ऊंची इमारतों की छतों पर टंगे सपने

बाज़ारों के बारे में खबर मिली थी, कि सरकार ने वहां वस्तुओं की कीमतें कम करने का बीड़ा उठा लिया है। फैसला हुआ है कि बैंकों से कज़र् मांगोगे तो महंगा मिलेगा। हां वहां जमा अधिक करवाओगे तो उस पर ब्याज की कमाई अधिक होगी। इस प्रकार जब आपकी जेब में पैसे कम रह जाएंगे, तो बाज़ारों में खरीदारी के लिए उत्साह कम होगा। दुकानदारों की वस्तुएं कम बिकेंगी, तब वे अपने आप इनकी सेल लगा इन वस्तुओं को सस्ता बेच देंगे। 
जी हां, यह किताबी अर्थशास्त्र का सिद्धांत है। बाज़ार में जाकर देखा तो इसका नामोनिशान भी कहीं नज़र नहीं आया। जो वस्तु कल जिस दाम पर मिलती थी, आज उससे अधिक दाम पर ही हाज़िर की जा रही थी। हमने एक सज्जन को बाज़ार में भागते हुए देखा। हमने उसकी भगदड़ की वजह पूछी, तो बोला, ‘साहिब कोट सिलाने के लिए दिया था। भाग कर दर्जी की दुकान पर जा रहा हूं, कि कहीं उसने सिलाई न बढ़ा दी हो।’
भला ऐसा भी कभी होता है। यह अर्थ विज्ञान वाले भी अजीबो गरीब लतीफे घड़ते रहते हैं। भला यूं भी कभी होता है। एक ऐसा ही लतीफा किसी ने भुखमरी के बारे में भी पेश किया था। बहुत बरस पहले फ्रांस की सड़कों पर भूखों का एक जुलूस चीखो-पुकार करता हुआ निकला। फ्रांस की रानी ने इस जुलूस की हायतौबा को देखा। उसे कुछ समझ नहीं आया। अपने सचिव से पूछने लगी कि, ‘ये सब लोग एक झुंड की सूरत में सड़क पर इतनी हायतौबा क्यों मचा रहे हैं?’
सचिव ने जवाब दिया, ‘रानी साहिबा, ये सब लोग भूखे हैं। अपने खाने के लिए रोटी मांग रहे हैं, और रोटी है नहीं।’ 
—अरे रोटी नहीं तो केक पेस्ट्री खा लें। चिल्लाने की क्या ज़रूरत है, बौड़म कहीं के! 
अब रानी साहिबा को कैसे बताएं कि बौड़म कौन है। जो अपने देश के हालात से बेखबर हो, सपनों की दुनिया में जिये, और उसी को उपहार बना अपनी रियाया को दे, उसी को पहले बौड़म कहते थे, आजकल स्वप्नदर्शी कहा जाता है। 
लेकिन सपनों की खैरात बांटने के सिवा आजकल नेताओं के पास भला और है ही क्या? अभी देश ने पचहत्तर वर्ष आज़ादी भोगने का महोत्सव मनाया है। बहुत तरक्की कर ली इन बरसों में हमने। अपनी प्रशंसा करते हुए दिल लहलहा उठता है। कभी जो देश दुनिया की महाशक्तियों की ओर सिर उठा-उठा कर देखा करता था, आज वह दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी महाशक्ति बन गया। जिस इंग्लैंड की हमने दो सौ बरस दासता झेली, आज हमने उसे तरक्की दर में पीछे छोड़ दिया। माशा अल्लाह! यह तरक्की दर बनी रहे, जल्द ही हम दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी ताकत बन जायेंगे। 
आज विकास के जिस मील पत्थर पर हम आ गये, उत्सव मनाने के बाद हम पाते हैं, कि यहां अभी देश का मूलभूत आर्थिक ढांचा तो बना ही नहीं। अब उसे ही अगले पच्चीस बरस बनाना है। और तब आएगा सन् 2047 जब यह देश सही अर्थों में विकासशील की उपाधि त्याग कर विकसित बन जाएगा। हर बशर को उचित रोज़गार, तन पर पूरे कपड़े, और सर पर अपनी छत होगी। तब हम मनाएंगे, असली अच्छे दिनों का शतकीय महोत्सव। हर बैंक खाते में पन्द्रह लाख रुपये क्या तब आएंगे? वायदा तो अमृत महोत्सव मनाने से दस बरस पहले किया गया था।  फिर अभी जब अपनी तरक्की और आज़ादी का अमृत महोत्सव आपने मना लिया, तो इसके बाद अब देश के मूलभूत आर्थिक ढांचे का संकल्प लिया जा रहा है।  परेशान जनता पूछ सकती है कि क्या अभी तक बिना कोई मूल आर्थिक ढांचा बनाये ही काम होता रहा? बुनियादी उद्योगों का विकास करने का लक्ष्य अब नये बजटों में रखा जा रहा है, तो भला इतने दिनों बिना बुनियाद ही काम होता रहा? 
बेशक आज हाकिमों के मन में रियाया की चिंता सर्वोपरि हो गई है, तभी तो जनता के लिए अगली चौथाई सदी के लिए विकास पथ बिछाया जा रहा है। शतकीय उत्सव में पूर्ण विकास का सपना बंटा है। स्वागत, इस नव जागरण का लेकिन जनाब अकरम इलाहाबादी ने क्या इन्हीं तीन चौथाई सदी के बाद संकल्पबद्ध हो रहे हाकिमों के लिए लिखा था, ‘हाकिम को बड़ी चिन्ता है, लेकिन अपना डिनर खाने के बाद।’
रिश्वत लेना और देना अपराध है, यह सूत्रपट्ट तो हमने आज़ादी के शुरू बरसों में ही देख लिये थे। और जब-जब इस लोकतंत्र में राज्य पलटा, एक पार्टी गई और दूसरी सत्तारूढ़ हुई, तो भ्रष्टाचार की ज़ीरो टॉलरैंस के नारे तो सब ने लगाए। अभी अपने राज्य में नई आई सरकार ने एक पखवाड़े में भ्रष्टाचार खत्म कर देने का दावा भी किया था। फिर भी आज भ्रष्टाचार के आरोपों से लदे नये पुराने मंत्रियों के हाथों में इस अपराध की हथकड़ियां क्यों? हर हाथ को काम और हर पेट को मेहनत की रोटी देने का वायदा यह उत्सव मनाने से बहुत पहले से किया जाता रहा। फिर भी आज रोज़गार दफ्तरों के बाहर भीड़ कम, और रियायती अनाज बांटने वाले डिपओं के बाहर भीड़ ज़्यादा क्यों? संतुलित आर्थिक विकास का नारा लगाने वाले ये हमारे नियतिनियामक कहां भटक गये कि हमारी सत्ता के एक कर्णधार को कहना पड़ा, बेशक भारत एक अमीर देश है, लेकिन इसमें गरीब लोग बसते हैं। गरीबों की यह बहुसंख्या हर समय अपने कर्णधारों के साथ तरक्की के सपने देखती है लेकिन यह तरक्की उनके घर आंगन की दहलीज़ तक आने से पहले सम्पन्न बहुमंज़िला इमारतों की फुनगियों पर ही टंगी क्यों रह जाती है?