अविश्वास प्रस्ताव की राजनीति से गुम होती संवेदनशीलता

 

मणिपुर में दो महिलाओं के साथ हुई शर्मनाक घटना पर कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी पार्टियां मोदी सरकार पर हमलावर हैं। संसद के मानसून सत्र में मणिपुर हिंसा को लेकर लगातार गतिरोध बना हुआ है। विपक्ष इसे लेकर अड़ा हुआ है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मणिपुर के मुद्दे पर सदन में बोलें। इस मांग को लेकर वह लगातार सदन का बहिष्कार करता आ रहा है। गृह मंत्री अमित शाह ने कहा था कि वह संसद में इस पर जवाब देने के लिए तैयार हैं, लेकिन विपक्ष ने अमित शाह के इस प्रस्ताव को ठुकराते हुए अविश्वास प्रस्ताव का नोटिस थमाया। गत 26 जुलाई को विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ की तरफ  से सदन के नियम 198 के तहत अविश्वास प्रस्ताव लाया गया। लोकसभा स्पीकर ओम बिरला ने अविश्वास प्रस्ताव के नोटिस को स्वीकार तो कर लिया लेकिन सदन में इस पर चर्चा कब होगी, यह तय नहीं किया। सत्ताधारी पार्टी के पास संसद के दोनों सदनों में बहुमत है लेकिन अविश्वास प्रस्ताव को विपक्ष की एकजुटता के रूप में देखा जा रहा है।
मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में यह पहली बार है, जब विपक्ष उसके खिलाफ  अविश्वास प्रस्ताव लेकर आया है। अंतत: नया बना विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ मोदी सरकार के खिलाफ  अविश्वास प्रस्ताव ले आया। वह स्वीकार भी हो गया। विपक्ष भले ही अविश्वास प्रस्ताव को अपनी जीत समझ रहा हो और यह मानकर चल रहा हो कि उसे संसद में अपनी एकजुटता एवं ताकत दिखाने का अवसर मिलेगा, लेकिन एक तो इस प्रस्ताव का गिरना तय है और दूसरे, जब इस पर बहस होगी तो इसके पूरे आसार हैं कि सरकार और विशेष रूप से प्रधानमंत्री की ओर से इस नए गठबंधन की कथित एकजुटता की पोल भी खोली जाएगी और उसकी आपसी खींचतान को भी उजागर किया जाएगा। इतना ही नहीं, बहस केवल मणिपुर तक सीमित नहीं रहने वाली, क्योंकि हालिया पंचायत चुनावों के दौरान बंगाल में जो भीषण हिंसा हुई, कोई भी उसकी अनदेखी नहीं कर सकता, मोदी सरकार तो बिल्कुल भी नहीं। यह सही है कि अविश्वास प्रस्ताव लाकर विपक्ष ने अपने इस उद्देश्य को हासिल कर लिया कि मणिपुर के मामले में प्रधानमंत्री को सदन में बोलना ही पड़ेगा, लेकिन उसने उन्हें अपनी राजनीतिक हठधर्मिता को बेनकाब करने का अवसर भी दे दिया है।
पहले यह समझना होगा कि मणिपुर की घटना क्या सिर्फ एक वायरल वीडियो है? दरअसल वायरल वीडियो तो बस मणिपुर की हिंसा का एक उत्पाद है। मणिपुर पर कोई चर्चा नहीं हो रही थी। जब राहुल गांधी मणिपुर गए तो उसके बाद मणिपुर की चर्चा शुरू हुई। वायरल वीडियो ने समाज की संवेदना को झकझोरा। यह सच है कि देश में दुष्कर्म होते हैं, लेकिन मणिपुर में जातीय हिंसा में महिलाओं का इस्तेमाल किया गया है। विरोधियों को नीचा दिखाने के लिए महिलाओं का शोषण किया गया। मणिपुर की घटना की अन्य राज्यों से तुलना करना ही शर्मनाक है।राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि विपक्ष की ओर से कांग्रेस द्वारा पेश किया गया अविश्वास प्रस्ताव असल में  ‘इंडिया’ की मज़बूती की भी परीक्षा है। साल 2018 में भी विपक्ष मोदी सरकार के खिलाफ  अविश्वास प्रस्ताव लेकर आया था। जुलाई 2018 में सदन में 11 घंटों की लम्बी बहस चली और आखिरकार मोदी सरकार ने सदन में अपना बहुमत साबित कर दिया। वोटिंग के बाद सदन में विपक्ष का लाया गया प्रस्ताव गिर गया था।
इस बार भी 2018 जैसे ही होता दिख रहा है, क्योंकि जहां भाजपा के नेतृत्व वाले राजग के पास लोकसभा में 330 से अधिक सदस्य हैं, वहीं ‘इंडिया’ के पास इसके आधे भी नहीं हैं। राज्यसभा में भाजपा के अपने सदस्यों की संख्या 92 है। उसकी सहयोगी पार्टियों के सांसदों को मिला कर राजग के कुल सदस्यों की संख्या 113 हो जाती है। वाईएसआर कांग्रेस के नेता जगन मोहन रेड्डी ने अपने नौ सांसदों का समर्थन सरकार को दे दिया है। सो, सरकार के पक्ष में 123 का आंकड़ा बनता है, जो बहुमत से ज़्यादा है। इसके अलावा मायावती का एकमात्र सांसद इस बिल पर बहस और वोटिंग में हिस्सा नहीं लेगा। मोदी सरकार ने पिछले आठ वर्षों में पूर्वोत्तर को देश की मुख्यधारा से जोड़ने के लिए जितने काम किए हैं, वे पहले नहीं हुए। कौन इन्कार कर सकता है कि नागालैंड और असम में उग्रवादी संगठनों को बातचीत के रास्ते पर लाने में मोदी सरकार ने सफलता हासिल की है। फिर मणिपुर में कहां गलती हुई? क्या भाजपा की सरकार है, इसलिए मोदी कोई सख्त एक्शन नहीं ले रहे? ये सवाल तो है ही। राजनीति के जानकार इस बात की चर्चा कर रहे हैं कि विपक्ष मणिपुर की घटना को लेकर सत्ता पक्ष पर भारी नहीं पड़ रहा है। मणिपुर जैसी घटनाएं बंगाल और राजस्थान में भी हुई हैं। गृहमंत्री ने मणिपुर का दौरा किया है। कार्रवाई भी की जा रही है, लेकिन विपक्ष प्रधानमंत्री के संसद में बयान देने पर अड़ा हुआ है। विपक्ष इस मुद्दे पर सिर्फ  राजनीति कर रहा है। 
इसमें कोई दो राय नहीं है कि विपक्ष इस फि राक में रहता है कि किसी मुद्दे पर सीधे प्रधानमंत्री को संसद में खड़ा करवाकर देश को संदेश दिया जाए कि उसने राजनीति के अखाड़े में बड़ी बाजी जीत ली है। विपक्ष की चाहत होती है कि वह सरकार के मुखिया को कटघरे में खड़ा करके खुद को बेहद ताकतवर राजनीतिक शक्ति के रूप में पेश करे और जनता के मुद्दों के प्रति खुद को काफी संवेदनशील साबित करे। उधर, सत्ता पक्ष राजनीतिक धमाचौकड़ी के वक्त विपक्ष को बढ़त लेने का मौका नहीं देना चाहता। 
लोकतांत्रिक व्यवस्था में विपक्ष का यह अर्थ नहीं होता कि मौका मिले तो सत्ताधारी दल को घेर लो। जब उसी तरह का मुद्दा या वैसी ही बर्बरतापूर्ण और मानवता को शर्मसार करने वाली घटना विपक्ष द्वारा शासित राज्यों में सामने आए, तो वही मुखरता इन दलों को भी दिखानी चाहिए। हालांकि ऐसा होता नहीं है। मणिपुर के हालात पर विपक्षी दलों की चिंता एक दिखावा अधिक दिखी, क्योंकि यदि वह वहां की स्थिति को लेकर वास्तव में दुखी और गम्भीर होते तो चार दिन संसद का काम रोक कर न तो नारेबाजी में अपनी ऊर्जा खपाते और न ही गृह मंत्री को सुनने से इन्कार करते। विपक्ष जो भी दावा करे, सच यही है कि उसने अपने राजनीतिक हित भुनाने के फेर में इस परम्परा की अनदेखी करना पसंद किया कि जिस मंत्रालय का मामला होता है, उसी के मंत्री को उस पर वक्तव्य देना होता है। कुल मिलाकर इस मामले में संवेदनशीलता से ज्यादा राजनीति हावी दिखाई दे रही है।