दोआबा के बब्बर अकालियों की गाथा

ज़िला होशियारपुर के माहिलपुर क्षेत्र में पड़ते बम्बेली गांव में जन्मे विजय बम्बेली कंडी क्षेत्र के गांवों का इतिहास लिखते-लिखाते दोआबा के बब्बर अकालियों की पृष्ठभूमि एवं उपलब्धियां बताने में व्यस्त हो गये हैं। इनका गढ़ तो होशियारपुर ज़िला ही था परन्तु शहीद भगत सिंह नगर, जालन्धर तथा कपूरथला के योद्धा भी कम नहीं थे। विजय की नई पुस्तक ‘बब्बर अकाली लहर को मुड़ फरोलदियां’ (नवयुग पब्लिशर्स नई दिल्ली, पृष्ठ 224, मूल्य 400 रुपये) बब्बर योद्धाओं की मुंह बोलती गाथा है। 
बब्बर अकाली लहर 1921 से 1944 तक सक्रिय रही। कभी विभाजित रूप में और कभी लगातार। इसकी जड़ें 1857 के गदर, रौलट एक्ट के विरोध, साका जलियांवाला बाग एवं ननकाना साहिब तथा गुरुद्वारा सुधार लहर के प्रति अंग्रेज़ सरकार के घटिया व्यवहार में थीं। इस लहर के प्रमुख नेता श्रमिक किसान अंग्रेज़ सेना के पूर्व सिपाही, अमरीका तथा कनाडा में गदर लहर को समर्पित हिन्दुस्तान आ कर बसने वाले जांबाज पूर्वज थे। इन सभी का उद्देश्य अंग्रेज़ी शासन का खात्मा करके स्वराज स्थापित करना था। इस लहर से उत्तर हिन्दुस्तान के सभी हिन्दू, मुसलमान, सिख तथा ईसाई प्रभावित हुए और कुछ एक सरकारी पिट्ठुओं को छोड़ कर सभी ने जान की बाज़ी लगाई और स्वतंत्रता की नींव रखी। 
यह लहर मास्टर मोता सिंह के दिमाग की खोज थी परन्तु इसे किशन सिंह बड़िंग ने ज़ोरदार ढंग से आगे बढ़ाया। वास्तव में इसकी नींव 1921 की होशियारपुर की सिख एजुकेशन कांफ्रैंस के समय रखी गई थी जिसमें दोआबा सहित माझा, मालवा तथा वर्तमान पाकिस्तान के चुनिंदा योद्धा शामिल थे। इसमें मोता सिंह तथा किशन सिंह की समान विचारधारा वाले लोगों ने ननकाना साहिब से संबंधित अंग्रेज़ अफसरों तथा हिन्दुस्तानी महंतों को सुधारने का फैसला किया। गलत बात यह कि इनमें से बेला सिंह तथा गंडा सिंह मई 1971 को लाहौर के रेलवे स्टेशन पर ही पकड़े गये तथा इन्हें पांच वर्ष सलाखों के पीछे काटने पड़े। प्रमुख नेता गिरफ्तारी वारंट जारी होते ही फरार हो गये।  
इन्होंने अपने जत्थों का नाम ‘चक्रवर्ती’ रखा और इन्हें उभारने के लिए बब्बरों ने अगस्त 1922 में ‘बब्बर अकाली दोआबा’ नामक समाचार पत्र भी निकाला। एक वर्ष में इसके 19 अंक प्रकाशित हुए और बब्बर वालंटियरों ने गांवों में भी पहुंचाए तथा कुछ सैनिक इकाइयों में भी। इन्हें पकड़ने-पकड़वाने के लिए अंग्रेज़ सरकार ने बड़े नकद ईनामों तथा बार बस्तियों में मुरब्बे अलाट करने की बड़ी घोषणाएं भी कीं। 
पुस्तक में ‘बब्बर अकाली दोआबा’ का विस्तारपूर्वक ज़िक्र है। छापेखानों तथा डुप्लीकेट मशीनों सहित इसमें होशियारपुर, जालन्धर, नवांशहर, कपूरथला, लुधियाना, संगरूर, गुरदासपुर के सक्रिय गांवों के अतिरिक्त हिमाचल के ऊना और अब पाकिस्तान का अंग बने लाहौर, लायलपुर, गुजरांवाला तथा सियालकोट में पड़ते उन गांवों का ज़िक्र भी है, जहां के बलिदानियों ने इस लहर में भाग लिया। गढ़शंकर तथा नवांशहर के निकटवर्ती रुड़की खास तथा जस्सोवाल का विशेष तौर पर। इस लहर ने अपने अंतिम चरण में युग पलटाने वाले दल का रूप धारण कर लिया जिसमें ‘अजीत’ अ़खबार के संस्थापक साधु सिंह हमदर्द की दिलचस्पी एवं योगदान का विशेष वर्णन है। उन शहीदी मुकाबलों का भी जिनमें विदेश बैठे उधम सिंह सुनाम जैसे कई अन्य नई दिलचस्पी रखते थे। सिखों द्वारा शुरू की गई इस लहर में हिन्दू, मुस्लिम हमसायों के योगदान का विशेष वर्णन है। बब्बरों पर चले मुकद्दमों, प्रमुख घटनाओं तथा इस लहर में भाग लेने वाले सैनिक शूरबीरों का भी। 
पुस्तक बताती है कि बब्बर अकाली कैद काटते समय भी चढ़ती कला में रहते थे। एक-दूसरे के साथ काव्य तुकबंदी की खेल खेलते और ्नआनंद लेते थे। एक बार हरि सिंह नामक कैदी ने सरकारी वकील की वार पिंडी दास तथा पुलिस अधिकारी मीर फज़ल अलफास तथा अन्य की मौजूदगी में तुरंत तैयार कीं निम्नलिखित पंक्तियां भी सुनाई :  
केस पुट्टदे ओ डांगां मारदे हो, 
खाह-मुखाह पये ताड़दे लालीयां नूं।
ना असीं चोर-डाकू ना असीं संनू मारी,
ना असीं जाणदे बब्बर अकालियां नूं।
अंतिम बात यह कि कुछ बातों तथा बयानों को बार-बार दोहराने के बावजूद यह रचना इतनी जानकारी भरपूर है कि इतिहास के पाठकों तथा रचयिताओं के लिए विशेष महत्व रखती है। 
गुरुमेल सिंह सिद्धू का विछोड़ा
गांव पासला में जन्मे, कृषि विश्वविद्यालय लुधियाना के विद्यार्थी एवं कैलिफोर्निया स्टेट यूनिवर्सिटी फ्रैजनो के जैनेटिक्स एवं बायोटैक्नालोजी विभाग के प्रमुख गुरुमेल सिंह सिद्धू भी अलविदा कह गये हैं। उन्होंने आधा दर्जन काव्य संग्रह तथा दो-तीन आलोचना का पुस्तकें लिखने के अतिरिक्त एड्स की बीमारी के संबंध में एक खोज भरपूर पुस्तक भी लिखी थी। उन्होंने कैलिफोर्निया में पंजाबी साहित्य एवं संस्कृति का डंका ही नहीं बजाया, अपितु साइंस एवं टैक्नालोजी संबंधी अनेक पर्चे भी लिखे। वह अपनी किस्म की प्रसिद्ध शख्सियत थी।
वह कनाडा निवासी पंजाबी कवि रविन्द्र रवि के साथी व सम्बधी भी थे और मेरे तथा दलजीत सरा जैसे पीछे रह गए साहित्य रसिया के मित्र भी। हम सभी की ओर से उनके बाल परिवार को परमात्मा की रज़ा मानने की अरदास! 
अंतिका
—गुरुमेल सिद्धू—
असां तां वतन दे लई धड़ां उत्तों सिर कटाये सन,
उन्हां ’ते किसे कुल्ला, किसे टोपी, किसे पगड़ी सजा दित्ती।
अपने हितां लई सिरां उत्ते टंग के धर्म की कलगी,
सिर-लत्थां दी मुकद्दस वफाई वी बेवफा बना दित्ती।