी जितनी, उसके उतने ही विज्ञापन पक्के, बोले तो पैसा ही पैसा। आलम यह है कि कभी गली-मुहल्लों तक में न दिखने वाले चैनल, अब रातों-रात टीआरपी में सबको पछाड़ रहे हैं। अचानक कोई चैनल तेजी से उठता है और बाद में कुछ मानीटरिंग बक्सों की मदद से बताया जाता है कि जी देखो.... सबसे ज्यादा इसी को देखा गया।  मामले की तह में जाकर पता चलता है कि जी...ये यूँ ही नंबर वन नहीं थे बल्कि किसी गरीब-गुरबा के घर ये मुद्दतों से चलते रहे...और चलते भी ऐसे रहे कि चल रहे हैं तो बस चले जा रहे हैं। कभी ऐसा भी होता कि जिसकी कुटिया में ये लगे होते, वो एकाध नजर मार लेता कि हाँ, साँसें थमी न हैं, पिक्चर तो आ ही रही है और कई दिनों तक ऐसे ही आती भी रहेगी। अब जब महीना थमेगा, कोई मुरारी लाल आकर कुछ दे जाएगा। अबकी बार हो सकता है, उनके कंधों पर किसी नए चैनल को उठाने की जिम्मेदारी हो। देखा जाए तो अभी टीआरपी का यह खेल, कुछ बड़े महानगरों में ही चल रहा है। इसके उज्ज्वल भविष्य को देखते हुए हो सकता है आगे चलकर ये भी वोट बैंक जैसा रूप ले लें। आरक्षण की तर्ज पर मुहल्ले के दबंग ये तय करने लगें कि हमारे मुहल्ले में इतने बंदे हैं। इत्ते दोगे तो इत्ते देंगे।  ऐसे में बक्सा लगाने वाले ये तय कर सकते हैं कि फलां मुहल्ले में चैनल के दिखवैये, अमुक मुहल्ले के मुकाबले कहीं ज्यादा हैं, इसलिए यहीं बक्से ज्यादा लगाए जाएं। सोच रहा हूँ हम भी इस मद में लोन ले ही लें क्योंकि मनोरंजन से लेकर समाचार तक, यहाँ सब कुछ तो बिकाऊ है। (अदिति)