महिला सुरक्षा के दो अचूक उपाय—कानून और संस्कार 

मीडिया के विभिन्न माध्यमों में जब महिलाओं के खिलाफ हो रही वारदातों की सुर्खियां बनती हैं तो महिला होने के नाते एक ही सवाल मन में आता है कि कब तक इन पर लगाम लगेगी? हद तो तब हो जाती है जब घर की बच्ची बाप या भाई द्वारा ही अपनी हवस का शिकार बना दी जाती है। उस परिवार की मां स्वयं को ही उस इस दुनिया में लाने के लिए कोसती रहती है। दूसरी बिडम्बना यह है कि परिवार अपनी बेटी को आत्मनिर्भर बनाने के लिए घर से दूर नौकरी करने की अनुमति देता हो, तो न जाने कितनी अंकिताओं की मजबूरी का फायदा उठाकर उन्हें मार दिया जाता है या मरने के लिए छोड़ दिया जाता है। महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों और अपराध के कितने उदाहरण दूँ? कहां से शुरू करूं और कहां खत्म करूं? यह दुविधा खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही। बस मन में एक ही सवाल घूमता रहता है कि कैसे इन अपराधों को रोका जाए? आखिर क्यों एक महिला स्वतंत्र देश में आज़ादी के साथ घूम नहीं सकती?
हम में से अधिकतर लोग यही सोचते हैं कि जब उनकी बेटी घर से बाहर निकलती है तो वो सबसे ज्यादा असुरक्षित होती है, लेकिन सरकारी व गैर-सरकारी संस्थाओं द्वारा किया गया सर्वे बताता है कि महिलाओं के साथ होने वाली शारीरिक हिंसा के 70 प्रतिशत मामले घर के अंदर ही होते हैं। वहीं दूसरी तरफ  दुष्कर्म के 90 प्रतिशत मामलों में आरोपी उनके परिवार का कोई सदस्य, रिश्तेदार या दूर का ही कोई जानने वाला होता है। हमारे देश में एक अन्य अपराध कन्या भ्रूण हत्या का है जिसके अंतर्गत हर साल देश में 5 लाख लड़कियां कोख में ही मार दी जाती हैं। इन बच्चियों को मारने का निर्णय परिवार के सदस्यों द्वारा मिलकर घर में ही लिया जाता है। इसलिए यह सोचना कि महिलाओं के खिलाफ  अत्याचार घर के बाहर होते हैं, और कि घर की बेटियां घर के बाहर निकल कर ही असुरक्षित होदी हैं, तो यह सोचना बिल्कुल ही अनुचित है। 
इस परिप्रेक्ष्य में समस्या के मूल तक जाया जाए तो परिवारों में संस्कारों की कमी को ही ज़िम्मेदार कहा जा सकता है क्योंकि लड़की के जन्म से ही उसे परिवार का दूसरा सदस्य समझ कर दोहरा रवैया रखा जाता है। बेटे को कुछ भी करने की पूर्ण स्वतंत्रता दी जाती है, लेकिन यह बेलगाम स्वतंत्रता कब अपराध बन जाए, पता भी नहीं चलता। इस पितृसत्तात्मक समाज में महिला को कमोबेश जिसे कमज़ोर ही समझा जाता है जबकि पुरुष वर्ग को बचपन से ही माचो मैन वाला दृष्टिकोण सिखाया जाता है जिसके कारण पुरुष द्वारा किसी महिला या युवती के प्रति हिंसा करने में कोई देरी नहीं लगती क्योंकि उन्हें लगता है कि कमज़ोर वर्ग हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता। यही सोच महिलाओं के प्रति बढ़ती हिंसा का सबसे बड़ा मूल कारण है। 
सबसे पहले यह समझना होगा कि अगर ईश्वर ने महिलाओं की शारीरिक संरचना को ऐसा बनाया है तो उसका कारण प्रजनन क्षमता को पूर्ण करना है, न कि यह सुनिश्चित करना कि कौन घर के बाहर का काम करेगा और कौन अंदर का काम करेगा? इसलिए समाज को चाहिए कि बचपन से ही घर-परिवार अच्छे संस्कारों से महिलाओं के प्रति समानता और आदर की भावना लाना सिखाएं। अगर संकुचित विचारों, मूल्यों और धर्म की आड़ में महिला को कमज़ोर किया गया तो यह असमानता की खाई और चौड़ी होती जाएगी और के इसे उनके प्रति अत्याचार को समाज की अप्रत्यक्ष सहमति माना जाएगा। हमारे देश की 48 प्रतिशत आबादी महिलाओं की है। संविधान के अनुसार पुरुष व महिलाएं समान हैं, लेकिन सामाजिक तौर पर दोनों में असमानता की दीवार खड़ी कर दी गई है । दुर्भाग्य से इस सोच को बढ़ावा देने वालों की संख्या में पुरुष व महिला दोनों शामिल हैं। विशेषकर कुछ वर्ग विशेष की महिलाओं को समझना चाहिए कि उनकी इस सोच का खमियाज़ा सभी महिलाओं को भुगतना पड़ता है । 
इस समस्या का एक अन्य पहलू यह है कि महिला के प्रति बढ़ती हिंसा को रोकने के लिए सरकार द्वारा कड़ कानून बनाए जाएं। लेकिन ऐसे मंत्री या विधायक क्या कानून बनाएंगे जो कहीं न कहीं किसी बेटी के विरुद्ध दुष्कर्म, हत्या या दहेज और मार-पीट जैसे संगीन अपराधों में प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े हुए हैं। इसलिए जनता को भी चाहिए कि इस मुद्दे पर एकमत हो नीति निर्माताओं से सवाल पूछें। साफ  छवि वाले उम्मीदवारों और उद्देश्यपरक राजनीति करने वालों को वोट दें। तभी हम आशा कर सकते हैं कि सरकारें महिला सुरक्षा के प्रति गंभीरता से सोचेंगी और उनके प्रति हो रहे जघन्य अपराध के लिए कागज़ों पर बने कानूनों के दायरे से बाहर निकलकर, कठोर सज़ा का प्रावधान करेंगी क्योंकि यह मुद्दा सिर्फ सुरक्षा का नहीं बल्कि दुनिया की आधी आबादी के मानवाधिकारों का भी है। इस मुद्दे पर जीत परिवार के संस्कारों और कठोर कानूनों से ही की जा सकती है ।