सेफोलॉजी न विज्ञान, न गणित अपितु एक चुनावी शिग़ूफा

‘ढोल कनस्तर पीट पीट कर, गला फ ाड़ चिल्लाना, यार मेरे मत बुरा मान, यह गाना है न बजाना’ चुनावी विश्लेषकों पर वास्तव में यही जुमला बिल्कुल फिट बैठता है। चुनाव विश्लेषकों के आकलन हर बार शिगूफे साबित होते हैं। ये 85 फीसद से ज्यादा फेल रहते हैं। फिर इस विज्ञान और गणित कहने का क्या औचित्य। इसे आखिर कोई गंभीर विद्या क्यों माना जाये? क्या चुनाव विश्लेषक कभी इस बात पर शर्मिंदा होते हैं कि उनका आकलन सिरे से गलत निकला? सवाल यह  भी है कि क्या मीडिया कभी इस सब पर सवाल उठाता है?
पांच राज्यों में होने वाले चुनावों का नतीजा 10 मार्च 2022 को आ जाना है। चुनावी विश्लेषक या सेफोलॉजिस्ट ने सर्वेक्षण एजेंसियों की सहायता से टीवी पर बता दिया है कि किस राज्य में किस दल को कितनी सीटें मिल रही हैं। अब मतदाता का कर्त्तव्य है कि इनके निकाले नतीजे को सच करने की कोशिश करें, क्योंकि अगर परिणाम इनसे बहुत भिन्न आये तो झूठी तो जनता ही साबित होगी। दुर्भाग्यवश मतदाता बरसों से यह दायित्व नहीं निभा रहा और चुनावी विश्लेषक साल दर साल झूठे साबित होते जा रहे हैं। चुनावी विश्लेषकों का दावा है कि चुनावी विश्लेषण विज्ञान या सेफोलॉजी अब बहुत विकसित हो चुकी है। इसमें तकनीक, विज्ञान, गणित का समावेश है और आकड़ों के तार्किक विश्लेषण हेतु  सांख्यिकी के उच्चतम मानदंडों और सूत्रों का प्रयोग किया जाता है, पर सबसे बड़ा सवाल यह है कि अगर यह विज्ञान है तो इसके प्रेक्षण और नतीजे इतने त्रुटिपूर्ण और अनिश्चित क्यों होते हैं। वैज्ञानिक प्रयोगों में भी चूक होती हैं, फाल्स पॉजिटिव या ट्रू निगेटिव होता है पर  उनके त्रुटिपूर्ण आकलन की आशंका की एक सीमा होती है—बहुधा आधे प्रतिशत से ले कर दो तीन फीसदी तक। लेकिन इस कथित सेफोलॉजी विज्ञान में तो 50 से 80 फीसदी की गलती होती है। अगर यह शुद्ध गणित है तो फिर सीटों की संख्या इतनी क्यों गड़बड़ाती है? 
चुनावी विश्लेषक संजय कुमार कहते हैं कि अमूमन लोग हमारी असफलताओं को याद रखते हैं,सफलताओं को भूल जाते हैं। असल में यदि असफलता 90 फीसद हो और सफलता दस फीसद से भी कम तो ज़ाहिर है लोग असफलताओं को ही याद रखेंगे। पिछले साल बंगाल चुनाव में चुनावी विश्लेषकों के अनुमान  से भाजपा 292 सीटों में से 143 से 183 सीटें जीत रही थी पर वह 77 सीटों पर सिमट गई। 2015 में यही विश्लेषक कह रहे थे कि भाजपा को बिहार में बढ़त मिलेगी पर वह मात्र 58 सीटें ही ला सकी। दो साल पहले इन्हीं विश्लेषकों ने आरजेडी-कांग्रेस के गठबंधन को 161 सीटें दीं पर मिलीं 110 सीटें ही। पुडुचेरी में चुनावी विश्लेषकों को उम्मीद थी कि कांग्रेस को 24 सीटें मिलेंगी और भाजपा बमुश्किल दहाई छू पायेगी। हुआ यह कि बीजेपी के हिस्से 16 सीटें और कांग्रेस के हाथ आईं महज 8 सीटें । मतलब इन्होंने जो माहौल आंकड़ों से समझा, ठीक उसके उलट हुआ। 
अभी उत्तराखंड में कांग्रेस व भाजपा में जबरदस्त टक्कर बताई जा रही है। कभी छत्तीसगढ़ का यही हाल था लेकिन नतीजा कमोबेश एकतरफा रहा यानि 90 में से 68 सीटों पर कांग्रेस ने कब्जा किया। हरियाणा, मध्य प्रदेश में भी चुनावी विश्लेषक चित्त रहे। हरियाणा में भाजपा द्वारा सबके सफाये की इनकी उम्मीद का नतीजा यह हुआ कि उसे दूसरी पार्टी से गठबंधन करके सरकार बनानी पड़ी। मध्य प्रदेश में भाजपा के बहुमत का ऐलान हुआ पर मिला कांग्रेस को। इस बार तकरीबन सभी चुनावी विश्लेषणकर्ता उत्तर प्रदेश में भाजपा को साफ बहुमत दिला रहे हैं। 2017 में भाजपा को 164 से 185 सीटें दी जा रहीं थीं पर विश्लेषकों को धता बताकर भाजपा 325 पर पहुंच गई। बसपा को चुनावी विश्लेषक 90 सीटें दे रहे थे, मिलीं 19 और सपा को 170 सीटें  मिलने का अनुमान महज 47 सीटों पर दम तोड़ गया। सबब यह कि चुनावी विश्लेषक चुनावों का झोलाछाप चिकित्सकों की तरह निदान करते हैं। ये जो कहते हैं, उससे सच्चाई का कहीं दूर-दूर तक वास्ता नहीं रहता। पर अचरज इस बात का है कि वे अपने आकलन पर शर्मिंदा होने की बजाय फिर चेहरे चमकाते हुए टीवी चौनलों पर नमूदार हो जाते हैं।  
सवाल है कि आखिर चुनावी विश्लेषण इतने असफल क्यों होते हैं? मुख्य वजह है कि यह न तो विज्ञान है, न ही विशुद्ध तौर पर गणित। यदि यह सामान्य आकलन है भी तो उसकी प्रक्रिया और विधि, प्रविधि में झोल है।  कुछ विश्वविद्यालयों ने तकरीबन आठ साल पहले पोलिटिकल साईंस में एक पेपर शामिल किया, ‘अंडरस्टैंडिंग इंडियन इलेक्शन’। चुनाव विश्लेषण इसी के तहत आता है। आज तो बाकायदा ऑनलाइन कोर्स मौजूद है। तमाम दावे हैं कुशल सैफोलॉजिस्ट बनाने के, हालांकि खंगाले तो वे खोखले ही निकलेंगे। राजनीति में चुनावों की महत्ता और इसको पूरे वर्ष भर का इवेंट बन जाने के अलावा इसमें प्रसिद्धि तथा पैसा देखते हुए बहुतेरे इस क्षेत्र में कूद पड़े। जैसे जटाजूट बढ़ाकर, बदन पर राख लपेट कोई भी साधु बन सकता है, उसी तरह खास योग्यता और निष्णातता की अनुपस्थिति को देखते हुए मीडिया परिदृश्य पर ढेरों सेफोलॉजिस्ट उतर आये। 
अधिकतर सेफोलॉजिस्ट स्वयंभू ही थे। किसी सेफोलॉजिस्ट को समाजशास्त्र के सैद्धांतिक, व्यवहारिक ज्ञान के अलावा नृविज्ञान या एंथ्रोपोलोजी राजनीति तथा मानव व्यवहार के आकलन में भी पारंगत होना आवश्यक होता है। देश के विभिन्न भागों की जनांकिकी और समाज से उनका सम्पर्क होना चाहिये। डाटा साइंस, मार्केट रिसर्च, डिजिटल और सोशल मीडिया के तौर-तरीके और हथकंडों की भी उसे समझ होनी चाहिये। ज्यादातर सेफोलॉजिस्ट आंकड़ों के विश्लेषण, सांख्यिकी और गणित के ज्ञान से कोरे हैं। उन्होंने कम्पनियां खोल रखी हैं और दूसरों के विश्लेषण को पढ़ते हैं।
 अहम बात यह कि करोड़ों मतदाताओं के मन की थाह कुछ हज़ार लोगों से पूछकर कैसे लगाई जा सकती है। 2017 में एक नामी सर्वेक्षण एजेंसी ने उत्तर प्रदेश में 6500, पंजाब में 3500, उत्तराखंड में 1800 और गोवा में 1600 का सैंपल लिया। सटीक आकलन के लिये आवश्यक है कि आंकड़े मतदाताओं के बड़ी संख्या से जुटाये गये हों। भारतीय समाज की विविधताओं के मद्देनज़र सैंपल संख्या कम से कम दसियों लाख में होनी चाहिये जो असंभव है। टीवी कम्पनियां दर्शकों के मनोरंजन के लिये इतना नहीं खर्चेंगी। कम्पनियां भी जटिलता से बचना चाहेंगी। पश्चिमी समाज अमूमन इतना विविधतापूर्ण नहीं है इसलिये वहां छोटे सैंपल और सामान्य विश्लेषण से काम चल जाता है। जाहिर है, इसीलिये उनकी त्रुटियों का प्रतिशत भी कम होता है। सैंपल साइज बड़ा होना चाहिये पर इसके चुनने का तरीका भी सुविचारित और तार्किक होना चाहिये और कार्यविधि या मेथोडोलॉजी भी। किसी चुनावी क्षेत्र का सामाजिक ढांचा किन वर्गों से मिलकर बना है,  कुल मतदाताओं में उनका प्रतिशत और प्रतिनिधित्व क्या है? किस वर्ग का मतदान व्यवहार, वोटिंग पैटर्न क्या है?          -इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर