सबको साथ लेकर चलने से ही वास्तविक विकास हो सकेगा

अगस्त का महीना, विशेषकर इसका दूसरा और तीसरा सप्ताह हमारे देश के साथ-साथ दुनिया के लिए भी महत्वपूर्ण रहा है। अगस्त में ही ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ शुरू हुआ था जिसकी पूर्णाहुति अंग्रेज़ी शासन की समाप्ति से हुई और हम एक स्वतंत्र राष्ट्र बन गये। हमारा एक हिस्सा अलग कर दूसरा देश पाकिस्तान बना दिया गया जिसका दु:ख भुलाए नहीं भूलता। अगली कड़ी थी दो देशों के बीच जनसंख्या की अदला-बदली से जन्मी सम्प्रादायिक हिंसा जिसने सोचने पर विवश कर दिया कि क्या इसी के लिये आज़ादी के सपने संजोये थे?
यह तो हुई देश की बात, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अमरीका द्वारा जापान पर अपने बनाए एटम बम का परीक्षण करने और एक देश को सबक सिखाने के लिए उसका इस्तेमाल निरीह जनता पर मृत्यु तांडव का दृश्य साकार करने के लिए किया गया। उसका असर आज तक जापान की पीढ़ियां भुगत रही हैं।
विनाशकारी सोच
पिछले दिनों अंग्रेज़ी फिल्म ओपनहाइमर देखने से यह भाव मन में आया कि विज्ञान और वैज्ञानिक का इस्तेमाल किस तरह एक तथाकथित महान देश के शासकों द्वारा किया जा सकता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि ओपनहाइमर ने एटम बम बनाने में सफलता पाई लेकिन वह उसके इस्तेमाल से होने वाले विध्वंस से भी परिचित थे और फिल्म के अनुसार हिरोशिमा और नागासाकी पर एटम बम गिराने के फैसले से बहुत विचलित थे। तब वहां के राष्ट्रपति ने यह कहा कि तुम यह समझो कि यह मैंने बनाया है और इसका जो भी परिणाम होगा वह तुम्हारी नहीं मेरी उपलब्धि होगी। यह विनाशकारी सोच आज तक सम्पन्न देशों की जड़ों में है। रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध इसका ज्वलंत उदाहरण है। वैज्ञानिक ओपनहाइमर का क्या हुआ, कितने मानसिक और शारीरिक उत्पीड़न से उसे गुजरना पड़ा, यह इस फिल्म का मार्मिक पहलू है। दो शहर मिटने के कगार पर पहुंच गये, लाखों की मृत्यु हुई, लाखों अपंग हो गये, उनकी आने वाली पीढ़ी अंधकार के गर्त में जन्म लेने के लिए मजबूर हो गई और यह त्रासदी हमेशा के लिए रहने वाला श्राप बन गई। आज तक उसका स्मरण करने से भी सिहरन हो जाती है। इसके बराबर तो नहीं लेकिन भारत और पाकिस्तान के बीच जो संघर्ष तब शुरू हुआ और जिसकी याद आज भी मन में गहरी पीड़ा दे जाती है, उसके परिणाम आज तक हम भुगत रहे हैं। एक ही मिट्टी में खेले कूदे लोग, बांट दी गई अपनी धरती के दो भागों में अभी तक शांति से नहीं बस पाये हैं।
प्रश्न उठता है कि क्या धर्म, सम्प्रदाय, जाति, रंग, रूप और लिंग भेद को इतना हावी होने दिया जाये कि क्रूरता के सभी पैमाने एक से बढ़कर एक उदाहरण प्रस्तुत करने लगें। नस्लीय हिंसा का तांडव क्या इतना निर्मम हो सकता है कि मानवीय संवेदनाओं के लिये कोई स्थान ही न बचे। क्या यह सरकार, प्रशासन तथा पुलिसिया एवं सुरक्षा तंत्र की विफलता नहीं है कि वह जन भावनाओं का अनुमान ही न लगा सके, आक्रोश को समझ ही न सके, आपसी भाईचारा बिगाड़कर वैमनस्य फैलाने वालों की पहचान न कर सके और एक बड़ी संख्या में आबादी को धर्म, जाति, नस्ल और सम्प्रदाय के नाम पर हिंसा करने वालों के सामने निरीह बनकर मृत्यु का ग्रास बनने के लिए छोड़ दे?
मानवता ही सर्वोपरि
धर्म चाहे कोई भी हो, लेकिन उसके मानने वाले तो मनुष्य ही हैं। जाति, सम्प्रदाय अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन उनमें सम्मिलित तो इन्सान ही होते हैं। रंग, रूप और लिंग के आधार पर अंतर हो सकता है लेकिन मानव होने से मानवीयता तो सब में एक जैसी ही होती है। फिर भेद कहां है जो एक-दूसरे को टेढ़ी आंख नहीं सुहाते, नफरत की भूमिका बनाकर उसकी नींव पर दुश्मनी के महल खड़े कर लिये जाते हैं।
यह एक वास्तविकता है कि कितनी ही तोड़-फोड़ कर लीजिए, कोई भी मुखौटा लगा लीजिए, कैसा भी तनावपूर्ण वातावरण बनाने की कोशिशों में लगे रहिए, सामाजिक ताना-बाना छिन्न-भिन्न नहीं हो सकता। उसमें कुछ देर के लिये खिंचाव बेशक हो जाये, लेकिन वह टूट नहीं सकता। अगर कहीं टूटने की नौबत आ गई और वह बिखर गया तो फिर उसका जुड़ना असंभव है। एशियाई और पश्चिमी देशों में ऐसे बहुत-से उदाहरण बिखरे पड़े हैं जहां एक बार इन्सानियत पर हैवानियत सवार हो गई तो वहां विनाश के अतिरिक्त और कुछ नहीं पनप सकता।
कोई अपने धर्म का नारा लगाने से अपने अनुयायियों की सोच पर कुछ हद तक तो असर डाला जा सकता है लेकिन जैसे धुंध या कोहरा हटने से सूर्य का प्रकाश हम तक पहुंचने से सब कुछ साफ  दिखाई देने लगता है, उसी प्रकार भड़काउू आचरण स्पष्ट नज़र आने लगता है। एक झटके से अपना भला बुरा समझने की बुद्धि आ जाती है। जैसे ही हमने अपने विवेक का इस्तेमाल किया, समाज के विघटनकारी तत्वों की नींद उड़ने लगती है। उन्हें घुटने टेकने ही पड़ते हैं और अपनी चालबाजियों से बाज भी आना ही पड़ता है। संगठन और एकजुटता ही हमारे किसी भी कार्य के सफल होने की कुंजी है। यदि हमारा स्वभाव किसी दीन दुखी के आंसुओं को अपनी हथेली की गर्माहट से उन्हें बहने से रोकने का नहीं है, सड़क पर ठोकर खा कर गिरे व्यक्ति को उठाकर उसे पानी पिलाने का नहीं है, अपने से कमज़ोर इन्सान या किसी भी जीव को सुरक्षा देने का नहीं है तो फिर किस श्रेणी में आयेंगे, इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है !
अमृत महोत्सव का जश्न मनाने में कोई बुराई नहीं है और न ही अमृत काल में प्रवेश की मनाही है, लेकिन जब तक सम्प्रादायिक हिंसा, धर्म पर आधारित भेदभाव करने की प्रवृत्ति और केवल स्वयं के बारे में सोचने की मानसिकता पर अंकुश नहीं लगेगा, तब तक एकता की बात तो दूर, निर्भीक होकर अपने मन की बात कहने के भी योग्य नहीं हो पायेंगे। इस प्रकार की दूषित मानसिकता, भ्रामक सोच और सब कुछ पर एकमात्र अपना ही नियंत्रण होने या हड़प लेने की इच्छा को मार कर ‘सर्वजन हिताए और सर्वजन सुखाए’ की नीति को ही सर्वश्रेष्ठ मानकर नहीं चलेंगे, तब तक वास्तविक प्रगति नहीं हो सकेगी। इसलिए किसी को तो भगवान शिव की तरह ज़हर का प्याला पीने के लिए आगे आना ही होगा।