हारे चाहे न लेकिन बहुमत ज़रूर खो सकती है भाजपा !

अगर ़गैर-भाजपा राजनीतिक दलों द्वारा गठित ‘इंडिया’ नामक मोर्चे की उससे पहले बन चुके इसी प्रकार के दो मोर्चों से तुलना की जाए तो न केवल इस मोर्चे की कुछ विशेषताएं उजागर हो सकती हैं, बल्कि उनके साथ इसकी सीमाओं का अंदाज़ा भी लग जाता है। यह गठजोड़ 1977 में बनी जनता पार्टी की याद दिलाता है जो आज की भाजपा (जनसंघ) सहित सभी ़गैर-कांग्रेस शक्तियों (कम्युनिस्ट पार्टियों को छोड़ कर) के विलय से गठित हुई थी। लेकिन पार्टी होने के बावजूद इसकी संरचना किसी चुनाव-पूर्व मोर्चे भिन्न नहीं थी। इसी तरह यह नया मोर्चा नब्बे के दशक में अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण अडवाणी द्वारा बनाये गये राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठजोड़ (एन.डी.ए. या राजग) की भी याद दिलाता है। हालांकि भाजपा आज भी इस नाम के एक मोर्चे का नेतृत्व कर रही है, लेकिन यह समानता केवल नाम की ही है। वस्तुत: कल का राजग शक्तिशाली क्षेत्रीय पार्टियों और केन्द्र की राजनीति में अपनी स्थायी जगह बनाने के लिए संघर्षरत भाजपा के मेल-मिलाप का नतीजा था। आज का राजग तो केवल एक बहुत बड़ी और शक्तिशाली पार्टी के केन्द्र के इर्द-गिर्द घूम रहे छुटभैये और तकरीबन ़गैर-महत्वपूर्ण दलों का जमावड़ा ही है।
बहरहाल, हमें देखना यह है कि कल की जनता पार्टी और कल के राजग के बीच क्या समानताएं और विभिन्नताएं हैं। कहना न होगा कि चुनाव की दृष्टि से जनता पार्टी भी सफल थी उस समय का राजग भी। इसलिए भी यह तुलना अहम हो जाती है। जनता पार्टी को गति देने में इंदिरा गांधी के खिलाफ ब़गावत करके आई सी.एफ.डी. (जगजीवन राम और बहुगुणा की कांग्रेस ़फॉर डेमॉक्रैसी) का बहुत बड़ा हाथ था। लेकिन ‘इंडिया’ के पास मोदी से ब़गावत करके आये किसी गुट का न सहयोग है और न ही ऐसा होने की कोई सम्भावना दिखाई दे रही है। जनता पार्टी इंदिरा कांग्रेस के विरोध में इमरजेंसी की ज्यादतियों से निकली ज़बरदस्त एंटीइनकम्बेंसी की लहर पर सवार थी। लेकिन, वोटरों का यह गुस्सा दक्षिण भारत के मामले में बेअसर था। नतीजतन, दक्षिण भारत में कांग्रेस जम कर जीती, लेकिन ब़ाकी भारत में उसका ऐतिहासिक रूप से सूपडा साफ हो गया।
‘इंडिया’ बनाम भाजपा की मौजूदा लड़ाई में इसका ठीक उल्टा है। मोटे तौर पर दक्षिण भारत विपक्ष के साथ है और पिछले लोकसभा चुनाव के नतीजों के अनुसार भाजपा के प्रभाव-क्षेत्र में ब़ाकी भारत के ज्यादातर हिस्से आते हैं। यानी,‘इंडिया’ दक्षिण भारत में आश्वस्त है और बाकी भारत में उसे भाजपा को चुनौती देनी है। भाजपा ‘इंडिया’ को दक्षिण भारत के लिहाज़ से केवल कर्नाटक और तेलंगाना में कुछ चुनौती देने की स्थिति में है। जनता पार्टी के पास कोई चेहरा नहीं था। कांग्रेस के पास था, लेकिन वह उसे न बचा सका। इस बार भी सत्तारूढ़ दल के पास चेहरा है और विपक्षी मोर्चा चेहरे से वंचित है। लेकिन 1977 के उलट सरकारी पार्टी और उसके नेता की लोकप्रियता उस समय की कांग्रेस और उसके नेता की तरह ढलान पर नहीं दिखाई देती। कुल मिला कर भाजपा और मोदी के खिलाफ पिछले दस साल में जमा कुछ नाराज़गियां अवश्य हैं, पर 1977 जैसी ज़बरदस्त सरकार विरोधी भावना नहीं दिखाई पड़ती। 
अगर कल के राजग से तुलना करें तो कुछ और दिखता है। उस राजग के साथ भाजपा की मदद में कांग्रेस से नाराज़ क्षेत्रीय शक्तियां थीं, जो आज के ‘इंडिया’ और उसकी एंकर-पार्टी कांग्रेस के साथ हैं और भाजपा का विरोध कर रही हैं। इस गठजोड़ से बाहर खड़ी दो बड़ी क्षेत्रीय शक्तियां (वाई.एस.आर. कांग्रेस और बीजू जनता दल) भी अंतत: भाजपा के खिलाफ ही चुनाव लड़ेंगी। यानी, उस समय देश की संघात्मकता भाजपा के साथ थी, आज वही संघात्मकता उससे जूझ रही है। 
एक लोकप्रिय चेहरा होना और कोई ़खास एंटीइनकम्बेंसी न होना आज की सत्तारूढ़ पार्टी की बड़ी शक्ति समझी जा रही है। सही भी है। नेता के रूप में व्यक्ति की उपस्थिति होने पर वोटरों को उसे समझने, स्वीकार करने या ़खारिज करने का फैसला लेने में आसानी होती है। अगर व्यक्ति सामने न हो तो वोटर को मोर्चा या गठजोड़ कुछ-कुछ अमूर्त जैसा लगता है। ‘इंडिया’ इस समस्या का समाधान तभी कर सकता है जब वह आने वाले चार-पांच महीनों में धुआंधार प्रचार मुहिम चलाए, वोटरों के बीच अपने अस्तित्व को प्रमाणित करके दिखाए, और भाजपा को वोट न देने वाले मतदाताओं को लगने लगे कि वे ़गैर-भाजपा उम्मीदवार को सरकार बनाने के लिए समर्थन दे रहे हैं। अगर ऐसी छवि प्रोजेक्ट न की जा सकती, तो ‘इंडिया’ को दक्षिण भारत के बाहर लोकसभा चुनाव के संदर्भ में मोदी और भाजपा को बड़ी चुनौती देना मुश्किल हो जाएगा। 
लेकिन, इन प्रकट कमज़ोरियों के बावजूद ‘इंडिया’ में सत्तारूढ़ दल के मन में कुछ गम्भीर अंदेशे और बेचैनियां पैदा करने की क्षमता है। इसका कारण है भाजपा और मोदी के बहुमत के बहुमत की प्रकृति। टीवी पर भाजपा प्रवक्ताओं द्वारा इसे एक सपाटे के साथ ‘प्रचण्ड बहुमत’ या ‘पूर्ण बहुमत’ की संज्ञा दी जाती है। लेकिन इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि यह बहुमत से केवल 31 सीटें अधिक और कुल जमा 37 प्रतिशत से कुछ ही ज्यादा वोटों का बहुमत है। दूसरे, भाजपा की 303 सीटें और वोट का प्रतिशत उसके प्रभाव-क्षेत्र में तकरीबन सौ प्रतिशत नतीजे निकालने पर आधारित है। यानी, भाजपा ने 2019 में उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, राजस्थान, छत्तीसगढ़, हरियाणा, दिल्ली, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश जैसे दस राज्यों की 225 सीटों में से 190 पर जीत हासिल की थी। उत्तर प्रदेश को छोड़ कर बाकी सभी जगह उसका स्ट्राइक रेट करीब सौ प्रतिशत था। 
अगर विपक्षी एकता के कारण भाजपा ने इन प्रदेशों में तीन-तीन चार-चार सीटें भी खोईं तो वह सबसे बड़े दल होने के बावजूद बहुमत से नीचे आ जाएगी। उसे दोबारा सौ प्रतिशत प्रदर्शन की गारंटी करनी होगी, जो एक बहुत मुश्किल काम है। पिछली बार भाजपा के पास बिहार और महाराष्ट्र में मज़बूत क्षेत्रीय शक्तिया थीं, जो इस बार उसके खिलाफ खड़ी हैं। इन प्रदेशों में भी वह अंदेशों का शिकार है। इसी तरह बंगाल में उसने 18 सीटें जीत ली थीं, लेकिन इस बार ममता बनर्जी उसे शायद ही पुराना प्रदर्शन दोहराने दें। 
इन अंदेशों के बावजूद भाजपा सरकार बना सकती है, लेकिन अगर वह 2019 न दोहरा पाई तो उसके बहुमत की प्रकृति तो बदलेगी ही, उसकी सरकार की प्रकृति भी बदल जाएगी। उस सूरत में या तो नरेंद्र मोदी के भीतर से गठजोड़ सरकार चलाने में कुशलता रखने वाले अटल बिहारी का जन्म होगा या भाजपा को कोई दूसरा नेता प्रधानमंत्री पद के लिए तैयार करना पड़ेगा। कहना न होगा कि भाजपा नयी परिस्थितियों में 2019 को दोहराने से भी परे जा सकती है। उस सूरत में 2024 से 2029 के बीच विपक्ष की उपस्थिति केवल औपचारिक रह जाएगी। 
लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।