यूके्रन संकट में संयुक्त राष्ट्र की प्रासंगिकता

रूस और अमरीका के वर्चस्व की लड़ाई में यूके्रन दो पाटों के बीच घुन की तरह पिस रहा है। सबसे बड़ी बात यह है कि जिस संयुक्त राष्ट्र संघ को वैश्विक संकट के दौरान उचित हस्तक्षेप के लिए अस्तित्व में लाया गया था, वह महाशक्तियों के समक्ष बौना दिखाई दे रहा है। इस मायने में उसकी प्रासंगिकता पर सवाल उठना स्वाभाविक है। सीधा दखल  देने में अक्षम संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरस ने यूके्रन पर हमलों की निंदा तो की है, लेकिन हस्तक्षेप कर शांति के कोई उपाय नहीं कर पाने में निराशा ही जताई है। गुटेरस का कहना है कि दुनिया हाल के वर्षों में वैश्विक शांति और सुरक्षा को लेकर सबसे बड़े संकट का सामना कर रही है। उन्होंने रूस के दखल को यूके्रन की संप्रभुता और अखंडता के लिए दोषी ठहराया। साथ ही ताजा घटनाक्रम को मिंस्क समझौते के उल्लंघन के लिए बड़ा झटका करार दिया। रूस यूके्रन के प्रांत दोनेस्क और लुहांस्क को स्वतंत्र देश की मान्यता दे चुका है। साफ  है, रूस की यह इकतरफा कार्यवाही यूएन चार्टर की शर्तों का उल्लंघन है। यह स्थिति मैत्रीपूर्ण संबंधों को भी धता बताने वाली है। इसीलिए अंतर्राष्ट्रीय कानून की भी अवज्ञा है। 
अतएव इन कानूनों का पालन कराने का दायित्व संभालने वाला संयुक्त राष्ट्र क्यों हाथ मलते दिखाई दे रहा है, यह चिंतनीय पहलू है। गोया, संयुक्त राष्ट्र को आने वाली पीढ़ियों को उत्तर देना है कि जब फैसले लेने का समय था और जिन पर विश्व को दिशा देने का दायित्व था, वे विकसित देश या अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं क्या कर रहे थे? यदि संयुक्त राष्ट्र को खुद को प्रासंगिक बनाए रखना है तो उसे अपना प्रभाव दिखाना होगा और विश्वसनीयता को बढ़ाना होगा। संयुक्त राष्ट्र पर कई तरह के सवाल उठ रहे हैं। अफगानिस्तान पर संकट, दुनिया पर चल रहे छाया युद्ध (प्रॉक्सी वार), वैश्विक आतंकवाद और कोरोना वायरस की उत्पत्ति को लेकर भी संयुक्त राष्ट्र एवं विश्व स्वास्थ्य संगठन ने आज तक आशंकाएं दूर नहीं कीं? यदि यह वैश्विक संस्था अपने भीतर समयानुकूल सुधार नहीं लाती है तो कालांतर में महत्वहीन होती चली जाएगी और फिर इसके सदस्य देशों को इसकी ज़रूरत ही नहीं रह जाएगी। भारत जैसे देश को संयुक्त राष्ट्र की स्थायी सदस्यता से बाहर रखते हुए इस संस्था ने जता दिया है कि यहां चंद अलोकतांत्रिक या तानाशाह की भूमिका में आ चुके देशों की ही तूती बोलती है। यूक्रेन के सिलसिले में भी यही मानसिकता साफ  दिखाई दे रही है। 
दूसरे विश्व युद्ध के बाद शांतिप्रिय देशों के संगठन के रूप में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् का गठन हुआ था। इसका अहम् मकसद भविष्य की पीढ़ियों को युद्ध की विभीषिका और आतंकवाद से सुरक्षित रखना था। इसके सदस्य देशों में अमरीका, ब्रिटेन, फ्रांस, रूस और चीन को स्थायी सदस्यता प्राप्त है। याद रहे चीन जवाहरलाल नेहरू की अनुकंपा से ही सुरक्षा परिशद् का सदस्य बना था जबकि उस समय अमरीका ने सुझाया था कि चीन को संयुक्त राष्ट्र में नहीं लिया जाए और भारत को सुरक्षा परिषद् की सदस्यता दी जाए, लेकिन अपने उद्देश्य में परिषद् को पूर्णत: सफलता नहीं मिली। भारत का दो बार पाकिस्तान और एक बार चीन से युद्ध हो चुका है। इराक और अफगानिस्तान, अमरीका और रूस के जबरन दखल के चलते युद्ध की ऐसी विभीषिका के शिकार हुए कि आज तक उबर नहीं पाए हैं। 
तालिबान की आमद के बाद अफगानिस्तान में किस बेरहमी से विरोधियों और स्त्रियों को दंडित किया जा रहा है, यह किसी से छिपा नहीं रह गया है। इजराइल और फिलिस्तीन के बीच युद्ध कभी नहीं टूटने वाली कड़ी बन गया है। अनेक इस्लामिक देश गृह-कलह से जूझ रहे हैं। उत्तर कोरिया और पाकिस्तान बेखौफ  परमाणु युद्ध की धमकी देते रहते हैं। दुनिया में फैल चुके इस्लामिक आतंकवाद पर अंकुश नहीं लग पा रहा है। साम्राज्यवादी नीतियों के क्रियान्वयन में लगा चीन किसी वैश्विक पंचायत के आदेश को रूस की ही तरह नहीं मानता है। इसका उदाहरण अजहर जैसे आतंकियों को अंतर्राष्ट्रीय आतंकी घोषित करने पर चीन का बार-बार वीटो का इस्तेमाल करना है जबकि भारत विश्व में शांति स्थापित करने के अभियानों में मुख्य भूमिका का निर्वाह करता रहा है। इसके बावजूद दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी एवं सामुदायिक बहुलता वाला देश आतंक का संकट झेल रहा है। 
1945 में परिषद् के अस्तित्व में आने से लेकर अब तक दुनिया बड़े परिवर्तनों की वाहक बन चुकी है। इसीलिए भारत लम्बे समय से परिषद् के पुनर्गठन का प्रश्न परिषद् की बैठकों में उठाता रहा है। कालांतर में इसका प्रभाव यह पड़ा कि संयुक्त राष्ट्र्र के अन्य सदस्य देश भी इस प्रश्न की कड़ी के साझेदार बनते चले गए। परिषद् के स्थायी व वीटोधारी देशों में अमरीका, रूस और ब्रिटेन भी अपना मौखिक समर्थन इस प्रश्न के पक्ष में देते रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र के 193 सदस्य देशों में से दो तिहाई से भी अधिक देशों ने सुधार और विस्तार के लिखित प्रस्ताव को मंजूरी 2015 में दे दी है। इस मंजूरी के चलते अब यह प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्र के एजेंडे का अहम् मुद्दा बन गया है। नतीजतन अब यह मसला एक तो परिषद् में सुधार की मांग करने वाले भारत जैसे चंद देशों का मुद्दा नहीं रह गया है, बल्कि महासभा के सदस्य देशों की सामूहिक कार्यसूची का प्रश्न बन गया है। यदि पुनर्गठन होता है तो सुरक्षा परिषद् के प्रतिनिधित्व को समतामूलक बनाए जाने की उम्मीद बढ़ जाएगी। इस मकसद की पूर्ति के लिए परिषद् के सदस्य देशों में से नए स्थायी सदस्य देशों की संख्या बढ़ानी होगी। यह संख्या बढ़ती है तो परिषद् की असमानता दूर होने के साथ इसकी कार्य-संस्कृति में लोकतांत्रिक संभावनाएं स्वत: बढ़ जाएंगी।
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