पानी की सम्भाल के लिए यत्न देर आये, दुरुस्त आये

पानी के महत्त्व का एहसास देश में ही नहीं, अपितु अन्तर्राष्ट्रीय धरातल पर होना शुरू हो गया है। सदियों से लोगों को पानी के महत्त्व का एहसास करवाने के लिए मौखिक एवं लिखित रचनाओं में पानी का गुणगान किया गया है। भिन्न-भिन्न धरतियों पर पानी के देवी-देवताओं के संकल्प बने एवं उनकी पूजा भी होती रही है। धरती पर जीवन को हरियाली, पानी एवं हवा से भी जोड़ा जाता रहा है। इनके बिना जीवन की सम्भावना नहीं है तथा न ही इसकी कल्पना की जा सकती है। पानी की अमृत बूंदों से तुलना की गई है। नदियों एवं दरियाओं के किनारों पर सभ्यताएं पनपीं, गांव एवं शहर निर्मित हुये तथा कृषि व्यवसाय अस्तित्व में आया।
 समय के व्यतीत होने के साथ-साथ तथा सभ्यताओं के विकसित होने से प्रकृति की इस देन की कीमत बढ़नी चाहिए थी परन्तु वर्तमान समय तक पहुंचते हुये इसकी जितनी अवहेलना  एवं बेकद्री की गई तथा की जा रही है, उसकी सज़ा मनुष्य मात्र को भुगतनी पड़ेगी। आगामी पीढ़ियां पानी को तरसेंगी। इस बात का एहसास होना शुरू हो गया है। नदियां, नाले सूखते जा रहे हैं। भूमिगत पानी का खज़ाना खत्म हो रहा है। हमारी सरकारों की इसके प्रति निंद्रा खुलने लगी है परन्तु अधिकतर समाज आज भी इस अमूल्य वरदान के प्रति बेपरवाह है। इसीलिए अन्तर्राष्ट्रीय चेतना पैदा करने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ की ओर से विश्व जल दिवस मनाया जाने लगा है। 22 मार्च को पानी के प्रति चेतना उत्पन्न करने के लिए दुनिया भर में यह दिवस मनाया गया। दशकों के बाद इसके प्रति भारतीय सरकारों की निद्रा खुली है। केन्द्र सरकार की ओर से ‘जल शक्ति अभियान’ चलाने की योजना बनाई गई है। इसे ‘कैच द रेन’ नाम दिया गया है अर्थात् जहां कहीं भी हो, पानी को बचाया जाना चाहिए। मुख्य रूप से वर्षा के पानी को बचाने के लिए बड़ी योजनाबंदी की जानी ज़रूरी है। यह अधिकतर पानी धरती के भीतर ही समाया जाना चाहिए ताकि भूमि के भीतर इसके घटते स्तर को स्थिर रखा जा सके। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस दिवस पर जल शक्ति अभियान चलाने की अपील की है तथा एक और पते की बात यह कही है कि देश के प्रत्येक भाग में मनरेगा योजना के अन्तर्गत खर्च किया जाने वाला पैसा मानसून के आगमन तक पानी की सम्भाल पर खर्च किया जाना चाहिए  क्योंकि ऐसी सम्भाल के बिना देश का विकास सम्भव नहीं होगा। उन्होंने कहा कि हम वर्षा के पानी को ही बर्बाद नहीं करते, अपितु कृषि, उद्योग एवं घरेलू क्षेत्रों में पानी का अधिकाधिक दुरुपयोग करते हैं। भूमिगत पानी को निरन्तर निकाला जा रहा है।
 पंजाब का ही उदाहरण लें तो हमारे बड़े नेता बिजली मुफ्त देने के दावे करते रहे हैं तथा घर-घर पीने का पानी पहुंचाने की अपेक्षा ट्यूबवैल लगवाने को अधिमान देते रहे हैं। उदाहरण के तौर पर वर्ष 1960-61 में प्रदेश में केवल साढ़े 7 हज़ार ट्यूबवैल थे। आज इस छोटे से प्रांत में 15 लाख ट्यूबवैल हैं। कृषि के लिए बिजली मुफ्त देने की घोषणाओं ने इन ट्यूबवैलों के अधिकाधिक दुरुपयोग को प्रोत्साहित किया है जिसके कारण यहां भूमिगत पानी खत्म होने के कगार पर है। प्रदेश सरकारें फसली विभिन्नता लाने में बुरी तरह विफर हो गई हैं। गेहूं एवं चावल की पैदावार ने भूमिगत पानी को खत्म कर दिया है। जो थोड़ा-बहुत पानी बचा भी है तो वह अनेक प्रकार की रासायनिक खादों के प्रयोग के कारण पूर्णतया विषाक्त बन चुका है। हालत यह है कि पहले ही नदियों के पानी के विवाद में फंसे पंजाब में कृषि के लिए नहरी पानी का प्रयोग केवल 27 प्रतिशत होता है तथा शेष 73 प्रतिशत पानी ट्यूबवैलों के माध्यम से प्राप्त किया जाता है। इससे सहज ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि आगामी समय में हम कृषि के लिए किस सीमा तक पानी का उपयोग कर सकेंगे। इसके लिए प्रत्येक स्थिति में अब इस प्रयोग को घटाने के लिए  बूंद-बूंद कृषि प्रणाली को प्रोत्साहित करने के लिए नई तकनीकों का इस्तेमाल करना होगा। उद्योग एवं घरेलू क्षेत्र में प्रत्येक ढंग से सख्ती के साथ पानी के दुरुपयोग को रोकना होगा। गांवों में तालाबों को कब्ज़े हटा कर पहले वाली स्थिति में लाना होगा। सूख चुके कुओं को ठीक करना होगा। चैक डैम बनाने होंगे। बोरवैलों की संख्या बढ़ानी होगी तथा वाटर हार्वेस्टिंग को प्रोत्साहित करना होगा। शहरों में, घरों में रेन हार्वेस्ंिटग के साथ-साथ छतों एवं आंगनों को पानी एकत्रित करने के लिए तैयार करना होगा।
नि:सन्देह यदि पानी की सम्भाल के प्रति आन्दोलन चला कर लोगों को पूर्णतया सचेत न किया गया तो होने वाले इस भारी नुकसान के लिए हम सभी भागीदार होंगे। पंजाब में अनुमानतया 600 एम.एम. बारिश होती है। इस पानी को कैसे बचाना है अथवा इसे पुन: धरती के भीतर कैसे भेजना है, इस हेतु पुख्ता योजनाबंदी को सफल करने में ही हमारे देश एवं समाज का हित होगा। इससे ही जीवन की धड़कन को तरो-ताज़ा रखा जा सकेगा।
—बरजिन्दर सिंह हमदर्द