एक विचित्र इतिहास है संसद में अविश्वास प्रस्ताव का 

लोकसभा अध्यक्ष ने पिछले सप्ताह नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ नये विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ द्वारा दिये गये अविश्वास प्रस्ताव के नोटिस को स्वीकार कर लिया है।  2014 के बाद उसका अविश्वास प्रस्ताव से दूसरी बार सामना होगा। गत माह 26 विपक्षी दलों ने ‘इंडिया’ (भारतीय राष्ट्रीय विकासात्मक समावेशी गठबंधन) का गठन किया।  2024 के लोकसभा चुनाव की तैयारी में जुटे विपक्षी दल मोदी पर दबाव बढ़ा रहे हैं।  उल्लेखनीय है कि अगस्त 1963 में समाजवादी नेता आचार्य कृपलानी द्वारा जवाहरलाल नेहरू सरकार के खिलाफ  पहला अविश्वास प्रस्ताव लाया गया था। इसके बाद इंदिरा गांधी को सबसे अधिक अविश्वास प्रस्तावों का सामना करना पड़ा। प्रधानमंत्री के रूप में अपने 16 साल के कार्यकाल (1966-77 और 1980-1984) के दौरान उन्हें 15 बार अविश्वास प्रस्ताव का सामना करना पड़ा। चरण सिंह, वी.पी. सिंह, चन्द्रशेखर, एच.डी. देवेगौड़ा और आई.के. गुजराल को ऐसे किसी प्रस्ताव का सामना नहीं करना पड़ा। 
विपक्ष प्रायोजित वर्तमान प्रस्ताव मणिपुर मुद्दे पर मानसून सत्र में लगातार व्यवधान का सामना करने के बाद आया है।  प्रधानमंत्री से जवाब पाने के लिए अन्य सभी विकल्प खत्म हो जाने के बाद यह अंतिम विकल्प था। 
वर्तमान अविश्वास प्रस्ताव का हश्र पहले से ही ज्ञात है।  यह कोई रोमांचक उत्साह नहीं होगा। सत्तारूढ़ भाजपा आसानी से प्रस्ताव जीत सकती है, क्योंकि गणित मोदी के पक्ष में है।  लोकसभा में भाजपा के नेतृत्व वाले राजग के 332 सदस्य हैं। आवश्यक बहुमत का आंकड़ा 272 है। जगन मोहन रेड्डी के नेतृत्व वाली युवजन श्रमिक रायथू कांग्रेस पार्टी (वाईएसआरसीपी) जो राजग का हिस्सा नहीं है, ने लोकसभा में अपने 22 सदस्यों के साथ सरकार का समर्थन करने का फैसला किया है। विपक्षी खेमे के पास 142 सीटों की ताकत है।  केसीआर के नेतृत्व वाली भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) जो कि ‘इंडिया’ गठबंधन का हिस्सा नहीं है,  ने विपक्ष का समर्थन किया है। बीआरएस ने भी अलग से अविश्वास प्रस्ताव पेश किया था, लेकिन अध्यक्ष ने इसे स्वीकार नहीं किया।  विपक्ष जानता है कि वह वोट नहीं जीत पायेगा लेकिन दावा करता है कि वह धारणा युद्ध जीत जायेगा। यह प्रस्ताव प्रधानमंत्री पर संसद में आकर मणिपुर हिंसा और अन्य मुद्दों के बारे में सवालों के जवाब देने के लिए दबाव डालेगा। नरेंद्र मोदी लगभग तीन महीने से इस विषय पर चुप हैं।  
मणिपुर में हिंसा मई के शुरुआती दिनों में आरम्भ हुई थी। भाजपा शासित इस राज्य में टकराव मुख्य रूप से बहुसंख्यक मैतेई समूह जो कि हिंदू हैं और इसाई कुकी और नागा जनजातियों के बीच था। हाल ही में कुछ परेशान करने वाला वीडियो सार्वजनिक होने के बाद झड़पों के कारण राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आक्रेश पैदा हुआ। बाइडन प्रशासन के एक प्रवक्ता ने भी इसकी निंदा की। इस मुद्दे पर सरकार और विपक्ष के बीच टकराव बढ़ गया, जिसके परिणामस्वरूप मानसून सत्र शुरू होने के बाद से संसद में लगातार व्यवधान हो रहा है।  पर्याप्त बहुमत होने के कारण मोदी सरकार के लिए डरने की कोई बात नहीं है, फिर भी उसने विपक्ष के प्रति उदार होने से इन्कार कर दिया। 
विपक्ष भी बहिष्कार, शोर-शराबा और नारेबाजी करता आ रहा है। दोनों पक्षों ने आक्रामक रवैया अपनाया हुआ है। हालांकि संसद को सुचारू रूप से चलाना सरकार का काम है, लेकिन विपक्ष को भी रचनात्मक आलोचना करनी चाहिए। दोनों पक्षों को अपना-अपना रवैया बदलना होगा। बहस, चर्चा और रचनात्मक आलोचना संसदीय कार्यप्रणाली के मूलभूत अंग हैं। प्रधानमंत्री को अब अविश्वास प्रस्ताव पर जवाब देना चाहिए और उठाये गये सभी मुद्दों पर स्पष्टीकरण देना चाहिए।  संसद को अधिक चर्चा और कानूनों की जांच की आवश्यकता है, क्योंकि सांसदों को वैसे भी कानून निर्माता कहा जाता है।  जनमत को आकार देने में संसदीय बहसों के महत्व को पहचानना आवश्यक है।  इन बहसों को अनुत्पादक कह कर खारिज करना एक गलती होगी।  सदन के सदस्य विधेयकों पर मतदान करने से पहले उन पर बहस करते हैं। सदन सत्र के दौरान अपनी चिंताओं को व्यक्त करना आवश्यक है।  उनके पास अपनी चिंता व्यक्त करने के कई विकल्प हैं। उनके पास प्रश्नकाल, अल्प सूचना प्रश्न, ध्यानाकर्षण प्रस्ताव, स्थगन प्रस्ताव और अंत में अविश्वास प्रस्ताव है। 
आज़ादी के बाद से भारतीय संसद ने कुछ उत्कृष्ट बहसें देखी हैं,  लेकिन पिछले कुछ वर्षों में बहस के बजाय व्यवधान सामान्य बात हो गई है।  इसलिए शोर-शराबे के बीच बहस और चर्चा का कोई स्थान नहीं रह गया लगता। दोनों पक्षों के सांसदों को अपने मतदाताओं के विचारों का प्रतिनिधित्व करने और सरकारी नीतियों की सार्थक जांच के लिए बहस और चर्चा करनी चाहिए। 
यहां तक कि भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमना ने भी इस बात पर अफसोस जताया कि संसद में कानूनों की जांच पर पर्याप्त चर्चा नहीं हुई। कानून निर्माताओं को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि किसी विधेयक के इच्छित उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए उसमें आवश्यक संशोधन किये जायें और इसे न्यायपालिका द्वारा खारिज किए जाने से बचाया जाये। एक जीवंत लोकतंत्र के लिए एक प्रभावी संसद की आवश्यकता होती है। संविधान के अनुसार विधायिका कानून बनाती है, सरकार उन्हें क्रियान्वित करती है और न्यायपालिका उन्हें लागू कराती है। 
लोकसभा में मोदी सरकार का महत्वपूर्ण बहुमत सहज संचालन की गारंटी नहीं देता है। सफल होने के लिए विपक्ष को सही मुद्दों की पहचान करनी चाहिए और उनका समाधान करना चाहिए। केवल बहिष्कार करने, नारे लगाने और सदन में व्यवधान पैदा करने से उनका उद्देश्य पूरा नहीं होगा। अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए अधिक रणनीतिक और व्यावहारिक दृष्टिकोण होना चाहिए। राजनीतिक दलों को तुरंत अपने दृष्टिकोण पर फिर से विचार करना चाहिए और रचनात्मक बहस और चर्चा को प्राथमिकता देनी चाहिए। (संवाद)