रहनुमाओं के सहारे जीना


ज़िन्दगी बितानी इतनी कठिन नहीं, जितनी इसके लिये किसी रहनुमा की तलाश कर लेना। पिछले कुछ बरसों से रहनुमाई अपने आप में एक सार्थक मार्ग दिखाने वाला महामानव नहीं, बस एक नये धंधे की ईजाद कर देने वाला काम बन सा गया है।
लगता है, अब तो गरीब गुरबा इन रहनुमाओं के भरोसे ही गदगद हो सकते हैं। ये रहनुमा आपको अपने गली चौराहे से निकल कर ऊंचे दरबारों के हर मील पत्थर पर मिल जाते हैं। लगता है कि हर कदम पर ये रहनुमा न हों, तो शायद हमारी ये ज़िन्दगियां चार कदम भी चल न पायें।
यह अलग बात है कि अब समय बदलने के साथ-साथ न केवल रहनुमाई की परिभाषा और अर्थ बदल गये हैं, बल्कि उसके चेहरे, उसके नैन नक्श भी बदल गये हैं। 
कभी बालपन से लेकर यौवन तक पहला रहनुमा हमें अच्छी सीख देने वाला आदर्श अध्यापक होता था, जो जीवन जीने के आदर्श सिद्धांतों की घुट्टी पिला हमें पुस्तक जगत का शैदाई बना देता था। जिन पाठशालाओं और विद्यालयों में हमारे ये शिक्षक रहते थे, वे शिक्षा मन्दिर कहलाते थे, उत्तम मानव निर्माण की पाठशालायें। लेकिन आज पाठशालाओं के परिसर अजनबी हो गये हैं। इसके बदले उभर आये हैं, नये आश्रय स्थल जिन्हें आइलेट्स परिसर कहा जाता है। नये आराध्य हो गये हैं, पारपत्र और वीज़ा, और नये रहनुमा जो नौजवानों को अपेक्षित बैण्ड दिलवाये बिना सात समुद्र पार करवा दें। सात समुद्र पर तो एक चालतू मुहावरा है। वैसे आजकल तो लोग थाईलैंड जाते-जाते म्यांमार पहुंच जाते हैं। बदली हुई खुशनुमा ज़िन्दगी की जगह इन नव-धनकुबेरों की गुलामी गले पड़ जाती है। वे रहनुमा पर्दा-ए-स्क्रीन से गायब हो गये, जो ज़िन्दगी को एक नये रंग से रंग देने का वायदा करके उनकी उज़डी हुई गलियों में अवतरित हो जाते थे। 
अब तो कोई गुनगुना भी नहीं पाता कि ‘जाते थे जापान पहुंच गये चीन समझ गये न।’ अब कोई इस राह से भटके  मन्नू से पूछ भी नहीं पाता कि मन्नू, तेरा हुआ अब मेरा क्या होगा? न उसका कुछ बन सका, न हमारा बनेगा। बस रहबर उनकी जमाजत्था लेकर चम्पत हो गया। 
इन्हें रहनुमा कह लो या रहबर। इन्होंने तो हमारे साथ अपने मिलन केन्द्र भी बदल दिये। अब ये आपको उन सुविधा केन्द्रों के बाहर मिलते हैं, जहां नौकरशाही को धत्ता बता, लालफीताशाही को अलविदा कह आपका काम चुटकियों में करवाने की चुटकी तो अभी भी बजती है, लेकिन इसे बजा सम्पर्क जन आपको काम की फीस बता रहे होते हैं। मध्यजन जिन्हें कभी दलाल कहा जाता था, अब नौकरशाहों की रीढ़ की हड्डी हैं। खुदा न करे जब आपको कभी यह जताने का दावा करने वाले दफ्तरों से काम पड़े। आपकी नय्या के खवैया तो अब यह आपके साथ आंख दबा कर बात करते हुए मध्यस्थ बने हैं। लालफीताशाहों को दान दक्षिणा के बाद, और अपनी फटी जेब को सिलते हुए, उसके भारीपन से आश्वस्त होकर ये जन आपका काम चुटकियों में करवा देंगे। भला बताइये ये रहनुमा इन दफ्तरों का चक्रव्यूह तोड़ने के सही देव पुरुष हैं या नहीं? इनका वर्चस्व स्वीकार कर लोगे, तभी इन नये युग के मन्दिरों की दुंदुभि तुम्हारे कानों में पड़ेगी। खैर तुमने इस नये युग का यह पुराना सच स्वीकार कर लिया, जैसे तुम्हारे बाप-दादा अपने-अपने वक्त में स्वीकार करके चलते थे। 
यकीन कीजिये यह सच पुराना है। केवल आधुनिकता का नया ओवरकोट पहन कर चला आया है। इसे स्वीकार करके बदलाव महसूस करने के सिवा अब कोई और चारा नहीं। 
रहबरों ने बताया है कि सदा स्वस्थ रहना है तो ऊंचे दरबारों के द्वारा बिखेरे गये स्वप्न जालों को स्वीकार करना सीखो, उन्हें कभी किन्तु-परन्तु के घेरे में न लाओ। इस संदर्भ में कुछ स्वर्णिम सिद्धांत पेशे खिदमत हैं। 
भूख लगी है, तो गाना गाओ। भला यह भी कोई समाधान है। जी हां, भूख लगी है तो पेट भरने के लिए अपने खाली हाथों के लिए काम नहीं तलाशिये, किसी श्रम संदेश का कुदाल न उठाइए, बल्कि धनकुबेरों की दानवीरता के धन्यवाद गीतों का स्मरण कीजिये। अरे इन नेताओं ने तो अब तुम्हारे घर तक भी रियायती अनाज पहुंचाने का ऐलान कर दिया। सांझी रसोई के लंगर की पांत में जगह सुरक्षित करवा दी। अब भला श्रमिक आन्दोलन, आवेग, आक्रोश जैसे शब्दों को समेटने की ज़रूरत ही क्या है। बस उनके उपकार से कृत्यकृत्य होना और गद्गद् होना सीख लो। इससे तेरे मन में सद्विचारों का उदय होगा, और जो बरसों से अपने नाती-पोतों के साथ तख्त पर बैठे हैं, उनके तख्त उलटने का विचार भी तेरे मन में पैदा नहीं होगा। बस उपकृत होने के बाद अपने हाथ जोड़ और अधिक रियायत मांगना सीख लो। आन्दोलन करना हुआ तो इस बात का कर लेना, कि जिन रेवड़ियों को देने का वायदा किया था, वे मिली नहीं। हमारे खाते में आपके घोषित पैसे अभी तक आये क्यों नहीं? 
आज वक्त सफलता की मंज़िलों को तय करने के बाद उसके सुफल भोगने का नहीं, उनकी उपलब्धि आंकड़े पढ़ कर हर्षातिरेक से झूमने का है। यहां नित्य नयी क्रांतियों की घोषणा होती है। उस शिक्षा क्रांति की कि जहां विद्यालय परिसर खड़े हो गये, लेकिन उनमें पढ़ाने वाले या तो गायब हैं, या अपनी कच्ची आसामियों से आक्रान्त हैं। तुम्हारी उखड़ी-बिगड़ी सेहत का कायाकल्प इन्होंने कर दिया, मान लो न। अब मुहल्ला-मुहल्ला क्लीनिक खुलेंगे, सार्वजनिक अस्पतालों में औषधि की कमी नहीं होगी, आयुष्मान योजना तुम्हारे लिये निजी अस्पतालों का विशिष्ट उपचार तुम्हें प्रदान करेगी। इन आंकड़ों को पढ़ लेना। बेहतर सफलता और शिक्षा को केवल जी लेना कितना अच्छा लगता है। जो मिला नहीं, उसका सपना भी पुन: देख सकना कितना बल दे जाता है, ऐ मेरे रहनुमाओ!