सही साबित होती दिख रही चर्चिल की भविष्यवाणी

भारत को आज़ादी हासिल होने से पहले ब्रिटेन की कंज़र्वेटिव पार्टी के नेता और प्रधानमंत्री रहे विंस्टन चर्चिल का मानना था कि भारतीयों में शासन करने की योग्यता नहीं है, इसलिए अगर भारत को स्वतंत्र कर दिया गया तो भारतीय नेता शासन नहीं चला पाएंगे और यह देश बिखर जाएगा। चर्चिल ने यह बात भारत की आज़ादी को लेकर ब्रिटेन की संसद में हुई चर्चा के दौरान कही भी थी। चर्चिल का कहना था कि आज़ादी के बाद भारत की सत्ता दुष्टों, बदमाशों और लुटेरों के हाथों में चली जाएगी। चर्चिल के इस पूर्वाग्रह को भारत अपनी आज़ादी के बाद 67 सालों तक झुठलाता रहा, लेकिन हाल के सालों में हुए कुछ घटनाक्रमों पर, अभी जारी घटनाओं पर और भारत पर शासन कर रही राजनीतिक शक्तियों की भाषा और भाव-भंगिमा पर गौर करें तो पाएंगे कि चर्चिल महाशय हर दिन, हर स्तर पर सही साबित हो रहे हैं।
आज़ादी के बाद इस देश ने कई रंग की सरकारें देखीं- लम्बे समय तक मध्यमार्गी कांग्रेस की, समाजवादी सितारों से सजी जनता पार्टी, राष्ट्रीय मोर्चा और संयुक्त मोर्चा की और धुर दक्षिणपंथी भाजपा की अगुवाई में बने कई दलों के गठबंधन की भी। जवाहरलाल नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह तक 14 प्रधानमंत्री भी देखे। जिस तरह कोई व्यक्ति अपने आप में पूर्ण या सौ प्रतिशत सही नहीं होता, उसी तरह हम किसी भी सरकार के बारे में यह नहीं कह सकते कि उसने सब कुछ अच्छा ही अच्छा किया। सो, आज़ादी के बाद हर सरकार और हर प्रधानमंत्री में कुछ न कुछ खामियां रहीं और उनसे छोटी-बड़ी गलतियां भी हुईं लेकिन इसके बावजूद देश ने हर क्षेत्र में क्रमश: अपने आपको सजाया-संवारा और खरामा-खरामा तरक्की की सीढ़ियां चढ़ता रहा। हमारा लोकतंत्र भी धीरे-धीरे परिपक्व होता गया। इस तरह हमने चर्चिल को लगातार गलत साबित किया। कुछ साल पहले तक 15 अगस्त के मौके पर भारत की आज़ादी का जश्न मनाते वक्त कम से कम इस बात पर हम ़फ़ख्र कर सकते थे कि भारत एक लोकतंत्र है। हमारी चिंता और कोशिश इसे बेहतर बनाने की होती थी कि हम कैसे देश में बसने वाले सभी समूहों को समान रूप से भागीदार बनाएं। हमें लगता था कि अगर लोकतंत्र को जीवंत बनाना है तो आर्थिक और सामाजिक बराबरी की ओर बढ़ना होगा। हमारी चिंता यह नहीं होती थी कि लोकतंत्र बचेगा या नहीं। 1975 में लगे आपात काल के वक्त यह ख्याल ज़रूर आया था कि अब भारत में लोकतंत्र नहीं बचेगा। लोगों को लगा था कि इंदिरा गांधी शायद चुनाव नहीं कराएंगी, लेकिन यह आशंका निर्मूल साबित हुई। उन्होंने न सिर्फ 1977 में चुनाव कराए बल्कि करीब तीन साल तक सत्ता से बाहर रह कर 1980 में फिर से सत्ता हासिल करने के बाद आपात काल को सही ठहराने और उस दौरान बने उन कानूनों को वापस लाने की ज़िद भी नहीं की, जिन्हें जयप्रकाश नारायण के आंदोलन के कारण पांच दलों के विलय से बनी और सत्ता में आई जनता पार्टी की सरकार ने रद्द कर दिया था। आपातकाल भारतीय लोकतंत्र की अग्नि-परीक्षा था, जिसमें पास होने के बाद यह भरोसा हो गया था कि भारत के लोकतंत्र को कोई नहीं हरा सकता। हम समझने लगे थे कि राजनीतिक दल सत्ता में आएंगे और जाएंगे, वे चुनाव जीतने के लिए धनबल और बाहुबल का इस्तेमाल भी करेंगे तथा लोगों की भावनाएं भड़काने की कोशिश भी करेंगे, लेकिन अंत में उन्हें जनता की बात ही माननी पड़ेगी। टीएन शेषन के कार्यकाल में और उसके बाद चुनाव आयोग ने इतनी शक्ति हासिल कर ली थी कि यह लगने लगा था कि देश जनादेश को असंवैधानिक और अलोकतांत्रिक ढंग से प्रभावित करने की कोशिशें भी बर्दाश्त नहीं करेगा। धार्मिक, सांप्रदायिक और जातिगत भावनाएं उभार कर वोट मांगने के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट ने भी सख्त रवैया अपना लिया था। सवाल है कि क्या आज़ादी के अमृतकाल या कि आजादी के 77वें वर्ष में प्रवेश करते हुए हम यह दावा कर सकते हैं कि हमारा लोकतंत्र अब साबुत और सुरक्षित है? 
इस सवाल के जवाब में हम कुछ समय पहले महाराष्ट्र में हुए सत्ता परिवर्तन और हाल के कुछ वर्षों में मध्य प्रदेश, कर्नाटक, गोवा, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश आदि राज्यों में जनादेश को पलटने या निर्वाचित सरकारों को गिराने के उदाहरण दे सकते हैं। इन सभी राज्यों में बेशुमार पैसे के अलावा राज्यपालों, चुनाव आयोग और केंद्रीय जांच एजेंसियों की मदद से सरकारें गिराई और बनाई गई हैं। कोशिशें राजस्थान और झारखंड में हुई थीं लेकिन नाकाम रहीं। हैरानी और अफसोस की बात यह है कि मीडिया के एक बड़े हिस्से और कुछ हद तक न्यायपालिका ने भी इस प्रवृत्ति को मान्यता दे दी है, जिससे भारतीय लोकतंत्र एक ऐसे कमजोर प्राणी की शक्ल में दिखाई दे रहा हैए जिसके वस्त्र तार-तार हो गए हैं और शरीर बुरी तरह चोटिल होने से लहूलुहान हो गया है। 
भारतीय लोकतंत्र की दुर्गति का सबसे बड़ा सबूत पिछले तीन महीनों से हम सुदूर पूर्वोत्तर के राज्य मणिपुर में देख रहे हैं, जहां हाई कोर्ट के एक निहायत गैर-ज़रूरी आदेश के बाद दो समुदाय आपस में बुरी तरह गुत्थमगुत्था हो गए हैं। तीन महीने से मणिपुर जल रहा है, मर रहा है। सैकड़ों लोग मारे जा चुके हैं। महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार हो रहे हैं और उन्हें नंगा कर के सड़कों पर घुमाया जा रहा है। हजारों घर और सरकारी इमारतें राख के ढेर में तब्दील हो चुकी हैं। हजारों की संख्या में बेघर हो चुके लोग अपनी जान बचाने के लिए जंगलों में छुपे हुए हैं। वहां प्रशासनिक मशीनरी बुरी तरह से ध्वस्त हो चुकी है। यह बात वहां की राज्यपाल भी केन्द्र सरकार को भेजी अपनी रिपोर्ट में बता चुकी हैं और सुप्रीम कोर्ट ने भी हालात की गंभीरता को महसूस करते हुए तीन जजों की निगरानी में स्पेशल जांच दल (एसआईटी) का गठन किया है। इस सबके बावजूद हमारे प्रधानमंत्री वहां जाने के लिए आज तक समय नहीं निकाल पाए हैं। 
मणिपुर के संगीन हालात को लेकर प्रधानमंत्री और उनकी सरकार की निष्ठुरता और बेपरवाही का आलम देखिए: विपक्षी दलों के लाख कहने के बाद भी जब प्रधानमंत्री संसद में आकर मणिपुर पर बोलने को तैयार नहीं हुए तो विपक्ष की ओर से मज़बूर होकर सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया गया। तीन दिन चली बहस के दौरान भी प्रधानमंत्री सदन में मौजूद नहीं रहे। वह सिर्फ उसी समय प्रकट हुए जब उनके बोलने की बारी आई। प्रधानमंत्री ने अपने सवा दो घंटे के भाषण में मणिपुर के हालात पर विपक्षी सदस्यों के सवालों का जवाब देने की बजाय उनके सवालों की खिल्ली उड़ाने के अंदाज़ में कहा कि विपक्ष के प्रस्ताव में कोई इनोवेशन (नयापन) और क्रिएटिविटी (रचनात्मकता) नहीं है। इसे अहंकार और अमानवीयता का चरम ही कहेंगे कि तीन महीने से जल रहे, पिट रहे और मर रहे मणिपुर पर लाए गए प्रस्ताव में देश का प्रधानमंत्री नवीनता और रचनात्मकता तलाश रहा है और उनके इस कथन पर समूचा सत्तापक्ष ठहाके लगाते हुए मेजें थपथपा रहा है।
सहज ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री और सत्तापक्ष का यह निष्ठुरताभरा रवैया देख कर देश के आम लोगों और खास कर मणिपुर के लुटे-पिटे और हर तरह से तबाह हो चुके लोगों के दिलों पर क्या गुजरी होगी। मणिपुर के बाशिंदों को उम्मीद रही होगी कि देश की सबसे बड़ी पंचायत में उनके सवालों पर चर्चा होगी तो प्रधानमंत्री कुछ ठोस आश्वासन देंगे, उनके जख्मों पर मरहम लगाएंगे, लेकिन उन्होंने देखा कि देश का प्रधानमंत्री न तो खुद मणिपुर के बारे में कुछ सार्थक बोल रहा है, और जो बोल रहे हैं उनकी खिल्ली उड़ाते हुए पूरी ढिठाई के साथ तीसरी बार सत्ता में आने का दावा कर रहा है।
हमारे लोकतंत्र के लहूलुहान होने का एक बड़ा नज़ारा हमने और पूरी दुनिया ने हाल के समय में ही दिल्ली की सीमाओं पर एक साल तक चले चले किसान आंदोलन के रूप में भी देखा था। आज़ाद भारत के इतिहास में पहली बार इतनी बड़ी संख्या में जुटे लोगों ने पूरे एक साल तक सत्ता की निष्ठुरता, फरेब और उसके दमनचक्र का अहिंसक मुकाबला किया। इसी तरह नागरिकता संशोधन कानून के बनते वक्त भी देखा गया कि इस विभाजनकारी कानून के खिलाफ दिल्ली के शाहीन बाग में महिलाओं के आंदोलन को बदनाम करने तथा उनकी आवाज़ को दबाने के लिए सरकार ने कैसे-कैसे हीन हथकंडे अपनाए। सत्ता की निर्ममता और ननिष्ठुरता को हमने कोरोना महामारी के चलते देशव्यापी लॉकडाउन के दौरान भी देखा, जब देश के महानगरों और बड़े शहरों से लाखों की संख्या में प्रवासी मजदूर चिलचिलाती गर्मी में भूखे-प्यासे और पैदल ही अपने घरों-गांवों की ओर पलायन को मजबूर हुए। कोरोना महामारी की दूसरी लहर के दौरान उचित इलाज और ऑक्सीजन के अभाव में मारे गए असंख्य लोगों की लाशें जिस गंगा नदी में तैरती हुई देखी गई थीं, बाद में उसी गंगा में और उसके तट पर हमारे प्रधानमंत्री टीवी कैमरों की मौजूदगी में धार्मिक क्रीड़ाएं करते दिखे थे।
आज़ादी के अमृतकाल में उन वजहों की शिनाख्त करना ज़रूरी है, जिनके चलते हमारा लोकतंत्र आज दारुण अवस्था में है। एक चीज तो साफ दिखाई देती है कि देश की अर्थव्यवस्था पर देशी-विदेशी पूंजी का शिकंजा कसने और जल, जंगल तथा जमीन की लूट तेज होने का लोकतंत्र पर हमले से सीधा संबंध है। लोकतंत्र को मजबूत करने वाली संस्थाओं सुप्रीम कोर्ट, चुनाव आयोग, रिजर्व बैंक, सूचना के अधिकार आदि को कमजोर करने की रफ्तार उसी हिसाब से बढ़ी है। मौजूदा सत्ता तंत्र उस राजनीतिक व्यवस्था को खत्म करने में लगा है जो आज़ादी के आंदोलन में उभरे और विकसित हुए श्रेष्ठतम मूल्यों तथा विचारों पर आधारित है। आज़ादी का आंदोलन उपनिवेशवाद, आर्थिक-सामाजिक विषमता तथा सांप्रदायिकता के खिलाफ संघर्ष था। मौजूदा सत्ता-शीर्ष और उसका मार्गदर्शक संगठन इन तीनों बुराइयों को बनाए रखने और चर्चिल के कथन को सही साबित करने के लिए परिश्रम की पराकाष्ठा कर रहा है।