एक-दूसरे को आंक रहे हैं कांग्रेस एवं ‘आप’ वाले


झुकी झुकी सी नज़र बे-करार है कि नहीं,
दबा दबा सा सही दिल में प्यार है कि नहीं।
क़ैफी आज़मी का यह शे’अर इस समय आम आदमी पार्टी तथा कांग्रेस के मध्य चल रही शह-मात के खेल पर पूरी तरह उचित बैठता है क्योंकि हम समझते हैं कि कांग्रेस की वक्ता अलका लाम्बा का बयान राजनीति की शतरंज की एक ऐसी चाल के अलावा कुछ भी नहीं कि कांग्रेस आम आदमी पार्टी की वास्तविक ताकत एवं स्थिति को समझ सके और 2023 में हो रहे मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ तथा राजस्थान के चुनावों में ‘आप’ को कांग्रेस को नुकसान पहुंचाने से रोकने का प्रयास कर सके। अलका लाम्बा बयान देती हैं कि कांग्रेस मल्लिकार्जुन खड़गे, राहुल गांधी, के.सी. वेणुगोपाल तथा दिल्ली कांग्रेस के अध्यक्ष दीपक बाबरिया की उपस्थिति में दिल्ली की सभी सात सीटों पर चुनाव लड़ने की तैयारी करने वाली है। हालांकि इस बयान में कुछ भी गलत नहीं। जब तक सीटों की बांट नहीं हो जाती, समझौता सम्मपन्न नहीं हो जाता, सभी सीटों पर तैयारी रखना स्वाभाविक प्रक्रिया है। परन्तु प्रतीत होता है कि ‘आप’ इस शह पर मात खा गई है और उसने अपने पत्ते दिखा दिये हैं कि उसे दिल्ली में कांग्रेस के साथ समझौते की बहुत ज़्यादा ज़रूरत है। उसके नेताओं का यह बयान कि यदि ऐसा है तो भाजपा विरोधी गठबंधन ‘इंडिया’ में ‘आप’ के शामिल होने का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता, ‘आप’ की घबराहट को साफ प्रकट करता है।     
यहां गौरतलब है कि ‘आप’ राजस्थान, छत्तीसगढ़ तथा मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव लड़ने की घोषणा कर चुकी है। ‘आप’ प्रमुख 18 जून को राजस्थान जाकर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत पर तीव्र हमले कर चुके हैं और 19 अगस्त को छत्तीसगढ़ तथा 20 अगस्त को मध्य प्रदेश जा रहे हैं। 
कांग्रेस को यह एहसास है कि जहां-जहां भी कांग्रेस तथा भाजपा की सीधी टक्कर होती है, और यदि ‘आप’ भी वहां चुनाव मैदान में उतरती है तो उसका आम तौर पर नुकसान कांग्रेस को होता है और लाभ भाजपा को। नि:संदेह दिल्ली तथा पंजाब में वह सरकार बनाने में सफल रही परन्तु इन दोनों स्थानों पर भी कांग्रेस का ही नुकसान अधिक हुआ है। इसलिए हम समझते हैं कि अलका लाम्बा के बयान ने कांग्रेस को दबाव बनाने का एक अवसर दे दिया है और वह 2024  में होने वाले लोकसभा चुनाव के समझौते से पहले इस दबाव से विधानसभा चुनावों में ‘आप’ को एक दायरे में सीमित रखने में सफल रहेगी। उल्लेखनीय है कि स्वयं राहुल गांधी ने भी बयान दिया है कि दिल्ली बिल के मामले पर ‘आप’ का समर्थन ‘सैद्धांतिक’ है। इसे किसी भी तरह ‘आप’ के समर्थन के रूप में नहीं देखा जा सकता। स्पष्ट है कि कांग्रेस चुनाव समझौता अपनी शर्तों पर करना चाहती है ‘आप’ की शर्तों पर नहीं। 
दूरियां सिमटने में देर कुछ लगती तो है,
रंज़िशों को मिटने में देर कुछ लगती तो है।
भीड़ वक्त लेती है रहनुमा परखने में,
कारवां बनने में देर कुछ लगती तो है।    
आम आदमी पार्टी और कांग्रेस का खेल
आम आदमी पार्टी की अब तक की कारगुज़ारी यह एहसास ही दिखाती है कि प्रत्येक स्थान पर उसने कांग्रेस का ही नुकसान किया है और भाजपा की जीत में सहायक बनी है। चाहे यह ‘आप’ की नीयत थी कि नहीं। चाहे अब कांग्रेस को यह एहसास है कि 2023 के विधानसभा चुनाव तथा 2024 के लोकसभा चुनाव में ‘आप’ कांग्रेस तथा ‘इंडिया’ गठबंधन के सहयोग के बिना ‘एकला चलो’ की रणनीति से पंजाब तथा दिल्ली के अलावा कहीं कोई करिश्मा करने के समर्थ नहीं प्रतीत होती, बल्कि दिल्ली में भी भाजपा से लोकसभा सीटें वह कांग्रेस के समर्थन से ही छीन सकती है और पंजाब में भी कांग्रेस ही उसकी सीधी टक्कर में है। ऐसी स्थिति में दोनों पार्टियां चाहे इकट्ठा चलने की सलाह एवं घोषणा कर भी रही हैं, दोनों को एक-दूसरे पर अभी विश्वास करना कठिन लगता है। अदा जाफरी के लफ्ज़ों में—
़गुमां तो क्या यकीं भी वसवसों की ज़द में है,
समझना संग-ए-दर को संग-ए-दर आसां नहीं होता।   
अर्थात ख्याल तो क्या, यकीन तक संदेह के घेरे में है और संदेह में तो पत्थर के दरवाज़े को भी पत्थर का दरवाज़ा समझना मुश्किल प्रतीत होता है, परन्तु वास्तविकता यह है कि इस अविश्वास के आलम में भी दोनों पक्षों को एक दूसरे की ज़रूरत है। ‘आप’ को दिल्ली विधानसभा में 62 सीटें जीत लेने के बावजूद लोकसभा में भाजपा को हराने के लिए कांग्रेस की आवश्यकता है। पंजाब में भी 92 विधानसभा सीटें जीतने के बावजूद स्थिति कुछ ऐसी ही है। नहीं तो दो उप-चुनावों, जिनमें एक में ‘आप’ की जीत हुई और एक में हार, में स्थिति कुछ अलग होती। परन्तु इसके विपरीत कांग्रेस को पहले तो 2023 के विधानसभा चुनावों में ‘आप’ की ज़रूरत है, और फिर 24 में लोकसभा में पंजाब तथा दिल्ली में भाजपा को हराने के लिए और अपने पांव फिर से धरती पर लगाने के लिए तथा पूरे उत्तर भारत, गोवा तथा गुजरात में ‘आप’ की ज़रूरत है।  
दिल्ली विधानसभा चुनाव में ‘आप’ ने 53.57 प्रतिशत वोट लिये थे और कांग्रेस ने सिर्फ 4.2 प्रतिशत परन्तु 2019  के लोकसभा चुनाव में भाजपा सात की सातों सीटें जीती थी, कांग्रेस पांच सीटों पर दूसरे नम्बर पर रही और ‘आप’ सिर्फ दो पर। भाजपा ने 56.86 प्रतिशत वोट लिए थे, कांग्रेस ने 22.50 प्रतिशत तथा ‘आप’ ने 18.11 प्रतिशत वोट ही लिए थे। अब कांग्रेस दिल्ली में पांच लोकसभा सीटें मांगती है, परन्तु ‘आप’ विधानसभा में जीत के आधार पर इसके बिल्कुल विपरीत अपने लिए पांच सीटों की मांग करती है। अंत में समझौता 3-4 या 4-3 के आधार पर होने के आसार हैं। पंजाब में भी विधानसभा में ‘आप’ ने 117 में से 92 सीटों पर जीत हासिल की है। ‘आप’ ने 42.01 प्रतिशत तथा कांगे्रस ने 22.98 प्रतिशत वोट प्राप्त किये, परन्तु लोकसभा में कांग्रेस ने 8 सीटें जीती थी और ‘आप’ ने सिर्फ एक ही सीट पर जीत प्राप्त की थी। लोकसभा में पंजाब में कांग्रेस ने 40.12 प्रतिशत तथा ‘आप’ ने 7.38 प्रतिशत वोट लिये थे।  हमारी जानकारी के अनुसार ‘आप’ पंजाब तथा चंडीगढ़ में 9 सीटें चाहती है और कांग्रेस को पांच देने के बारे में सोच रही है जबकि कांग्रेस उत्तर भारत के दूसरे राज्यों में सीटें छोड़ने के बदले और अपनी लोकसभा में कारगुज़ारी के दम पर अधिक सीटें मांग रही है। सम्भावना है कि यह समझौता 7-7 या 6-8 पर हो सकता है। 
नि:संदेह कांग्रेस ने अलका लाम्बा के बयान से किनारा कर लिया है, परन्तु अलका लाम्बा के बयान की प्रतिक्रिया के बाद ‘आप’ के पानी का गहराई का अनुमान अवश्य लगा लिया होगा। एक और राज्य गुजरात है जहां ‘आप’ और कांग्रेस दोनों यदि समझौता न करें तो उन दोनों की स्थिति काफी खराब हो सकती है। गुजरात में विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 52.5 प्रतिशत वोट लिये थे, कांग्रेस ने 27.28 प्रतिशत तथा ‘आप’ ने 12.9 प्रतिशत। यहां भी दोनों पक्षों को समझौते की आवश्यकता है। वैसे आम आदमी पार्टी यदि ‘इंडिया’ गठबंधन में शामिल रहती है तो आठ राज्यों में ‘इंडिया’ गठबंधन को ‘आप’ से कहीं कम, कहीं अधिक लाभ साफ तौर पर हो सकता है। ये राज्य हैं—पंजाब, दिल्ली, हिमाचल, हरियाणा, गोवा, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान आदि परन्तु यह भी सच्चाई है कि ‘आप’ ने पंजाब तथा दिल्ली से बाहर अपने पांव जमाने हैं तो उसे भी इस गठबंधन की सख्त ज़रूरत है। 
‘आप’-कांग्रेस समझौता और अकाली दल
उपरोक्त शीर्षक हमारे बहुत-से पाठकों के लिए हैरानीजनक होगा, परन्तु हमारे हिसाब से यदि ‘आप’ तथा कांग्रेस में चुनाव समझौता पंजाब में भी हुआ तो इसका प्रत्यक्ष लाभ अकाली दल को होगा, क्योंकि सिख हलकों में अभी भी कुछ वोट ऐसे हैं जो कांग्रेस को नहीं पड़ते, परन्तु विगत समय में वह अकाली दल से निराश हो कर ‘आप’ की ओर गए थे। अब यदि ‘आप’ तथा कांग्रेस में बीच समझौता हुआ तो ऐसे वोट अकाली दल की ओर लौट सकते हैं। दूसरा 2024 तक पंजाब में ‘आप’ के अढ़ाई वर्षों के शासन में बनने वाले व्यवस्था विरोधी वोट भी अकाली दल या भाजपा की ओर झुकेंगे। यदि कोई नया विकल्प न बना और वर्ष के अंत तक अकाली-भाजपा समझौता दोबारा हो गया तो कांगे्रस-‘आप’ के सम्भाविक गठबंधन को सीधी टक्कर देने के आसार बन सकते हैं चाहे वर्तमान हालात में कांग्रेस- ‘आप’ के सम्भावित गठबंधन का हाथ काफी ऊपर दिखाई दे रहा है।
मुस्तकबिल की किरणें भी हैं 
हाल की बोझल ज़ुलमत भी,
तूफानों का शोर है और 
ख्वाबों की शहनाई भी। 
(साहिर लुधियानवी)  
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