नाज़ुक मामलों संबंधी बहस का सवाल

पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय द्वारा टी.वी. चैनलों पर होती विचार-चर्चा तथा उनमें बहुत-से टी.वी. एंकरों की एकतरफा भूमिका के संबंध में जो कड़ी टिप्पणियां की गई हैं, उनकी व्यापक स्तर पर चर्चा हो रही है। यह देखने में आया है कि अनेक बार चैनलों पर अलग-अलग पक्षों या पार्टियों के प्रतिनिधियों की होती बहस के दौरान अक्सर ऐसी टिप्पणियां की जाती हैं, जिनका किसी अन्य समुदाय या बिरादरी पर प्रभाव पड़ता है तथा उस संबंध में तीव्र प्रतिक्रिया भी होती है। ऐसी कई बहस चर्चा न रह कर ऩफरती रूझानों में बदल गईं, जिनकी हिंसक प्रतिक्रिया भी सामने आती रही है, इनके कारण व्यापक स्तर पर तनाव पैदा होता रहा है।
 कई बार तो किसी विशेष विचारधारा को लेकर या बेहद भावुक या नाज़ुक मामलों को लेकर एंकरों द्वारा इस प्रकार बहस करवाई जाती है कि वह एकतरफा होने का प्रभाव देती है एवं पहले ही बिगड़े हुये माहौल को और बिगाड़ने में भी सहायक होती है। यह रूझान लगातार बढ़ता ही जा रहा है। चाहे ज्यादातर इसे प्रैस या नागरिकों की आज़ादी के साथ जोड़ दिया जाता है परन्तु यदि ऩफरत भरे शब्दों या बिना ठोस प्रमाणों के फैलाई गईं अफवाहें माहौल को खराब करने में सहायक होती हैं तो उनकी कोई सीमा निश्चित होनी ही चाहिए तथा उनके प्रति जवाबदेही भी तय किया जाना बेहद ज़रूरी है। सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने यह टिप्पणी भी की है कि देश को एक ज़िम्मेदार लोकतंत्र बनाने की ज़रूरत है, जहां अन्य पक्षों के साथ-साथ मीडिया की भी जवाबदेही हो। सर्वोच्च न्यायालय ने इस संबंध में सरकार की भी कड़ी आलोचना की है कि वह घटित हो रहे इस घटनाक्रम में चुप्पी साधे बैठी है, जबकि उसका फज़र् टी.वी. चैनलों एवं सोशल मीडिया के अन्य प्लेटफार्मों पर होती ऩफरत फैलाने वाली चर्चा को नियमित करने का होना चाहिए। इसमें धार्मिक, सामाजिक तथा राजनीतिक बयानबाज़ी भी शामिल है, जो अक्सर निर्धारित सीमाओं को तोड़ कर नकारात्मक प्रभाव पैदा करने में सहायक होती है। अदालत ने इस बात की ओर भी संकेत दिया है कि आज टी.वी. चैनलों तथा सोशल मीडिया हेतु कोई ऐसी संस्था कायम नहीं की गई, जिसके द्वारा एक अनुशासन बनाया जा सके। सर्वोच्च न्यायालय ने तो यहां तक भी कहा है कि ऐसे घटनाक्रम संबंधी कोई कानून बनना चाहिए। विशेष तौर पर जब बात धार्मिक मर्यादाओं की हो या पहले ही पड़ी दरार को और बढ़ाने के यत्न नहीं होने चाहिएं। पिछले समय में कथित धर्म संसदों तथा कई अन्य समारोहों में ऩफरत भरे भाषण होते रहे हैं तथा जिस तरह बार-बार चैनलों पर उनको दोहराया तथा प्रचारित किया जाता रहा है, वह घटनाक्रम चिन्ताजनक भी है तथा उससे आग भड़कने की सम्भावना भी पैदा हो जाती है।
 समय-समय पर उठते इन मसलों के प्रति कोई नीतिगत दिशा-निर्देश निर्धारित करने बेहद ज़रूरी हैं। इसलिए चैनलों के प्रबन्धकों, एंकरों तथा बहस में भाग लेने वाले लोगों को भी भागीदार बनाया जाना चाहिए। परन्तु आज सोशल मीडिया का प्रसार इस सीमा तक बढ़ गया  है, इस संबंधी कोई अनुशासन बनाने के लिए शीघ्र कहीं कोई नीति या संस्था बनाना बेहद कठिन कार्य है। इस संबंध में  समाज के ज़िम्मेदार पक्षों, लोगों के चुने गये प्रतिनिधियों, मीडिया तथा ऐसी ही अन्य संस्थाओं को मिल-बैठ कर कुछ ठोस परिणाम निकालने की ज़रूरत होगी। इस संबंध में बनाये जाने वाले नियमों-कानूनों संबंधी भी हर पक्ष से विस्तृत चर्चा करके ही कुछ सार्थक कदम उठाये जाने चाहिएं, जो क्रियात्मक रूप में इस संबंधी पेश आने वाली समस्याओं का हल निकाल सकें। ऐसे गहन गम्भीर मामले पर लगातार विचार चर्चा किये जाने के बाद ही कुछ सार्थक परिणामों पर पहुंचा जा सकता है।
 

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द