क्यों संघर्ष के रास्ते पर हैं किसान ?

 

चारों ओर किसानों में अशांति देखी जा रही है। विगत में तो किसानों द्वारा धरने व रोष रैलियां लगातार की जाती रही हैं। किसानों की आबादी को देखते हुए तथा व्यवसाय के महत्व के दृष्टिगत कोई लोकतांत्रिक सरकार कृषि को दृष्टिविगत नहीं कर सकती। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा पांच एकड़ तक के किसानों को 6000 रुपये वार्षिक सहायता उनके खातों में डालना कृषि के महत्व को सत्यापित करता है। कृषि संकट काफी समय से चल रहा है। पूर्व के वर्षों में जो योजनाकारों का विश्वास रहा है कि औद्योगीकरण ही प्रत्येक समस्या का समाधान है, कृषि संकट का कारण बना है। योजनाकारों की गत वर्षों में यह सोच रही है कि औद्योगीकरण से किसान कृषि छोड़ कर उद्योगों एवं सेवा के क्षेत्र में आएंगे क्योंकि ये क्षेत्र कृषि के मुकाबले अधिक लाभदायक हैं, परन्तु कृषि का महत्व रोज़गार देने के साधन के रूप में भी बड़ा अहम है। यह 48 प्रतिशत आबादी को रोज़गार उपलब्ध कराती है और 68 प्रतिशत आबादी प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष तौर पर इस पर आधारित है। कृषि ही उद्योग क्षेत्र को प्रफुल्लित करती है। इसकी आय से लोगों की खरीद शक्ति बढ़ती है। अब पंजाब की कृषि जो गेहूं, धान की काश्त पर आधारित है, में ठहराव आने के कारण तथा किसानों को उनकी उपज की उचित कीमत न मिलने से कृषि कोई लाभदायक व्यवसाय नहीं रहा। गांवों में नौजवान यह व्यवसाय छोड़ कर विदेशों को भाग रहे हैं। गांवों में भिन्न-भिन्न वर्गों के किसानों की आय में बड़ा अंतर है। 
किसान तथा गांवों में रह रहे अन्य लोग गत शताब्दी के सातवें दशक के दौरान स्वयं को अधिक संतुष्ट एवं खुश महसूस करते थे क्योंकि इस समय के दौरान सब्ज़ इन्कलाब की तकनीकों के कारण कृषि उत्पादन में लगातार वृद्धि हुई और कुछ सीमा तक किसानों की आय बढ़ी। सब्ज़ इन्कलाब से पहले भी 6वें दशक के शुरू में तत्कालीन मुख्यमंत्री स्वर्गीय प्रताप सिंह कैरों के शासन में सामूहिक विकास लहर के अधीन कृषि का काफी विकास हुआ। जब उस समय के दौर के तत्कालीन कृषि वैज्ञानिक व प्रशासक जैसे स्वर्गीय डा. महिन्दर सिंह रंधावा, डा. अमरीक सिंह चीमा तथा डा. गुरचरण सिंह  कालकट ने कृषि उत्पादन व उत्पादकता बढ़ाने के लिए सतत् प्रयास किये और पंजाब को कृषि क्षेत्र में शीर्ष पर ले जा कर खड़ा कर दिया। इस समय के दौरान ज़मीन की कीमत भी बढ़ी और कृषि का मशीनीकरण भी हुआ। गांवों के लोगों ने बच्चों को उच्च शिक्षा दिलानी शुरू कर दी। चाहे यह सब्ज़ इन्कलाब तथा सामूहिक विकास लहर सरकार का ही प्रयास था, जिसके परिणामस्वरूप सिंचाई की सुविधा, कीमियाई खाद, कीटनाशक तथा अधिक उत्पादन देने वाली फसलों की कम ऊंचाई वाली किस्में विकसित होने के कारण उत्पादन में प्रभावशाली वृद्धि हुई। अब यह वृद्धि इस स्तर पर होने की संभावना तो नहीं क्योंकि लगभग 99 प्रतिशत रकबा सिंचाई अधीन होने के कारण सिंचाई सुविधाओं में और वृद्धि नहीं हो सकती। पानी का स्तर कुछ कंडी तथा सेम के क्षेत्रों को छोड़ कर प्रत्येक स्थान पर नीचे जा रहा है। प्राकृतिक साधन तेज़ी से समाप्त हो रहे हैं। पर्यावरण में हो रहा परिवर्तन और विकास के रास्ते में बाधा उत्पन्न कर रहा है। कीमियाई खाद की खपत शिखर पर है और किसान सिफारिश की गई खुराक से अधिक खाद फसलों को डाल रहे हैं। कृषि अनुसंधान में विकास तो हो रहा है परन्तु जो अधिक उत्पादन देने वाली गेहूं एवं धान की किस्मों ने पहले सब्ज़ इन्कलाब के दौरान तथा उससे कुछ अवधि बाद तक भी जो चमत्कार दिखाए, उस स्तर तक की तरक्की अब संभव नहीं। पर्यावरण में आ रहा परिवर्तन भी एक बड़ी बाधा बनता जा रहा है। गत वर्ष मार्च में अधिक गर्मी पड़ने के कारण गेहूं के उत्पादन में ज़बरदस्त कमी आई थी। इस वर्ष बारिश व आंधी के कारण गेहूं की खड़ी फसल का काफी नुक्सान हुआ और अनेक स्थानों पर यह ज़मीन पर बिछ गई, जो उत्पादन व दाने की गुणवत्ता को प्रभावित करेगी। 
कृषि संकट का मुख्य कारण कृषि उपज की कीमत का दूसरे पदार्थों के बराबर न बढ़ना है। सन् 1966 में 10 ग्राम सोना 83 रुपये का मिलता था जबकि एक क्ंिवटल गेहूं 60 रुपये की आती थी। अब यही सोना 59000 रुपये का मिलता है जबकि गेहूं की कीमत 2000-2100 रुपये प्रति क्ंिवटल है। किसानों की मायूसी दूर करने के लिए सरकार को किसान पक्षीय योजनाएं बनाने की आवश्यकता है। कृषि उपज की कीमतें प्रो. स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के अनुसार निर्धारत की जाएं। किसानों की यह कोशिश होनी चाहिए कि वे अपनी मांगें धरने लगा कर मनवाने की बजाय सरकार से बातचीत करके हल करवाने को प्राथमिकता दें। इससे उनका समय व खर्च भी बचेगा।