लेखन व साहित्य, विज्ञान व अनुसंधान एक सिक्के के दो पहलू 

रचना कैसी भी हो, रचने वाले को मेहनत तो करनी ही पड़ती है, सृजन की यही प्रक्रिया है। कुछ भी नया करने के लिये सदियों से चली आ रही परम्पराओं और मान्यताओं को समय के अनुसार अपनाना, उनमें बदलाव करना ज़रूरी है। जिस चीज़ की अब ज़रूरत नहीं रही, उसे छोड़कर जब कुछ नया लिखा जाता है, तब वह साहित्य कहलाता है। इसी प्रकार गहन चिंतन, मनन और पहले उस विषय पर की गई खोजों के गुण-दोष और आज की ज़रूरत का आकलन कर जो मिलता है, उसे अनुसंधान का रुतबा मिलता है।
दोनों ही स्थितियों में सृजन की प्रक्रिया और जो कृति है उसका प्रभाव एक जैसा ही होता है। यदि उपयोगी, सार्थक और नवीनता लिए है तो स्वीकार कर ली जाती है वरना उसे नकार दिया जाता है। लेखक हो या वैज्ञानिक इस बारे में तटस्थ रहकर और आलोचना, विरोध से लेकर प्रशंसा तक के प्रति उदासीन रहकर अपने अगले सृजन को आकार देने में जुट जाते हैं। रचना प्रक्रिया का धर्म भी यही है।
लेखक और प्रकाशक
लेखन और प्रकाशन की अपने देश में जो हालत है, यदि हम उसकी बात करें तो मिलाजुला संकेत मिलता है अर्थात् ठीक भी और नहीं भी, ऐसा इसलिए कि स्थिति कोई उत्साहवर्धक नहीं बल्कि सोच-विचार कर उसमें परिवर्तन करने की आवश्यकता है।
सर्वे करने वाले कहते हैं कि भारत प्रकाशन में दुनिया के पहले पांच देशों में है और अंग्रेज़ी के मामले में दूसरे स्थान पर है। इस सब के बावजूद हमारे देश में लेखकों और प्रकाशकों की स्थिति, विशेषकर हिन्दी सहित सभी भारतीय भाषाओं की दयनीय है। कोई भी रचनाकार चाहे कितनी भी परिवर्तनशीलता लिए हुए कैसी भी क्रांतिकारी और युगांतरकारी तथा कालजयी रचना कर दे, तब तक चर्चित और स्वीकृत नहीं होता जब तक अंग्रेज़ी और अंग्रेजनुमा लेखकों, साहित्यकारों और पत्रकारों के बीच अपनी पैठ न बना ले।
आज का दौर हर मायने में आधुनिक और टेक्नोलॉजी के अधीन कहा जा सकता है। यह वक्त का तकाजा है कि इस नए दौर, जिसे डिजीटल और नया मीडिया कहते हैं, की ताकत को उसकी अच्छी-बुरी आदतों के साथ अपनाने में ही भलाई है, अन्यथा पीछे छूट जाएंगे और लेखन के क्षेत्र में निपट अकेले रह जाएंगे।
प्रकाशन का व्यापारीकरण
अब हम उन प्रकाशकों और लेखकों पर आते हैं जो इस व्यवसाय को शुद्ध व्यापार की नज़र से देखते हैं। ऐसे प्रकाशक सोशल मीडिया पर लुभावनी बातें कर किसी भी व्यक्ति ने कुछ भी लिखा हो, उसे लेखक बनाने का दावा करते हैं। इनके लिए इस बात का महत्व नहीं होता कि लेखन कैसा है और छापने के बाद किताब खरीद कर पढ़ने वाले कौन होंगे और कहां से आयेंगे।
वे लेखक से उसका लिखा छापने के लिए एक निश्चित रकम लेते हैं और पांच प्रतियां लेखक को देकर कहते हैं कि उसके बाद जो किताब की कीमत है, उसे देकर जितनी चाहें खरीद लें। इनके पास न तो संपादकीय टीम होती है और न ही लेखन की गुणवत्ता जांचने की कोई प्रकिया, यहां तक कि प्रूफ रीडिंग भी लेखक को करनी होती है। लेखक पर ही किताब का प्रमोशन करने, बेचने और प्रकाशक को दी गई रकम लौट कर आने की जिम्मेदारी होती है। ज्यादातर खरीद ऑनलाइन होती है जिसका हिसाब प्रकाशक के पास रहता है और उसे लेखक को देना ज़रूरी नहीं समझा जाता।
इस व्यवस्था में लेखक को संतुष्टि हो जाती है कि वह साहित्यकारों की पांत में शामिल हो गया और ऐसी जमात में उसका नाम आ गया जिसे आदर की दृष्टि से देखा जाता है। अपने मित्रों, संबंधियों के बीच लेखकीय सम्मान पाने का अधिकारी हो जाता है। अपने पैसे से छपवाई और खरीदी गई पुस्तकों का लोकार्पण करवाता है, अपने हस्ताक्षर कर प्रतियाँ भेंट करता है और सोशल मीडिया के जरिये चर्चित होने का उपईत्र्म करता है। इससे कुछ किताबें प्रकाशक से ऑनलाइन खरीदी जा सकती हैं लेकिन ज़रूरी नहीं कि इस पैसे का कुछ अंश लेखक तक भी पहुंचे।
पुस्तक और जीवन
वास्तविकता यह है कि पुस्तकें हमें जीवन का दर्शन समझाती हैं, मानवीयता के रहस्यों को उजागर करती हैं। ज्ञान से हमारा दिमाग संवारती है और बुद्धि को अपने ठिकाने पर रखती हैं। सही गलत की पहचान करना सिखाती हैं और विपत्ति के समय धैर्य रखने और किसी भी मुसीबत का सामना करने तथा कैसी भी कठिन परिस्थिति से बाहर निकलने का रास्ता बताती हैं।
 शिक्षित ही नहीं करतीं, इन्सान बनने की दिशा दिखाती हैं। यह बात और है कि यह सब चाहे किसी भी माध्यम से हो, अर्थात् कविता, कहानी, उपन्यास, लेख कुछ भी हो सकता है।
शुरू में लेखक की तुलना एक वैज्ञानिक से करने का मकसद यही था कि जिस प्रकार वैज्ञानिक अपनी खोज से एक नयी टेक्नोलॉजी तैयार करता है जिससे लाखों करोड़ों लोग लाभान्वित होते हैं, जो उनके जीवन को खुशहाल और प्रगतिशील बना सकती है, उसी प्रकार एक लेखक भी अपने लेखन से सामाजिक बुराईयों को मिटाकर समाज और जीवन में आनंद भर सकता है।
होना तो यह चाहिए कि प्रकाशन व्यवसाय के शिक्षण, प्रशिक्षण और स्थापित करने के नियम बनायें, उसके स्टैण्डर्ड तय हों और आज जब यह दुनिया टेक्नोलॉजी के जरिये बहुत सिमट गई है तो एक भाषा के बजाय अनेक भाषाओं में एक साथ पुस्तकें प्रकाशित हों। श्रेष्ठ पुस्तकें सभी भाषाओं में उपलब्ध हों। जरूरी न हो कि किसी भाषा का साहित्य पढ़ने के लिए उसे भी सीखना पड़े बल्कि उसके रूपांतर सहज उपलब्ध हों।
इस व्यवस्था में ज़रूरी यह हो कि लेखक केवल सृजन करे, अपने लिखे को स्वयं बेचने की जरूरत उसे न हो और वह स्वतंत्र होकर लिख सके। यह ठीक वैसा ही है कि जैसे किसी वैज्ञानिक से यह कहा जाये कि वह अपनी बनाई टेक्नोलॉजी को खुद ही बेचे। यह अन्यायपूर्ण व्यवस्था जैसे एक वैज्ञानिक की प्रतिभा को कुंठित करने वाली और घातक है, उसी प्रकार एक साहित्यकार से उसकी पुस्तक उससे ही बिकवाई जाना भी अनर्थकारी है।