आसान नहीं महिलाओं का आंदोलनधर्मी होना

 

गांधी जब चम्पारण में स्वतंत्रता आंदोलन की चिंगारी लेकर पहुंचे तो यह चिंता बराबर बनी हुई थी कि महिलाओं को विकास के लिए आगे कैसे लायें? मुश्किल मार्ग था महिलाओं के बीच जाना और उनसे संवाद जारी कर पाना। बताया जाता है कि उन्होंने बाहर से सबसे पहले कस्तूरबा को बुलाया। फिर विज्ञापन देकर स्वयं सेवक बुलाये क्योंकि तब बिहार में कांग्रेस या किसी संस्था के पास एक भी पूर्णकालिक कार्यकर्ता नहीं था। महिला कार्यकर्ता की बात तो सोच पाना भी कठिन रहा होगा। काम शुरू करने के लिए जिनकी मदद ली जा सकती थी, वे कुछ नाम यही थे- अवंतिकाबाई गोखले, आनंदी बहन, उनके सहयोगी नरहरि पारिख की पत्नी मणि बहन, महादेव भाई की बहन दुर्गा बहन जिनकी नई-नई शादी हुई थी। काम शुरू हुआ तो फिर बिहार के सहयोगी वकीलों ने भी अपनी बहनों, पत्नियों को इस कार्य के लिए प्रेरित कर आगे बढ़ाया। कस्तूरबा का योगदान काफी रहा। बाज़ाब्ता गांव में रहकर उन्होंने भोजपुरी सीख ली। निहले उनके विरूद्ध दुष्प्रचार कर रहे थे, वह भी झेला। बड़े-बड़े हांडों में भात पकाती थीं, सबको खिलाती थीं। अवंतिकाभाई की बहादुरी की कहानियां आज तक प्रचलित हैं। माहौल बना तो स्थानीय लड़कियों ने भी ज़िम्मेदारी संभाल ली। यह प्रक्रिया 1917-18 में चलती रही। 1922 में कांग्रेस का अधिवेशन था। 1890 के आस-पास कांग्रेस के अधिवेशन में गिणती की महिलाएं शिरकत करती थीं। वे भी ऊंचे घरों के परिवारों से ही। फिर धीरे-धीरे संख्या बढ़ी परन्तु तब भी उनके बैठने की व्यवस्था अलग की जाती थी। यहां तक कि उनके तथा पुरुष डैलीगेट्स के बीच एक पर्दा रहता था। यह पर्दा मंच की तरफ खुला रहता था। मतलब यह था कि वे मंच की तरफ देख सुन सकती हैं लेकिन इधर-उधर नहीं। गया में अजीब किस्सा घटित हुआ। अधिवेशन के पहले दिन पर्दा बार-बार इधर-उधर झुलता रहा। दूसरे दिन महिलाएं ही आगे आईं और पर्दा खींचकर फेंक दिया जोकि घोषणा थी कि उन्हें इस पर्दे की कोई ज़रूरत नहीं। महिला प्रतिनिधियों की संख्या भी अधिक थी। पांच साल तो लगे लेकिन बदलाव बड़ा और प्रगतिशील था। यह बिहार ही था जहां यह सब घटित हुआ। इतिहास के पन्ने उलटायें तो इन्हीं पांच वर्षों में चम्पारण सत्याग्रह, खेड़ा आंदोलन तो हुए ही बिहार के साथ पूरा देश असहयोग आंदोलन का हिस्सा बना, जिसमें चरखा चलाना, विदेशी कपड़ों की होली जलाना, शराब की दुकानों पर पिकेंटिग विशेष कार्यक्रम थे। अब अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि पचास महिलाओं का जत्था एक-एक कार्यक्रम के लिए संगठित होता होगा। उनमें अधिकांश महिलाएं वे होंगी जो पति का या ससुर का नाम लेना गुनाह समझती होंगी, वे शहर तक शहर से घर तक अकेली आने जाने लगी थीं।
गांधी जी ने इस सबके दस साल बाद नमक सत्याग्रह की निर्णय लिया होगा। उस समय तक महिलाओं का आंदोलनधर्मी होना, जेल जाने की सज़ा स्वीकार करना कितनी रूकावटों के बाद ही तय हुआ होगा। जैसे गर्भवती महिलाओं, अस्वस्थ अथवा उम्र दराज महिलाओं के लिए मना था। तब भी उल्लेखनीय है कि बीस हज़ार से अधिक महिलाओं ने गिरफ्तारी दी थी। शायद ही किसी आंदोलन में एक साथ इतनी अधिक महिलाएं जेल गई हों। जिस सज़ा को सिविल नाफरमानी मान लिया गया हो, उस जेल के दबाव और कठोरता का अनुमान ही लगाया जा सकता है। अरविंद मोहन ने ‘हजार बेटियों वाले बापू’ लेख में यह भी बताया कि सख्ती तो इससे बीस साल पहले दक्षिण अफ्रीका में शादी का पंजीकरण वाले कानून पर गांधी द्वारा गिरफ्तारी देने पर राजी करवाने वाली चारों महिलाओं के साथ भी हुई थी। लेकिन अगली बार जब गिरफ्तारी देने की बारी आई तो 143 महिलाएं सामने निकल आईं। पहली बार कस्तूरबा संतोषबेन, छगन लाल की पत्नी और गांधी की बहन काशीबेन छगनलाल की पत्नी और जयकुंवर (डा. प्राणजीवन मेहता की बेटी) ने गिरफ्तारी दी थी और गांधी द्वारा संतोषबेन और काशीबेन को पहले राजी करने की खबर से वे नाराज़ भी हुई थीं और जेल की सख्ती में उनका शरीर आधा रह गया था और उनका बच पाना कठिन हो गया था। उन्होंने गांधी की जादूगरी को अद्भुत माना है। आप बयालीस का आंदोलन देखें- अमणा असफ अली, कमला देवी, उषा मेहता, सुचेता कृपलानी नेतृत्व और संचालक की भूमिका में आ चुकी थीं। गांधी ने साम्प्रदायिकता के सवाल पर काफी मेहनत की थी। जान जोखिम में नहीं डाली जान दे भी दी। उन्होंने छुआछुत के सवाल पर भी काफी मेहनत की थी। किसी के आगे झोली नहीं फैलाई, कैसी-कैसी संस्थाएं बनाईं, कैसे-कैसे लोग पैदा किये, लेकिन वह बुराई भी पूरी तरह से नहीं मिटी। कानून से मिट गई, शहरी व्यवहार में काफी दूर तक मिटी, गांवों में और देश के हर इलाके में से उस हिसाब से कम मिटी। खादी का काम शून्य से शुरू होकर काफी बढ़ा, बुनियादी तालीम का काम भी बहुत प्रचारित हुआ।
गांधी ने जो महिलाओं को घरों की चारदीवारी से बाहर निकाल कर आंदोलनधर्मी बनाया, वह उनका बड़ा काम है जिस तरफ कम लोगों का ध्यान गया है। अपने बाद सरोजिनी नायडू को अध्यक्ष बनवाया। तेल्ली सेनगुप्ता को सामने लाये। महिलाओं में आज़ादी की चेतना जगा दी। यह आसान नहीं था।