शहीदी गाथाओं का महीना है दिसम्बर

पिछले अनेक वर्षों की तरह इस वर्ष भी दिसम्बर का अर्थ अपने देश में, सरकारों में, समाज में और भारत से इंडिया बनते जा रहे समृद्ध वर्ग में केवल इतना ही है कि नववर्ष के स्वागत की तैयारियां करो। नववर्ष भी वह जो भारतीय संस्कृति के अनुसार सूर्य की पहली किरण के साथ नहीं, अपितु आधी रात के अंधेरों में मनाया जा रहा है। प्रश्न है कि क्या दिसम्बर का एक ही महत्व है कि पिछले वर्ष से नए वर्ष में जाने की तैयारी? यह वर्ष तो वैसे भी ब्रिटिश दासता का एक ऐसा नासूर है जिसे हम मिटाते नहीं, बल्कि पाल-पोसकर बढ़ा रहे हैं। सच्चाई यह है कि दिसम्बर में हमारे पास मनाने को बहुत कुछ है। याद करने को भी बहुत कुछ है। आज़ादी के बाद उनको पूरी तरह भुला दिया जिन्होंने आज़ादी दी अन्यथा क्या देश यह याद न करता कि अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष करते हुए मेघालय के एक गांव में पैदा हुआ नौजवान थोग्गन नेग मइया संगमा बड़ी वीरता से, नेतृत्व कुशलता से अपने आसपास के ग्रामीण युवकों को एकत्रित कर अंग्रेज़ों के लिए बहुत बड़ी चुनौती बन गया। वर्षों तक उसने अंग्रेज़ों को चने चबवाए। उसे काबू करने के लिए अंग्रेज़ सेना ने एक साथ तीन ओर से हमला किया। वर्तमान बंगलादेश में स्थित जिला मैमन सिंह, दूसरा ग्वालपाडा और तीसरा धावा बर्मा की ओर से बोला गया, पर यह वीर अजेय रहा। आखिर अंग्रेज़ों की चाल में तब फंसा, जब वार्ता के लिए अंग्रेज़ों ने इसे अपनी छावनी में बुलाया तो 12 दिसम्बर 1872 को इसे गोलियों से भून दिया। संगमा की खासियत यह रही कि इसकी शहादत के बाद भी गारो पहाड़ियों में पैदा हुए वीर अंग्रेज़ों को नाकों चने चबवाते रहे, पर याद किसको है? निश्चित ही मेघालय में इसके नाम के दीपक घर-घर जलते होंगे, अन्यथा दिसम्बर तो बस होटलों में पार्टियों की तैयारियों का ही महीना बन जाता है। 24 दिसम्बर, 1930 को भारत के बाल, वृद्ध, नर-नारी के सिर ऊंचा करके दुनिया से पूछने का दिन है। क्या किसी और देश ने ऐसी वीर बेटियां पैदा कीं। बंगाल की शांति घोष और सुनीति चौधरी अंग्रेज़ों के विरुद्ध क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल थीं। जन्म तो इनका 1916 व 1917 में ही हुआ, पर 1930 तक इन्होंने इतिहास में अपने लिए स्वर्णिम अक्षर सुरक्षित कर लिए। त्रिपुरा जिले का मैजिस्ट्रेट स्टीवन्सन जो भारतीयों पर अत्याचार करने के लिए प्रसिद्ध था और सुरक्षा की चार पंक्तियों के अंदर रहता था, वहां तक ये दोनों वीर बेटियां पहुंच गईं। स्टीवन्सन को विश्वास दिला दिया कि वे वास्तव में ही नौका प्रतियोगिता के लिए आज्ञा लेने आई हैं और तभी दोनों ने पांच-पांच गोलियां मारकर उसका काम तमाम कर दिया। पूरे देश में ही नहीं, दुनिया भर में इन गोलियों की गूंज पहुंची। इसके बाद इन्हें काला पानी की जेल में भेजा गया। स्वतंत्र भारत की यह विडम्बना है कि किसी इतिहासकार ने, सरकार ने, चिंतक ने यह जानने का प्रयास ही नहीं किया कि ये दो भारत पुत्रियां काले पानी की जेल से मुक्त होने के बाद जिंदा वापस आईं या वहीं शहीद हो गईं। अगर जिंदा आईं तो कहां गईं? पर भारत के लिए 24 दिसम्बर तो त्यौहार होना चाहिए। क्या यह उन शहीदों से कम है जो फांसी के फंदे पर झूल गए और न ही ये रानी झांसी और उसकी मुंहबोली बहन मैना से कम है। काश! कथा कहानियों में इन्हें कोई स्थान मिल पाता तो ये हर बालक-बालिका का कंठहार हो जातीं। 23 दिसम्बर 1912 भी तो देश के लिए गौरव का दिन है जब बंगाल से अंग्रेज़ों ने दिल्ली दरबार बनाने के लिए दिल्ली में प्रवेश किया तो दिल्ली के दिल चांदनी चौक में एक जबरदस्त बम धमाका हुआ। अफसोस सत्ता मद में मस्त हाथी पर सवार लॉर्ड हार्डिंग घायल होकर बच गया, लेकिन महान क्रांतिकारी रासबिहारी बोस के नेतृत्व में भारत के वीर पुत्रों ने अपने संकल्प बल से विदेशी शासकों का यथायोग्य स्वागत किया। इस बमकांड के बाद गिरफ्तारियां तो होनी ही थीं, इसमें भाई बाल मुकुंद, श्री अवध बिहारी, अमीर चंद, बसंत कुमार आदि क्रांतिकारी पकड़े गए। अदालतों में न्याय का नाटक हुआ और ये सभी भारत माता की जय कहते हुए फांसी के फंदे पर लटका दिए गए। क्या दिल्ली वाले और देश की राजधानी में शासन करने वाले 23 दिसंबर को इन शहीदों की स्मृति में किसी मेले का आयोजन करेंगे? क्या इन भूले-बिसरे शहीदों से देश को परिचित करवाएंगे? उन्हें याद ही नहीं रहेगा बड़ा दिन तो 23 दिसम्बर है। दिसम्बर के गर्भ में गौरवशाली कहानियों का भंडार है, पर याद कौन करे? देश तो डायर और मैकॉले का नया साल मनाने की तैयारी में है। एक काकोरी कांड हुआ था जिसने अंग्रेज सरकार को हिलाकर रख दिया। इसके लिए गिरफ्तार हुए रामप्रसाद बिस्मिल, वीर अशफाक उल्ला, शहीद राजिंदर लाहिड़ी, रोशन तथा अन्य कई साथी किसी ने माफी नहीं मांगी, न पश्चाताप किया। डटकर कहा कि वे भाग्यशाली हैं उन्होंने भारत देश की स्वतंत्रता के लिए अंग्रेज़ों से लोहा लिया। इन वीरों में से 17 दिसम्बर 1927 को राजिंदर लाहिड़ी फांसी पर चढ़ाए गए। गीता हाथ में लेकर वह फांसी के फंदे की ओर बढ़े। 19 दिसम्बर को रामप्रसाद बिस्मिल गोरखपुर की जेल में शहीद पाए गए और 19 दिसम्बर को ही अश्फाख उल्ला ने फांसी का फंदा चूमा। यह भी कहा-मेरी खुशकिस्मती है कि मुझे वतनपरस्ती का आलातरीन इनाम मिला। सामाजिक क्रांति के प्रणेता स्वामी श्रद्धानंद दिल्ली में एक शैतान की गोलियों का शिकार होकर शहीद हो गए। भारतवासी हर दिन शहादत के गीत गाएं तो भी कम है। 25 दिसम्बर को राष्ट्र गौरव मदन मोहन मालवीय जी का भी जन्म हुआ था, भारत को प्रथम विश्वविद्यालय देने वाले थे। 25 दिसम्बर को कौन भूल सकता है। केवल नेता, प्रधानमंत्री, कवि नहीं अपितु भारत मां के शानदार पुत्र और मानवीयता से पूर्ण हृदय वाले अटल बिहारी वाजपेयी का जन्मदिवस था। क्या दूरदर्शन हर रोज एक शहीद की गाथा देशवासियों को नहीं सुना सकता? सैकड़ों टी.वी. चैनल क्या अपना दायित्व राष्ट्र के लिए पूरा नहीं करेंगे? क्या दिसम्बर केवल नए साल के जश्नाें के लिए देशी-विदेशी शराब इकट्ठा करने, होटलों में नाच-गाने के प्रबंध की बुकिंग करवाने और आधी रात के अंधेरों में नाच-नाच कर गुलामी की जूठन चाटने का है? सोचना तो पड़ेगा ही। स्वतंत्र भारत का गौरव 16 दिसम्बर जब भारतीय सेना के आगे पाकिस्तान के 93 हज़ार सैनिकों ने नाक रगड़कर आत्मसमर्पण किया। मनाओ, गाओ पर देश के गीत।