फिर उसी पुरानी घिसी-पिटी भाषाई बहस के सरोकार

भारतीय राजनीति में कुछ प्रकरण ऐसे हैं जिन्हें देख कर लगता है कि उनका समय कहीं एक जगह जा कर रुक गया है। भाषा का सवाल एक ऐसा ही प्रकरण है। इस प्रश्न पर आज भी वैसी ही बातें हो रही हैं जैसी साठ के दशक में या उससे पहले होती थीं। गृह मंत्री के तौर पर अमित शाह राजभाषा विभाग के भी प्रभारी हैं। जैसे ही उन्होंने कहा कि हिन्दी को अंग्रेज़ी का स्थान लेना चाहिए, वैसे ही उसी तरह की और उसी अंदाज़ में बहस होने लगी जैसी हमेशा होती है—मानो अतीत की बहसों को आज की तारीखों में ‘कट-पेस्ट’ कर दिया गया हो। अमित शाह ने यह बात भी स़ाफ तौर पर कही थी कि हिन्दी को अंग्रेज़ी की जगह लेना चाहिए, न कि स्थानीय और क्षेत्रीय भाषाओं की जगह। उनकी बात का सीधा मतलब था कि अंग्रेज़ी को सम्पर्क भाषा मानने के बजाय हिन्दी को सम्पर्क भाषा मानने की तऱफ जाना चाहिए, लेकिन उनकी इस बात और उसके इस स्पष्ट मतलब को फौरन एक कान से सुन कर दूसरे से निकाल दिया गया। ‘हिन्दी थोपने’ की कोशिश का आरोप हवा में उछाल दिया गया। विपक्षी पार्टियों से लेकर भाषाई प्रश्न का जानकार होने का दावा करने वाले कहने लगे कि यह संघ परिवार द्वारा ‘एक भाषा-एक राष्ट्र’ की परियोजना को लागू करने की तऱफ उठाया जाने वाला कदम है।  
मैं यहां एक दुहैरा सवाल पूछना चाहता हूँ कि क्या किसी को भारत के एक राष्ट्र होने में कोई शक है? भारत एक आधुनिक राजनीतिक इकाई है जिसकी एकता के लिए महसूस किये जाने वाले खतरे इतने बड़े नहीं हैं कि उसके लिए ़खास चिंतित हुआ जाए। तमाम अलगाववादी आन्दोलन अपनी धार खो चुके हैं। ऐसे कोई अंदेशे नहीं दिख रहे हैं कि अचानक कोई अलगाववादी आन्दोलन सिर उठा लेगा और राष्ट्रीय एकता के लिए बड़ी चुनौती पैदा हो जाएगी। दूसरा सवाल है कि क्या इस राष्ट्र बन चुके भारत की एकता को कोई एक भाषा आरोपित करने से ज़्यादा मज़ूबत किया जा सकता है? राजनीति की मामूली जानकारी रखने वाला व्यक्ति भी जानता है कि सारे भारत पर एक भाषा न तो थोपी जा सकती है, और न ही उसे कोई थोपने की किसी योजना को कोई कार्यान्वित कर रहा है। ऐसी कोई योजना मुमकिन ही नहीं है। जो राजनीतिक शक्ति ऐसा करने की कोशिश करेगी, वह भारत की एकता को ही सांसत में डाल देगी। संघ परिवार इतना नादान नहीं है कि वह ऐसा आत्मघाती कदम उठा कर अपना बना-बनाया खेल बिगाड़ लेगा। 
सभी लोगों को ये दोनों स्थितियां पता हैं। फिर यह बात क्यों कही जाती है और कौन लोग इसे कहते हैं? मेरा विचार है कि यह बात भारत में अंग्रेज़ी का वर्चस्व बनाये रखने के लिए कही जाती है। वही लोग इसे कहते हैं जिनका स्वार्थ इस स्थिति को कायम रखने में है। अंग्रेज़ी का वर्चस्व दो तरह के लोगों के लिए म़ुफीद है। इनमें पहला समुदाय तो वह है जो आज़ादी के बाद से ही ‘शासक-अभिजन’ की भूमिका में है। यह समुदाय पश्चिमीकृत अंग्रेज़ीपरस्त अभिजनों, बड़े नौकरशाहों, भूमंडलीकृत अर्थव्यवस्था से सर्वाधिक लाभ खींचने वाले मुट्ठीभर लोगों और भाषा-समस्या के तथाकथित ‘विद्वानों’ से मिल कर बना है। दूसरा समुदाय उन ़गैर-हिन्दी भाषी प्रांतों के उन लोगों का है जो अंग्रेज़ी के ज़रिये भारतीय सिविल सेवा में अपना प्रतिशत बनाये रखना चाहते हैं। इन लोगों को लगता है कि अगर सिविल सेवा के लिए अंग्रेज़ी की अनिवार्यता ़खत्म हो गई तो हिन्दी वाले आगे निकल जाएंगे। इन प्रांतों में तमिलनाडु और बंगाल के लोग प्रमुखता से शामिल हैं। यह एक ़खास तरह की राजनीति है जिसमें ऐसे लोग कभी यह मांग नहीं करते कि संघ लोकसेवा आयोग की परीक्षा उन्हें तमिल और बंगाली में देने की न केवल इजाज़त मिले, बल्कि अंग्रेज़ी का पर्चा पूरी तरह से ऐच्छिक हो—अनिवार्य नहीं। 
इन अंग्रेज़ीपरस्त लोगों की इस आलोचना का मतलब यह नहीं निकाला जाना चाहिए कि एक भाषा-एक राष्ट्र के विचार की पैरोकारी करने वालों को आईना नहीं दिखाना चाहिए। दरअसल, तीखे भाषाई विवादों और बहसों के बाद बनी भारतीय आधुनिकता की भाषाई संरचना के संवैधानिक और राजनीतिक पहलुओं पर यह युरोपीय विचार कोशिश करने के बाद भी कभी हावी नहीं हो पाया। भाषाई विविधता को विकास का विलोम नहीं माना गया। उप-निवेशवाद विरोधी संघर्ष की प्रक्रिया में जो राष्ट्र-भाषा कल्पित हुई, उसका म़कसद मुख्यत: एक अत्यंत बहुभाषी परिस्थिति के भीतर सम्पर्क-भाषा विकसित करना था। 
यह राष्ट्र-भाषा फ्रांस, संयुक्त राज्य अमरीका या ग्रेट ब्रिटेन की तरह विविध भाषाई पहचानों के ऊपर आरोपित नहीं की जानी थी। आज़ादी मिलने पर इसी संकल्पना के भीतर से संविधान के ज़रिये राज-भाषा निकालने की कोशिश की गयी। जिस तरह राष्ट्र-भाषा की बुनियाद में अन्य भाषाई संस्कृतियों का निषेध कल्पित नहीं किया गया था, उसी तरह यह राज-भाषा भी अन्य भाषाई संस्कृतियों से उपजी राज-भाषाओं का नकार नहीं थी। यूरोप के मुकाबले भारत में भाषाई आधुनिकता की दूसरी पेचीदगी यह थी कि यहाँ के उत्तर-औपनिवेशिक राज्य ने राज-भाषा की संरचना की ज़िम्मेदारी उठाई और उसके लिए भाषा-नियोजन भी चलाया, पर राष्ट्र-भाषा की रचना का उत्तरदायित्व लेने के नाम पर उसका संविधान ़़खामोश रहा। नतीजतन, भाषा एक होने के बावजूद उसके दो सेक्टर बन गये, और आज तक बने हुए हैं। इस अनूठे बंदोबस्त के कारण ही जो माना जाता है, वह है नहीं, और जो है, उसे माना नहीं जाता। हिन्दी भारतीय संघ की राज-भाषा है, लेकिन उसकी सामाजिक छवि ़़गैर-हिन्दी भाषी इलाकों में भी राष्ट्र-भाषा की ही है। दूसरी तरफ राज-भाषा भी वह केवल नाम के लिए ही है, व्यावहारिक रूप से केंद्र सरकार का राजकाज ‘एसोसिएट ऑफिशियल लैंग्वेज’ अंग्रेज़ी में किया जाता है। 
उत्तर-औपनिवेशिक भारत में कहने और मानने का यह द्वैध क्यों पैदा हुआ? 14 सितम्बर, 1949 को संविधान ने राज-भाषा प्रावधान पारित किया था। संविधान सभा के सभापति डॉ. राजेंद्र प्रसाद द्वारा उस मौके पर व्यक्त की गयी उद्भावनाओं का तात्पर्य-निरूपण अगर सभा में भाषाई प्रश्न पर हुई लम्बी और पेचीदा बहस की रोशनी में किया जाए तो ऐसा लगता है कि संविधान-निर्माता न केवल नवोदित सत्तारूढ़ अभिजन को सम्बोधित कर रहे थे, बल्कि उनकी बातों में भारतीय समाज से एक ़खामोश अपील भी निहित थी। अगर ऐसा न होता तो वे ‘राज-भाषा’ हिन्दी को ‘भारत की सामासिक संस्कृति के सब तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम’ अर्थात् एक अत्यंत बहुभाषी राष्ट्र की प्रतिनिधि भाषा और इस प्रकार पूरे देश को एक सिरे से दूसरे सिरे तक एकता में बांध देने वाले ‘ऐसे एक और सूत्र’ की रचना करने का आग्रह क्यों करते? 
दरअसल, राज-भाषा और राष्ट्र-भाषा को एक ही मानने के इसी चक्कर में हिंदी के दोहरेपन का इकहरापन और इकहरेपन का दोहरापन पकड़ में नहीं आता।  
(लेखक विकासशील समाज अध्ययन पीठ (सीएसडीएस) में भाषा कार्यक्रम के निदेशक और प्रोफेसर हैं)