लोकतंत्र की मज़बूती के लिए

पटना में मुख्य विपक्षी दलों की हुई बैठक संख्या के पक्ष से ज़रूर प्रभावशाली रही है। 17 राष्ट्रीय तथा बड़े प्रांतीय दलों के नेताओं का एकजुट होकर एक स्वर होने का यत्न अच्छा कहा जा सकता है। इससे यह प्रभाव भी मिलता है कि देश की ज्यादातर पार्टियां यह महसूस करने लगी हैं कि आगामी वर्ष 2024 में लोकसभा के होने जा रहे चुनावों में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी का एकजुट होकर ही मुकाबला किया जा सकता है। गत 9 वर्षों में जहां श्री मोदी के नेतृत्व में देश अनेक पक्षों से आगे बढ़ा है तथा इसकी अर्थ-व्यवस्था और मज़बूत हुई है, वहीं इस समय में भाजपा ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के नेतृत्व में शुरू से ही अपनाये अपने हिन्दुत्व के एजेंडे को भी लागू करने का यत्न किया है चाहे इसे लागू करते हुये समाज के भिन्न-भिन्न वर्गों में और बड़ी दरारें भी उभरी हैं। इसके साथ अलग-अलग समुदायों में चिन्ताएं भी पैदा हुई हैं। विश्व भर के देशों की उगंलियां भी सरकार पर उठती रही हैं परन्तु इस सब कुछ के बावजूद भाजपा द्वारा अपने अपनाये सैद्धांतिक विचारों को किसी न किसी तरह क्रियात्मक रूप देने का यत्न ज़रूर किया जाता रहा है। इसमें बड़ी सीमा तक उसे सफलता भी मिली है।
परन्तु इसके साथ ही पिछले दशक में मोदी सरकार ने देश के विकास के लिए तथा जन-साधारण की ज़िन्दगी से जुड़ी समस्याओं के हल के लिए भी यत्न किये हैं। चाहे नोटबंदी की घोषणा करके सरकार को बड़ी आलोचना का भी सामना करना पड़ा। इसके साथ बेरोज़गारी भी बढ़ी तथा हाशिये पर आये लोगों की समस्याओं में भी वृद्धि हुई परन्तु कोविड की महामारी का जिस ढंग से केन्द्र सरकार ने मुकाबला किया, देश में टैक्स लगाने के ढांचे को जिस तरह नया रूप दिया, उससे इसके सकल घरेलू उत्पाद में भी वृद्धि हुई तथा देश मज़बूत रास्तों पर भी चलने के लिए यत्नशील रहा। इसी दौरान अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में भी भारत की प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई। देश की सेना ने चीन तथा पाकिस्तान का ज़रूरत पड़ने पर प्रत्यक्ष मुकाबला करने के लिए भी स्वयं को तैयार किया। नि:संदेह आज प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का कद इस सीमा तक बढ़ा नज़र आता है कि देश का कोई अन्य विपक्षी नेता उनके आस-पास भी खड़ा दिखाई नहीं देता। गत 9 वर्षों की अवधि में राजनीतिक मंच पर भिन्न-भिन्न प्रांतों में हुये चुनावों में जहां भाजपा को जीत प्राप्त हुई, वहीं कई राज्यों में इसे बड़ी निराशा भी मिली। इसकी मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस चाहे आज कुछ प्रदेशों तक ही सिकुड़ कर रही गई है परन्तु एक राष्ट्रीय पार्टी के रूप में ज्यादातर हुये चुनावों में निराशाजनक हारों के बाद भी इसका राष्ट्रीय प्रभाव बना रहा है। 
इसके साथ-साथ बहुत-से प्रदेशों में क्षेत्रीय पार्टियों का उभार भी देखने को मिलता रहा है। ममता बैनर्जी ने अपनी सीमाओं के बावजूद अभी तक पश्चिम बंगाल में अपने पांव जमाये रखे हैं। बिहार में मुख्यमंत्री नितीश कुमार भी लालू प्रसाद यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल के साथ मिल कर सरकार चला रहे हैं। इसी तरह ओडिशा, तेलंगाना आदि में भी मुख्य रूप से क्षेत्रीय पाटियों की सरकार ही बनी हुई है। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी ने भी अखिलेश यादव के नेतृत्व में अपने प्रभाव को अब तक बनाये रखा है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि यदि क्रियात्मक रूप में ये पार्टियां एक-स्वर में बोलती हैं तो इनकी आवाज़ दमदार साबित हो सकती है। ऐसी भावनाएं पटना की बैठक के बाद इन पार्टियों के नेताओं ने व्यक्त भी की हैं। उन्होंने कहा कि वे राष्ट्र के हित में काम कर रहे हैं, जबकि भाजपा देश के इतिहास को बदलने में लगी हुई है। उन्होंने यह भी कहा कि वे एक साझा एजेंडा तैयार करने के यत्न में हैं तथा इसे लेकर वे एकजुट होकर चुनाव लड़ने के लिए तैयारी कर रहे हैं परन्तु इसके साथ ही भिन्न-भिन्न प्रदेशों में इन पार्टियों की अपनी-अपनी समस्याएं तथा सीमाएं भी हैं, जिन्हें हल कर पाना इनके लिए बेहद कठिन हो सकता है, परन्तु हम किये जा रहे इन यत्नों को अच्छी दिशा में उठाया गया एक कदम समझते हैं क्योंकि यह प्रक्रिया भारतीय लोकतंत्र को और मज़बूती देने में सहायक हो सकती है।

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द