नेकी कर अन्धे कुएं में डाल

बदी पर नेकी की, झूठ पर सच की और बुराई पर भलाई की जीत की बात ही पढ़ते आए थे। जब से हमने होश संभाली, तभी से पाठशाला को मन्दिर सम माना जाता था, और गुरु वन्दना का तो बाकायदा एक दिन निर्धारित होता ही था।  देखते ही देखते जब हमारी उम्र ने गुज़रने की रफ्तार पकड़ी तो ये सब विश्वास, मूल्य और मान्यतायें भी अपना रूप बदल गयीं। पहले सुना था कि केवल गिरगिट ही रंग बदलता है लेकिन अब अगर हर मौसम, हर दिन या हर पल रंग न बदल पायें तो उसके लिए कहोगे कि जा रे ज़माना। ज़माना बदलता गया, पहले नेकी कर के दरिया में इसलिए डाल देते होंगे कि यह बह कर घाट-घाट से गुज़रे और नेक बन्दों से ये दुनिया इतनी सुगन्धित हो जाए कि इत्र फुलेल वालों को भी अपनी दुकानें बढ़ानी पड़ें। सुनते थे जो बेचते थे दर्दे दिल, वे दुकान अपनी बढ़ा गये।  लेकिन अब नेक बंदों को दिल टूटने का यह मज़र् कैसा? नेकी का माहौल था, हर आदमी दूसरे से बढ़ कर नेकी करने पर तुला हुआ था। ऐसे में बाहरी खुशबू की तलाश कौन करता? लेकिन जा रे ज़माना, अब खुशबूदार आदमियों ने इत्र फुलेल को विदा दे दी तो नेकी ने भी कोरोना के इस ताज़ा बदले रूप की तरह रंग बदल लिया। सुना है यह कोरोना पहले से सत्रह प्रतिशत अधिक तेज़ी से फैलता है। इसी लिए ज़माने की बदलती चाल ने नेकी के नाम पर नई पंगत सजानी शुरू की तो उसने भी सत्रह प्रतिशत नहीं, सौ प्रतिशत अधिक तेज़ चाल पकड़ ली। 
पंजाब में  त्रिया चरित्र के बारे में एक कहावत है, ‘रोती यारों को, ले ले नाम अपने भाइयों का।’ नाम तो अभी भी नेकी का ही लिया जाता है। नहीं तो नेक बन्दों के लेबुल कम न पड़ जाते? लेकिन बंदा-परवर, अब नेकी करके आज के नेक बंदे दरिया में डालने नहीं जाते, उसे अपने ही घर के पिछवाड़े में बने कुएं में डालते चले जाते हैं। देश में लोगों के लिए कुएं खुदवाने की परम्परा बहुत पुरानी है। धर्मी-कर्मी लोग कुएं खुदवाते थे, प्यासे जनों की प्यास बुझाने के लिए। सत्य कर्म का यह बोलबाला था, साहिब, कि प्यासे कम और कुएं अधिक हो गए थे। सब को अपने पितरों की चिन्ता थी। इस धरती पर कुआं खुदवा कर प्यासों को पानी मिलेगा या दोगे तो ऊपर स्वर्ग में तुम्हारे पितरों को अमृत ही नहीं मिलेगा, वे उसे अधिकार से ले लेंगे, कहते थे। 
लेकिन ज़माना बदल गया बन्धु! धनी मानी लोगों के घरों के पिछवाड़े कुएं तो आज भी खुदवाये जाते हैं, लेकिन वे चलते कुएं नहीं कि जहां राहगीर अपनी प्यास बुझा लें। देखते ही देखते ये कुएं अन्धे हो गए। ज़माना राहगीरों को पानी पिलाने का नहीं, रहज़नों को चंग पर चढ़ाने का है। किसी ज़माने में राजा महाराजा अपना और अपने पूर्वजों का खज़ाना अनन्त काल तक सुरक्षित रखने के लिए तिलिस्म बांधते थे। तिलिस्म की कहानियां तभी प्रचलित हुईं थीं। देवकी नन्दन खत्री की चन्द्रकांता और चन्द्रकांता सन्तति उन्हीं दिनों में लिखे गये थे। 
चुनार के बीहड़ जंगलों में देवकी नन्दन एक अधिकारी थे। तभी उन्होंने चन्द्रकांता और उनकी सन्तति लिखे थे। जब भूतनाथ और देवी चन्द जैसे एय्यारों ने उन्हें बींधा था और राजा वीरेन्द्र सिंह और उनकी आने वाली पीढ़ियों के लिए रानी चन्द्रकांता सहित उन्हें पेश किया था। अब केवल अच्छा लगता है ऐसी बातें कहना, सुनना। तब ज़िन्दगी अनिंद्य सौंदर्य से भरी और रहस्यपूर्ण थी। लोग ऐसी दुनिया में रहते थे जहां राजा शूरवीर और नेक थे, उनके एय्यार उन पर जान कुर्बान करने के लिए तैयार बर तैयार रहते थे और खुशबू की विरासत पीढ़ी दर पीढ़ी तिरती चली जाती थी।  लेकिन खुशबुओं के ज़माने लद गए। लोकतंत्र ने गद्दियों पर ऐसे महाराजा पेश कर दिये जो उम्र भर के लिए राजकाज अपने नाम ठेके पर लिखवा लेना चाहते हैं। नेकी के दरिया सूख कर बदी के रेगिस्तान बन गये जहां चलते अन्धड़ों में जन-सेवकों ने शुतुरमुर्गों की तरह अपने मुंह छिपा लिए। अब जन सेवा बन गई परिवार सेवा। भाई भतीजावाद कल्याण का पर्याय बन गया। आदर्शों के तिलिस्म टूटे और बड़े आदंिमयों के पिछवाड़े ऐसे कुएं बन गये कि जिनके पास कोई आम जन फटक भी न पाये।  पहले उन कुओं पर जन कल्याण और सर्व-समर्पण के नाम पट्ट लगे रहते थे। अब तो परिवार जनों और व्यावसायिक घरानों ने अपने ब्रांड लगा दिये। पद प्रतिष्ठा के ऐसे अंधे कुएं बनाओ जो आपके नाती-पोतों के लिए खुलें, बदलते युग की आवाज़ बनी। 
मुहावरे सुधार दिये गये हैं। पहले कहते थे, डाक्टर का बेटा डाक्टर और जनसेवक का बच्चा जससेवक, जो उसकी कीर्ति, शराफत, सच्चाई और नेकी को सात जन्म तक चमकाये। अब युग तासीर बदल गई । नेता का बेटा नेता और शठ का बेटा शठ न निकले तो सोने पर सुहागा का मुहावरा क्यों न दूसरा अर्थ समझाये। अब अन्धे कुओं के इस नखलिस्तान में ताकतवर का ही सात बीसी सौ है और पुराने मूल्यों के साथ-साथ पूरा गणित ही आत्म केन्द्रित हो गया है। ऐसे माहौल को अब कोई जा रे ज़माना भी नहीं कहता। यही तो नया ज़माना है, जिसे धरोहर मान हर बड़े आदमी को संजो कर रखना है। जो सदियों से फिसड्डी थे, वे तो आज भी फिसड्डी रहेंगे, एक दिलासा भरे भाषण पर तालियां पीटते फिसड्डी।