जलवायु परिवर्तन बढ़ने से बढ़ेगा पलायन

मानवों का कार्य-व्यवहार जहां जलवायु में बदलाव ला रहा है, वहीं बदलती हुई जलवायु पशुओं, जानवरों के साथ मनुष्यों के व्यवहार पर भी प्रतिकूल प्रभाव डाल रही है। लैंसेट प्लेनेटरी हेल्थ की हालिया और बहुचर्चित रिपोर्ट चौंकाने के साथ चिंता में डालने वाली है। रिपोर्ट जलवायु परिवर्तन के सामाजिक व्यवहार खास तौर पर उसकी आक्रामकता पर पड़ने वाले प्रभाव के बीच रिश्ते को स्थापित करती है। मोटे तौर पर अध्ययन का निष्कर्ष है यह है कि तापमान का सीधा संबंध आपके दिमाग और उसके व्यवहार से है। ज्यादा गर्मी या अत्याधिक ठंड लोगों के स्वभाव में गुस्सा और नफरत पैदा करते हैं। जबकि आकस्मिक तौर पर जलवायु के अप्रत्याशित बदलावों वाले इस दौर में जब कहीं तेज़ गर्मी या भीषण सर्दी अब लगातार देखा जाने वाला सामान्य वैश्विक परिदृश्य बनता जा रहा है, तो यह निष्कर्ष बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है।
ब्रिटेन और अमरीका में इस वर्ष जो भीषण गर्मी पड़ी है, क्या ऐसा पहले किसी ने सोचा था? रिपोर्ट के अनुसार एक अध्ययन अमरीका के 773  शहरों में रहने वाले लोगों पर किया गया परन्तु इस बात को नकारने के लिये बहुत तर्क नहीं हैं कि यह भारत या किसी दूसरे देश पर लागू नहीं होता। अपना देश कई सालों से जलवायु परिवर्तन के अतिरेक झेल रहा है। विगत वर्ष कड़कड़ाती सर्दी का अचानक चले जाना और मार्च में ही भीषण गर्मी पड़ना। सरकार ने मौसम देख अनुमान लगाया था कि इतना गेहूं पैदा होगा कि हम बाकी दुनिया को खिला सकेंगे लेकिन अगले 15 दिनों में तापमान इस तरह बढ़ा कि सार्वजनिक खाद्यान्न वितरण में गेहूं की बजाय चावल बांटना पड़ा, निर्यात पर आनन-फानन रोक लगानी पड़ी। बंदरगाह पर खड़े गेहूं लदे ट्रकों को लौटाना पड़ा। जब धान की फसल आयी तो देश में सामान्य से बहुत अधिक बारिश होने के बावजूद कुछ इलाकों में इतनी कम बारिश हुई कि इस बार धान की बुआई का रकबा ही काफी घट गया और पैदावार में कमी कूती जाने लगी। सबब यह कि जलवायु के अतिरेकी परिवर्तन के शिकार हम भी हैं। अब जब इसका प्रभाव पर्यावरण से आगे मानवीय मानसिकता तक पहुंचने की खबर है, तब लैंसेट प्लेनेटरी रिपोर्ट के निष्कर्ष को हमें भी ध्यान से गुनना चाहिये।
यह अध्ययन छह सालों में किये चार अरब ट्वीट का वैज्ञानिक विष्लेषण है। कृत्रिम बुद्धिमत्ता और बिगडाटा जैसी तकनीक का उपयोग कर एल्गोरिदम बनाया गया और इसे कंप्यूटर प्रोग्राम के जरिए  इनको वर्गीकृत करने से पहले संयुक्त राष्ट्र द्वारा तय मापदंडों पर परखा गया। ऑनलाइन के व्यवहार को ऑफ लाइन में परखने वाले इस अध्ययन की क्रिया और कार्यविधि व्यापक और गहन है इसलिये इसे हल्के में नहीं लिया जा सकता है। खास तौर पर हमें तो इसे पर्याप्त गंभीरता से लेना चाहिये क्योंकि जलवायु के अतिरेकी बदलाव के लिये जो सबसे ज्यादा आशंकित और सुभेद्य देश हैं उनमें तकरीबन 35 प्रतिशत गरीबों की आबादी वाले हमारे देश का नंबर ऊपर से महज 13वां है। एक शताब्दी में भारत का तापमान 0.7 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है। बीते बरसों में कोरोना की महामारी ने हमारे यहां लाखों की तादाद में मानसिक रोगी पैदा किये। सरकार इससे पार पाने की व्यवस्था अभी कर ही रही है कि जलवायु परिवर्तन इसमें और वृद्धि की आशंका लेकर आया है। महामारी जनित मानसिक रोगियों में अमूमन आक्रामकता नहीं पाई गई है। यह एक स्वास्थ्यगत समस्या भर है जो समाज और देश को प्रत्यक्ष रूप से बड़ा नुकसान नहीं पहुंचायेगी परन्तु अध्ययन के अनुरूप मानवीय व्यवहार विचलन देश-समाज के लिये बेहद घातक और लोकतंत्र के लिये बहुत नुकसानदेह हो सकता है। यदि इसके प्रति समय रहते सतर्कता और गंभीरता न बरती गई तो हमारे देश में इसके नासूर बनने, पनपने के लिये कई कारक मौजूद हैं।  
अध्ययन को समझें तो लगता है, कम पढ़े लिखे, कमज़ोर आर्थिक, सामाजिक स्थिति वाले हाशिये पर पड़े लोग हों या समस्यापूर्ण रहन सहन अथवा बेरोज़गार, इस वर्ग को तापमान में अधिक विचलन ज्यादा ही असहज करता है। शारीरिक तौर पर पड़ने वाला प्रभाव उन पर मानसिक स्तर पर असर डालता है और वे उत्तेजित हो गुस्से में अनचाहे ही आक्रामक, आत्महंता हो सकते हैं। 
जिस देश में यह अध्ययन किया गया, वहां की अधिकांश आबादी एयर कंडीशनिंग और गर्मी कम करने वाले साधनों का उपयोग करने में सक्षम है पर तापमान के विचलन ने उन पर भी असर डाला जबकि अपने देश की अधिकांश आबादी इस सुविधा से वंचित है। ऐसे में यह खतरा बड़ा है। यह आक्रामकता भौतिक और सामाजिक जीवन में व्यावहारिक तौर पर बाहर नहीं हो पाती तो वे बातों और विचारों में आक्रामक तथा नफरती हो जाते हैं। यह आक्रामकता नफरती संदेशों, हेट स्पीच की शक्ल में सोशल मीडिया पर प्रकट होती है। अपने देश में इंटरनेट और सोशल मीडिया का इस्तेमाल करने वालों की संख्या और रफ्तार बढ़ती ही जा  रही है। सोशल मीडिया पर नफरती संदेशों, अश्लील और अभद्र भाषा इधर बढ़ी है। इसकी चर्चा चहुं ओर है।
जलवायु परिवर्तन पलायन बढ़ाता है और अमूमन यह समूह में होता है या फिर पलायनवालों का एक समूह स्थान विशेष पर बन जाता है। अध्ययनकर्ताओं का कहना है कि जहां समाज टूटा, विभाजित है, उनमें असमानता और विभेद है, वहां सर्दी-गर्मी के इस असर से उपजा असंतोष और नफरती व्यवहार इन समूहों में हथियारबंद विद्रोह की शक्ल भी ले सकता है। बेशक यह स्थिति तब और ज्यादा घातक हो सकती है, जब समाज में असंतोष हो, संगठनात्मक तौर पर विद्वेष को हवा देने का काम सियासी तौर पर जारी हो। फैलाई गई बातों का कोई क्रास चेक न हो। लोग उसे बिन परखे अपनी मान्यताओं के अनुरूप ग्रहण कर लेते हों। नफरती बोल केवल राजनीति में ही नहीं हैं। अनेक मौकों पर लोग अशालीनता का प्रदर्शन कर एक दूसरे को अपमानित कर रहे हैं। हेट स्पीच, ट्रोल या इस तरह की गैर ज़रूरी अक्रामकता इसके शिकारों विशेष तौर पर कमज़ोर वर्ग, युवा या किशोरों का मानसिक स्वास्थ्य बिगाड़ सकती है। जलवायु परिवर्तन से उपजी नफरत किसी समुदाय, जाति धर्म, वैचारिक संगठन के विरुद्ध प्रत्यक्ष में हेट क्राइम का कारण बन सकती है। किशोर और युवा  तथा महिलाएं इससे ज्यादा प्रभावित हो सकते हैं।           -इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर