ज़माना बदल कर ब़ेगाना हो गया

समय इतना बदल गया है कि अब इसकी सही से पहचान  भी नहीं हो पाती। पहले बड़ी उम्र का हो जाना वरिष्ठता होती थी। पूरा नगर, पूरा गांव बड़े बूढ़ों का सम्मान करता। अब बूढ़ा हो जाने का अर्थ है, बासी हो जाना। पुराने चावलों की आज कद्र नहीं होती, उनके माथे पर बासी कढ़ी में उबाल आना जैसे मुहावरे चिपका दिये जाते हैं। 
आपने दिन रात मेहनत करके खुद चना चबेना खा अपनी दिन-रात की मेहनत से अपने बेटों, भतीजों को पढ़ाया, रोज़गार करने के काबिल बनाया और आज वे आपको आंखें दिखाते हुए कहते हैं, ‘यह आपका अपना चुनाव था, हम तो आपको  कहने नहीं गये थे कि आप चना चबेना खा अपने हक की रोटी खर्च हमें काबिल बनाओ।’ यह आपका अपना खुद किया गया चुनाव था। इसके बल पर हमसे किसी राहत रियायत की उम्मीद न करना। आपकी यह फरियाद हमें टसुवे बहाने जैसी लगती है।  फिर किस हक की कमाई करने की बात आप कहते हैं। आजकल हक या बिना हक की कमाई होती कहां है? फिर यह नौजवानों का देश है। देश की आधी आबादी पैंतीस की उम्र से नीचे है, और उनमें से अधिकतर बेकार हैं। देश के आंकड़ा शास्त्री कहते हैं कि समय बीतने के साथ-साथ चिकित्सा विज्ञान की तरक्की के साथ इस देश के लोगों की औसत उम्र बढ़ती जा रही है, अर्थात हर साल पहले से अधिक बूढ़ों की संख्या लोगों को नासूर की तरह परेशान करती रहती है। 
पिछले दिनों देश में महामारी के धारावाहिक चले। मरीज़ों में संक्रमण बढ़ता गया, लाखों की कतार लग गयी। रोग भगाने के लिए न औषधि थी, और न ही इस महामारी की अगली किस्त के लिए बचाव के टीके। गरीब देश में हर ज़रूरी चीज़ की कमी नहीं होती तो पैदा कर दी जाती है ताकि बाद में धड़ल्ले से उसकी चोर बाज़ारी हो सके। हाथ पर उगती सरसों की तरह लोग रंक से राजा हों जाएं, फकीर से अमीर हों जाएं, झोपड़ी से प्रासाद हो जाएं। ऐसे में आप हक की कमाई की बात कहते हैं? जनाब किसी भी तरह कमाई होनी चाहिए, चाहे किसी नाजायज़ रास्ते से ही हो जाए। आजकल तो चौराहे पर भीख भी दीनता और आहत होने का आडम्बर किये बिना नहीं मिलती। खैरात मांगने कमाने का यह फार्मूला नीचे से ऊपर तक चलता है। ज़रूरतमंद और दीनविहीन होने की नौटंकी जितनी कामयाबी से करो, उतना ही सफलता आपका माथा चूमेंगी। 
वैसे आजकल खैरात भी सरकारी मुहर के साथ पेशेवाराना हो गई। इस देश की भूख, बेकारी, बीमरी का एक ही समाधान है, खैरात। रोटियों के फ्री कैम्प से लेकर औषधियों और टीकों के फ्री कैम्प लगाओ, अपनी फोटो अखबार में छपवाओ। चेहरा यूं बहुचर्चित हो जाओ, तो उसे किसी चुनाव की ओलम्पिक में दौड़ाओ। कामयाब हो गये तो समझो तुम्हारी सात पुश्तें तर गईं, क्योंकि जो एक बार इस दौड़ में कामयाब हो जाता है, वह कभी कुर्सी से उतरता नहीं। तब तक जब तक उसके बेटे, भाई, भतीजे इस कुर्सी पर बैठने के काबिल न हो जाएं। यूं वंश परम्परा चलती है। एक ओर सफेदपोश भ्रष्टाचार की और दूसरी ओर खैरात में रोटी से लेकर रुतबा तक कमा देश के लिए मशाल बन जाने की। इसे मशाल कहिये या रोशनी के मीनार। उसकी नींव में इन पथमसीहाओं का बलिदान नहीं, नित्य नये मुहाविरे गढ़ कर एक नई क्रांति का आभास पैदा कर सकने की सामर्थ्य होती है, क्योंकि ऐसी कोई सामर्थ्य बूढ़ों के पास नहीं रहती। वह तो नैतिकता और आदर्शों की दुहाई देते नज़र आते हैं। इसलिए उन्हें जितनी जल्दी वे असम्बद्ध करार देकर नकार दिया जाये उतना ही अच्छा। 
इसीलिए पिछले दिनों जब महामारी का प्रकोप अनियंत्रित हो रहा था, तो न्याय पीठ से भी एक वचन मुखरित हुआ, ‘अरे औषधि कम है, टीके नहीं मिलते, तो पहले अपनी युवा शक्ति को इससे बचाओ। टीके लगाओ। बूढ़ों का क्या है? वह तो अपनी पारी खेल चुके। बिना दवा दारू चल भी बसे तो किसी का क्या बिगड़ेगा?’  जी हां, बूढ़े से अधिक अनचाहा बोझ और कोई नहीं। उनमें आपको गरिमापूर्ण सांस्कृतिक विरासत नहीं, वह कराहता हुआ अर्थतन्त्र मिलता है, जिसमें नई पीढ़ी के हक पर ये बूढ़े छापा मारने चले आते हैं। 
बूढ़ों की दुर्दशा पर सियासत करने के लिए लोग तैयरा हैं , लेकिन एक सेहतमंद बूढ़ा उन्हें दु:संवाद नज़र आता है। यह सुनीसुनाई बात नहीं अभी किये गये पैंशन के कानून के संशोधन ने भी हमें समझाया है। अभी खबर मिली है कि भौतिकता से ललचाये और बौराये रिश्तदार पैंशन पाते बूढ़ों को मौत के घाट उतारने लगे हैं, ताकि उनकी पारिवारिक पैंशन से अपनी जेबें भर सकें रिश्तेदारी में इसे लेने का अपना हक जता मुकद्दमे बरसों चलते हैं। इस बीच उनकी सन्तान को कोई कष्ट न हो और पैंशन का भुगतान बिना विलम्ब होता रहे। सरकार ने कानून बनाया। इसलिए नाबालिग बच्चों के संरक्षक अधिकारी बनेंगे। अब स्वाभाविक संरक्षक कौन है? इस पर झगड़े बढ़ेंगे। नये वेतन आयोग ने पैंशन बढ़ा दी है, तो ऐसी निर्मम हत्याएं और सामने आयेंगी। जा रे ज़माना, युगधर्म ने कैसी चाल बदल ली? मानवता, नैतिकता और ईमानदारी शर्मिंदा हो कर अंधेरे में मुंह छिपाने लगी, और बदलती दुनिया एक नकली फानूस बन गई, एक चमकता हुआ नौजवान फानूस।