सिर्फ नाम भर रह जाने के कगार पर खड़ी है शिव सेना   

वर्तमान में शिव सेना बर्बादी के कगार पर खड़ी है, इसमें किसी को कोई संदेह नहीं होना चाहिए। इस परिप्रेक्ष्य में इस सत्य पर भी किसी को कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि अमित शाह मोदी और भाजपा के अघोषित चाणक्य तो हैं ही, एक अद्भुत राजनीतिक रणनीतिकार भी हैं। कमाल की राजनीतिक शतरंज खेलते हैं अमित शाह। गलती की कोई गुंजाइश छोड़ते ही नहीं। ऐसा नहीं कि उनसे कोई गलती होती ही नहीं। एकाध दांव तो राजनीति की शतरंज में किसी का भी उल्टा पड़ ही जाता है। 
महाराष्ट्र के परिप्रेक्ष्य में विधानसभा चुनाव के तुरंत बाद जल्दबाजी में लिए गये उनके निर्णय को जिसमें भाजपा को मुंह की खानी पड़ी थी, अपवाद के रूप में लें जिसमें यदि अजीत पंवार की अप्रत्याशित पलटी न होती तो शायद स्थिति दूसरी ही होती मगर उसके बाद से बड़े धैर्य के साथ महाराष्ट्र में चली गयी उनकी चालों का जवाब नहीं है। किस तरह बड़ी खूबसूरती से उन्होंने पहले राष्ट्रवादी कांग्रेस, फिर कांग्रेस को धीरे धीरे किनारे कर शिवसेना पर से उनका प्रभाव समाप्त कर शिवसेना के मंत्रियों और विधायकों में दरार डाल कर उसमें विभाजन की पक्की लकीर खींची। इतनी पक्की कि उसे न तो शरद पवार की हवा हवाई राजनीतिक तिकड़म ही मिटा पायी और न शिवसेना का हवा हवाई अनुशासन ही। 
इसमें कोई शक नहीं कि अमित शाह की लिखी स्क्रि प्ट पर महाराष्ट्र की राजनीति से सम्बन्धित हरेक पात्र वैसा ही अभिनय इच्छा से या अनिच्छा से करता जा रहा है जैसा उनके द्वारा नियत किया गया था। जब उद्धव ठाकरे के त्यागपत्र के बाद अचानक एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बनाने की घोषणा की गयी तो फड़नवीस सहित देश के राजनीति में रुचि रखने वाले हर एक नागरिक को एक दुखद आश्चर्य हुआ था कि फड़नवीस के साथ अन्याय हुआ है शायद यह सोचे बिना कि इसके दूरगामी परिणाम क्या होंगे।
इसमें कोई शक नहीं कि अगर फड़नवीस मुख्यमंत्री होते तो महाराष्ट्र में स्थिति बहुत तनावपूर्ण हो जाती। उद्धव और उनकी शिवसेना के विरुद्ध लिया गया हरेक कदम महाराष्ट्र की बिखरी शिवसेना के लिए सहानुभूति बटोरता जिस के चलते उद्धव और उनकी शिवसेना सशक्त होती और शिंदे गुट सत्ता में रहते हुए भी कमज़ोर होता चला जाता। इसके विपरीत शिंदे के मुख्य मंत्री बनने के चलते सत्ता सुख के लिए शिंदे गुट न तो टूटा और न ही कमज़ोर हुआ अपितु स्वयं को असली शिवसेना सिद्ध करने की लड़ाई दो गुटों की लड़ाई बन कर रह गयी और उद्धव के कमज़ोर नेतृत्व के चलते और संजय राउत को योजनाबद्ध तरीके से जेल भेज देने के कारण कोई और मुखर वक्ता रूपी, बिखरी सेना को एकसूत्र में बाँधने की योग्यता रखने वाला सेनापति न रह जाने के कारण उद्धव की पकड़ शिवसेना पर कमज़ोर होती चली गयी। और मुख्यमंत्री होने के कारण शिंदे अपने आदमियों को उपकृत और जनता के सामने लोकलुभावन और हिंदुत्व परिपूरित घोषणाएं करते रहे। इसका परिणाम यह हुआ कि संशय में फंसा साधारण शिवसैनिक ऊहापोह की स्थिति से उबर कर शिंदे को सही मानने लगा और खुलकर सामने आ गया जैसा कि दशहरा रैली में शिंदे पक्ष की रैली में जुटी अधिक भीड़ ने सिद्ध कर भी दिया। 
अमित शाह जानते हैं कि सरकारी मशीनरी से बिना दबाव डाले भी मनचाहा कराया जा सकता है। अगले कदम के रूप में उन्होंने शिवसेना के शिंदे गुट से स्वयं को असली बताते हुए शिवसेना के चुनाव चिन्ह पर दावा ठुकवा दिया। उद्धव शिवसेना ने इसका विरोध किया। फलस्वरूप मामला विवादित हो गया और परम्पराओं के साथ नियमों की बाध्यता के कारण चुनाव आयोग को शिवसेना का चुनाव चिन्ह धनुष बाण फ्रीज करना पड़ा और उद्धव गुट के हाथ से चुनाव चिन्ह के रूप में परम्परागत चुनाव चिन्ह भी उद्धव के हाथ से निकल गया। अब दोनों गुट नये चुनाव चिन्ह पर नये नाम से चुनाव लड़ेंगे। इससे शिंदे को कम पर उद्धव गुट को अधिक नुकसान सम्भव हो सकता है क्योंकि पारम्परिक लगाव वाला चिन्ह इस बार चुनाव में नहीं होगा। इस प्रकार एक नये सिरे से नये दल के रूप में दोनों गुट चुनाव लड़ेंगे।  कुल मिला कर महाराष्ट्र की स्थिति यह हो चुकी है कि भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते शरद पवार की राष्ट्रीय कांग्रेस और सोनिया कांग्रेस दोनों विवादित होकर अपनी साख काफी हद तक खो चुकी हैं इसलिए इनकी ओर से अधिक संघर्ष की सम्भावना नहीं है अपितु मुख्य संघर्ष अब उद्धव के गुट और भाजपा के साथ मिल कर लड़ने वाले शिंदे गुट की शिव सेना के धड़ों में होगा। 
उद्धव के सामने समस्या यह है कि अगर वह शरद और सोनिया की कांग्रेसों के साथ मिल कर लड़ते हैं तो ये दोनों घाघ पार्टियाँ जो बाला साहेब और शिवसेना से खुंदक खाती रही हैं और हर समय उनको ठिकाने लगा कर अपना रास्ता साफ करने की फिराक में रहती रही हैं, इस मौके को भी हाथ से नहीं जाने देंगी और उद्धव को कम से कम सीटें देने का प्रयास करेंगी और अगर देंगी भी तो हारती हुयी सीटें देंगी। कुल मिला कर लब्बोलुआब यह है कि घाटा उद्धव को ही होगा। महा अघाड़ी के साथ लड़ने में सीटें कम आएंगी और अकेले चुनाव लड़ने में महाबली भाजपा और शिंदे के गठजोड़ के सामने वह वैसे ही नहीं टिक पाएंगे। परिणामस्वरूप उन्हें कम सीटें मिल पाएंगी। 
‘इधर कुआं, उधर खाई’ की स्थिति से उद्धव जिस राजनीतिक कौशल से निकल सकते हैं, फिलहाल वह तो उनमें, उनके बेटे या उनके किसी साथी में नहीं दिख रहा है। वैसे राजनीति में जनता की मन:स्थिति का सबसे बड़ा रोल होता है। निर्वाचन के समय वह ऊंट को किस करवट बैठाती है, यह सबसे अधिक मायने रखता है मगर यह भी ध्यान रखना पड़ेगा कि जनता की केमिस्ट्री जितना मोदी समझते हैं, उतना कोई नहीं समझता। इलेक्शन मैनेजमेंट में जितना अमित शाह माहिर हैं, उतना कोई नहीं है। फिलहाल की परिस्थितियों में तो उद्धव के सितारे गर्दिश में ही नजर आ रहे हैं। शिवसेना हर स्थिति में बर्बादी के कगार पर खड़ी है। इस स्थिति से उसे कैसे निजात मिलती है, मिलती भी है या नहीं, यह तो भगवान ही जानता है (अदिति)