नए भारतीय लोकतंत्र की तस्वीर कैसी हो ?

चुनावी मौसम की शुरुआत हो गई है। भाजपा के प्रभाव को चुनौती देने के लिए विपक्षी दलों के प्रयासों की कवायद तीव्र होती दिखाई दे रही है। विपक्षी दलों को जीत के लिए चुनावी रणनीति की तलाश के दौरान यह सुनिश्चित बनाना होगा कि स्वाभाविक विरोध तथा एक-दूसरे को मात देने वाली राजनीति से उपजी अनियमित राजनीतिक पार्टियां अब एक उद्देश्य के तहत एकजुट हों।
इस समय देश असंख्य दरारों, मानवीय स्थितियों के प्रति असंवेदनशीलता तथा संवैधानिक मूल्यों पर लगातार हो रहे हमलों जैसे अपवादी समय से गुज़र रहा है। मौजूदा हालात में ‘नया भारत श्रेष्ठ भारत’ की वास्तविकता की नज़दीक होकर जांच करने की ज़रूरत है, क्योंकि देश जितनी निराशाजनक, सामाजिक तथा राजनीतिक वास्तविकताओं से गुज़र रहा है, ऐसे हालात पहले कभी देखने को नहीं मिले।
दिलों को दहलाती ़गरीबी, शोषण तथा बहुसंख्यकों की घुटन भारत का कोई ‘चमकदार अक्स’ पेश नहीं करती। विकसित आर्थिक ढांचा होने के बावजूद उचित नीतियों की अनुपस्थिति में देश की आर्थिक तथा सामाजिक असमानता में बेहद वृद्धि हुई है। भारत के हालात का अनुमान हम कुछ आंकड़ों तथा तथ्यों से लगा सकते हैं। देश के 35.5 प्रतिशत बच्चे कुपोषण का शिकार हैं, ़गरीब विधवाओं की आंखें लाचारी का बोझ सहते हुए पत्थर हो गई हैं। नशों तथा निराशा के शिकार हुए बच्चों की माताएं उन्हें मौत के मुंह में जाते हुए देख रही हैं। फिर चाहे वह दलित हो जिसे क्रिकेट मैच देख रहे अपने भतीजे को एक गेंद पकड़ने के ‘जुर्म’ के भुगतान के लिए अपना अगूंठा कटवाना पड़ा या फिर एम्बुलैंस के लिए पैसे का प्रबन्ध न किये जाने के कारण एक पति तथा युवा बेटे को अपनी पत्नी तथा मां की मृतक देह को हाथों मेें उठा कर तथा साइकिल पर लेकर जाना पड़े, देश की ज़मीनी ह़क़ीकत का स्पष्ट दर्शन है।
लाखों लोग ऐसी बीमारियों से मर रहे हैं जो लाइलाज नहीं हैं। ये मौतें बीमारी के कारण नहीं, अपितु उपचार की कमी के कारण हो रही हैं। करोड़ों बुजुर्गों के आत्म-सम्मान को हर रोज़ ठेस पहुंचाई जा रही है। ऩफरत तथा साम्प्रदायिक भावनाओं के कारण कई मासूम युवाओं को अपनी मुहब्बत कुर्बान करनी पड़ रही है। हिरासत में अत्याचार तथा हत्या की घटनाएं, असहमति दर्शाने वालों तथा विरोधियों को जबरन कैद तथा सत्ता का नशा, यह मौजूदा राजनीति की कड़वी सच्चाई है, जबकि राजनीति की नैतिक परिभाषा निराश्रित वर्ग की ज़िन्दगी को संवारना तथा अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाना है।
अंग्रेज़ी कवि तथा लेखक ऐना लोतशिघा की कविता ‘टु द पुअर’ में ऐसे हालात को दर्शाया गया है, जिनमें अन्याय तथा ़गरीबी के ज़ख्म सहन कर रहे लोगों को लगी चोट को राष्ट्र की आत्मा पर लगी चोट करार दिया गया है। कविता में ़गरीबी तथा लाचारी के शिकार लोगों को सम्बोधन किया गया है जो प्रतिदिन अपमान सहन करते हैं, जिनकी आत्मा  को कुचले जाने के निशान हैं, जिनके नसीब में संताप की रोटी है और जो आंसुओं को पानी समझ कर पीते हैं। शोषण तथा अत्याचार की त्रासदी का ऐसा वर्णन समाज, खास तौर पर लोकतंत्र के अस्तित्व पर कई प्रश्न-चिन्ह खड़े करता है, क्योंकि लोकतंत्र का वास्तविक उद्देश्य दबे-कुचलों को राहत दिलाना होता है। हमें अपनी राजनीति के केन्द्र में संवेदना तथा भाईचारे को रखने की ज़रूरत है।
उर्दू के प्रसिद्ध शायर ़फराज़ अहमद ‘़फराज़’ के लफ्ज़ों में कहें तो-
‘हर कोई अपनी हवा में
मस्त फिरता है ़फराज़
शहर-ए-ना-पुरसान में
तेरी चश्म-ए-तर देखेगा कौन’
अभ्रिप्राय, हर कोई अपने-अपने नशे में है, ऐसे असंवेदनशील शहर में आपकी भीगी आंखों की ओर कौन देखेगा।
ऐसे संतप्त माहौल, जिसे लाखों देशवासी लगातार भोग रहे हैं, से मुक्ति के लिए ऐसी राजनीति की ज़रूरत है, जिसके नेता समानता तथा स्वतंत्रता के नैतिक मूल्यों के पैरोकार हों। इसलिए धोखे की राजनीति को नकारते हुए एकजुट होने तथा राजनीति के आदर्शवादी पक्ष की पड़ताल कर सामने रखने की ज़रूरत है।
मूलभूत नैतिक मूल्यों को साझा समर्थन देने तथा सत्ता के नशे में अहंकार में डूबी राजनीति पर नकेल डालने से ही वास्तव में लोकतंत्र का पुन: निर्माण शुरू किया जा सकता है।
नेतृत्व करने की चाहत रखने वाले नेताओं के लिए यह एक बड़ी चुनौती है कि वे इस ऐतिहासिक मोड़ पर न सिर्फ ऐसा मार्ग चुनें जो देश को मानवीय हमदर्दी की भावना के साथ जोड़ सके, अपितु इसे एक ज़रूरी दिशा भी प्रदान करें। ऐसा करने से ही हम सभी अंतरों से ऊपर उठ कर देश में भागीदारी स्थापित कर सकते हैं।
प्रसिद्ध पंजाबी क्रांतिकारी कवि अवतार सिंह संधु ‘पाश’ ने ऐसे समय की कल्पना करते हुए लिखा था-
‘जदों तक धरत दा मुखड़ा
टहक गुलज़ार नहीं हुंदा
तुहाडे शामियाने अज वी डिग्गे
भलक वी डिग्गे
हवा एसे दिशा,’ते फिर वगणी है।
तूफानां ने कदी वी मात नहीं खादी’
ऐसे हालात में नेतृत्व करने वाले नेता कमज़ोर या किसी का अनैतिक आदेश मानने वाले नहीं होने चाहिएं, जो यह कह कर अपनी आत्मा को सुर्खरु कर लें कि वे किसी बड़े उद्देश्य के लिए समर्पित हैं। हमारे समय की अहम ज़रूरत ऐसे नेतृत्व की है, जो देश की साझी नैतिक ज़मीर का न सिर्फ प्रकटावा करे, अपितु इसे आगामी शिखर तक भी ले जा सके। 
अंग्रेज़ी कवि थामस मौबरे ने इसी ज़मीर की व्याख्या करते हुए अपने शासक को कहा है कि चाहे मेरी पूरी ज़िन्दगी आपके आदेशों पर है परन्तु मेरा ज़मीर नहीं। मेरा ज़मीर तो मेरी कब्र पर भी ज़िन्दा रहेगा। 
आगामी प्रदेश विधानसभा चुनावों तथा 2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों के परिणाम राष्ट्र के राजनीतिक निर्माण में नई ऊर्जा डालने तथा संवैधानिक प्रारूप के आस-पास लोकतंत्र को नये सिरे से तैयार करने के हमारे संयुक्त संकल्प की परीक्षा होंगे। भारतवासी होने के नाते यह हमारा साझा कर्त्तव्य है कि हम अपने लोकतंत्र का पुन: निर्माण करें। हमें यह भी याद रखने की आवश्यकता है कि ऐसे अवसर पर खामोश रह कर हम अपनी आत्मा को खंडित करेंगे। हमें इतिहास के इस सबक को भी नहीं भूलना चाहिए कि जब अन्याय की अति हो जाती है, तो उस अति में से ही अन्याय के खात्मे के बीज फूटते हैं। 
‘भारत जोड़ो’ की भावना के क्रियान्वयन के लिए तथा लोकतांत्रिक क्रांति में बदलने की क्षमता उस समय ही  आएगी जब इसमें सभी, विशेष तौर पर बुद्धिजीवी वर्ग की शमूलियत होगी। बुद्धिजीवी वर्ग को इतिहास के इस सबक को नहीं भूलना चाहिए कि विश्व को बदलने की कवायद में शामिल हुए बिना सिर्फ उसकी व्याख्या करते रहने से परिवर्तन  मुमकिन नहीं होता। 
ऐसा समय जो कि सम्भावनाओं तथा देश के प्रति आशाओं, उम्मीदों से सराबोर है, का उल्लेख तरुण तेजपाल, जिनकी रचनाओं के बारे वी.एस. नायपॉल ने कहा था कि वह दिल से भारत के लिए लिखता है, ने अपनी नई पुस्तक ‘द लाइन ऑफ मर्सी’ की पंक्तियों में बहुत अच्छे ढंग से कुछ ऐसे पिरोया है—
‘साडा देश अजेहा होणा चाहीदा है’-
‘जित्थे हासे खणकदे होण
जित्थे दिलखुश कहानीयां जिही 
ज़िन्दगी दी फब्बत होवे
जित्थे नियां दीआं जड़ां गहिरीयां होण 
जित्थे चारे पासे बौद्धिकता दा चानण होवे
जित्थे प्यार जानलेवा ज़हर न होवे 
जित्थे रहम अते ़फराखदिली नूं 
अपना आप लुकाउना न पवे’
भारतीय लोकतंत्र की ऐसी तस्वीर ही तो हम चाहते हैं। सवाल यह है कि, क्या हम अपने निजी स्वार्थों तथा संकीर्ण सोच से ऊपर उठ कर इस स्वप्न को साकार कर सकेंगे?
-वरिष्ठ एडवोकेट, सुप्रीम कोर्ट 
पूर्व कानून एवं न्याय मंत्री 
नोट-ये लेखक के निजी विचार हैं।