संसद का ठहराव


विगत सोमवार से शुरू हुए संसद के बजट अधिवेशन में जो कुछ घटित हुआ है, वह बेहद निराशाजनक है। जिस तरह लगातार 5 दिन राज्यसभा तथा लोकसभा में सांसदों का आपस में टकराव बढ़ा, उससे किसी भी सदन की कार्रवाई नहीं चल सकी। इस अधिवेशन में राज्यसभा में दो दर्जन से अधिक बिल पारित किए जाने थे। बेहद महत्त्वपूर्ण वित्तीय बिल के अतिरिक्त नौ ऐसे बिल थे जो बड़ा ध्यान केन्द्रित करते थे, परन्तु शोर-शराबे में यह सब कुछ गुम होकर रह गया। भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार का लोकसभा में भारी बहुमत है। राज्यसभा में भी उसका प्रभाव बढ़ चुका है, जिस कारण वह विपक्षी दलों को अपना दम दिखाना चाहती है। दूसरी तरफ कांग्रेस सहित दर्जन भर विपक्षी पार्टियां भी उसके मुकाबले में एक पक्ष बन कर खड़ी दिखाई दे रही हैं।
जब से अडानी समूह के संबंध में अमरीकी जांच संस्था ‘हिन्डनबर्ग’ की रिपोर्ट प्रकाशित हुई है, उस समय से विपक्षी दल ऊंचे स्वर में अडानी के विरुद्ध उठ खड़े हुए हैं। इसका एक कारण गौतम अडानी की प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ मित्रता को भी माना जा रहा है। अडानी की लगभग सभी कम्पनियां शेयरों के मामले में बैंकों तथा अन्य संस्थाओं से बड़े ऋण लेने के कारण विवादों के दायरे में आ गई हैं। इस विवाद के कारण शेयर बाज़ार में अडानी समूह के शेयर काफी गिर चुके हैं। उनके शेयरों की कीमत कम हो जाने के कारण उन्हें अब तक अरबों डॉलरों का नुकसान भी हो चुका है। इस विवाद को बढ़ता हुये देखकर सर्वोच्च न्यायालय ने इस में हस्तक्षेप करके सर्वोच्च न्यायालय के एक सेवानिवृत न्यायाधीश ए.एम. सप्रे के नेतृत्व में आर्थिक विशेषज्ञों की एक समिति इस समूचे घटनाक्रम की जांच के लिए बना दी थी जिसकी रिपोर्ट आना अभी शेष है, परन्तु विपक्षी दल इस पूरे मामले की जांच हेतु संसद की एक समिति बनाने की ज़िद पर अड़े हुए हैं। 
दूसरी तरफ भाजपा ने इंग्लैंड में राहुल गांधी के बयानों को लेकर उनसे संसद में माफी मांगे जाने की मांग की है, जिससे वह अब तक पीछे नहीं हटी। समूचा परिदृश्य यह बन गया है कि सरकार चला रही पार्टी ही राहुल की म़ाफी के मामले को लेकर संसद की कार्रवाई में रुकावट पैदा कर रही है। बनी हुई ऐसी स्थिति में हम जहां विपक्षी दलों से यह आशा करते हैं कि वे अडानी के मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बनाई गई समिति के फैसले का इंतज़ार करें, वहीं हम भाजपा से भी अधिक ज़िम्मेदारी की आशा करते हैं क्योंकि संसद को चलाने के लिए उसकी ज़िम्मेदारी अधिक है। दोनों पक्षों को ही परिपक्वता दिखाते हुए इस ठहराव को तोड़ने का यत्न करना चाहिए ताकि संसद के काम को सही ढंग के साथ चलाया जा सके जो समय की मांग भी है तथा लोकतांत्रिक प्रक्रिया का तकाज़ा भी है।


—बरजिन्दर सिंह हमदर्द