छापों वाला लोकतंत्र

जन्नू पंडित इठलाते हुए बोले- छापों वाला लोकतंत्र है हमारा जजमान! बुरा नहीं मानना, पंडित का बेटा हूँ, सो थोड़ा-बहुत कुंडली-वुंडली देखने का हक तो बनता ही है न मेरा। मैं चेहरा और चिन्ह देखकर पूरी पार्टी का हाल बता दूं। वैसे दुनिया का माना हुआ भविष्यवक्ता नास्त्रोडम एक बार फेल हो जाए पर मेरी भविष्यवाणी खाली नहीं जाती। 
मेरा व्यापारी दोस्त छापों के बाद से परेशान हाल था। उसने एक बार मेरी तरफ अविश्वास-भाव से देखा, फिर जन्नू पंडित से बोला- महाराज जी, छापों के बाद से मेरे व्यापार की दशा कांग्रेस पार्टी की हालत की तरह एकदम पतली हो गई है। मुझे बताइए, मैं इस संकट से उबर पाऊंगा कि नहीं? यदि उबरूंगा तो कैसे...? 
जन्नू पंडित थोड़ी देर आंख मूंदकर ध्यान लगाये बैठे रहे, फिर एक गंदे से पीले कपड़े में बंधी पोथी खोलकर देखते हुए बोले यजमान, तुम्हारे ऊपर राहू, केतु के साथ शनि की भी वक्र दृष्टि है। तुम इस महासंकट से उबर तो जाओगे पर इसके लिए तुम्हें अपने घर में एक हवन करवाना पड़ेगा। ब्राह्मण भोजन के साथ कुछ दान दक्षिणा मिलाकर कोई चार पांच हजार का खर्च आयेगा। तुम चिंता मत करो, मैं सब विधि-विधान चुटकी बजाते निबटा दूंगा। देखना हफ्ते-पंद्रह दिनों में तुम्हारा व्यापार इसरो के राकेट की तरह कहां से कहां पहुँच जाता है।
मैंने अपने दोस्त का हाथ पकड़कर खींचते हुए कहा- चल यहां से, मुझे कुंडली-वुंडली और इन बेवकूफाना भविष्यवाणियों में कत्तई विश्वास नहीं है। मेरी बात सुनकर गुस्से से बिफरते हुए जन्नू पंडित, ‘एक-एक की कुण्डली खोल दूंगा’ वाली मोदी की स्टाइल में बमके- ‘अरे छोकरे, तू अभी नया-नया राजनीति में आया है तो ज्यादा बांग दे रहा न..। तू मुझे आजमाना चाहता है आं...? आदमी तो आदमी, मैं एक-एक पार्टी का भूत, भविष्य और वर्तमान का कच्चा-चिट्ठा खोल दूं। बोल किसकी खोलूं....?’ उसकी बात सुनकर मैं भी ताव खा गया। मैंने गुर्राते हुए कहा- ‘मैं वामपंथी हूँ। बता मेरी पार्टी के बारे में...बड़ा भविष्य बताने चला है...?’
जन्नू पंडित क्रोध में दुर्वासा ऋषि हो गये। वह लाल-लाल आंखें किये हुए चीखे ‘अरे, तुम वांम-पंथियों के हंसिये-हथौड़े को तो उस तृणमूल वाली बहन जी ने अपनी पार्टी की लहर की भट्ठी में गलाकर कोकाकोला की तरह पी लिया। ...और तुम लोग ...एक बाल भी नहीं उखा? पाए उसका...! ज्यादा मत बोलो, गया जमाना तुम्हारा..। साल-दो साल बाद लोग तुम्हें ढूंढते रह जायेंगे। घर के बड़े-बुजुर्ग अपने बच्चों को बतायेंगे कि राजनीति के मैदान में कभी कोई हंसिया-हथौड़ा भी हुआ करता था।’ 
मैं कहां चुप रहने वाला था मैं भाजपा पर शिवसेना वालों की तरह बमकता हुआ बोला- ‘ऐसे ही टोन में जरा मायावती से बात करके देखना। तब वो बताएगी तुमको...!’ जन्नू दहाड़े- ‘अरे हाट...! वो क्या बताएगी मुझको...? अपने हाथी को चारा खिलाने के लिए तो गांठ में दमड़ी नहीं है उसके पास। देख नहीं रहे हो, उसका हाथी भूख के मारे दिन ब दिन कैसा सिकुड़ रहा है...? चंदे के पैसों और चुनाव के टिकट बेचकर तो बेचारी अपने भाई के साथ ले-देकर अपना घर चला रही है। ऊपर से मोदी का गिराया नोटबंदी बम...! हाय हुसैन हम न हुए की हालत है बेचारी की...!’ 
अब तक जन्नू पंडित के लिए मेरे मन के आदर भाव का, डालर के सामने रूपये की तरह लगातार अवमूल्यन हो रहा था। मैंने कड़े स्वर में सीख देते हुए कहा - ‘ज्यादा मत उड़ो....! साइकिल और हाथी वाले यूपी से हैं। वे मुंह से कम और देसी कट्टे से ज्यादा बात करते हैं।’ इस बार पंडित की त्योरियां चढ़ गईं। समाजवादियों की लाल टोपी के रंग की तरह आंखों में सूर्ख लाल डोरे बिलबिला उठे। वे चीखे- ‘बुला ले उन साइकिल वालों को भी...! आगे-पीछे दोनों चक्के पंचर हो चुके हैं उनके। दरिद्र कहीं के, एक सड़ी सी साइकिल के लिए चचा-भतीजा लंगोट बांधकर सरेआम उठा-पटक कर रहे हैं। बात करता है...!’
मैं भी जन्म से महाजिद्दी और बड़बोला हूं। चुप रहना मैंने भी नहीं सीखा था। मैंने आंखें तरेरते हुए कहा, ‘पंडित, भूल जाओ सब, गया जमाना! अब हाथ वाले भी उसके साथ हैं। वे छूटते ही गुर्राए’ क्या बिगाड़ लेंगे वे आं...। पचास-साठ साल तक गद्दी पर बैठे रहे। इधर झंडे-पोस्टरों में हाथ का निशान चस्पा किया, उधर उसकी आढ़ में हाथ की सफाई दिखलाते रहे। जितने घोटाले हाथ वालों ने किये, इस पर तो एक पुराण लिखा जा सकता है मिस्टर...!’
मेरा व्यापारी मित्र मुंह फाड़े कभी मेरी तरफ देखता एक भी जन्नू पंडित की तरफ। मैंने मन ही मन सोचा कि यार, अजीब पंडित है ये। जिस पार्टी के चुनाव-चिन्ह का जिक्र हो रहा है, उसी की ऐसी तैसी किये जा रहे हैं! हो न हो, ये कहीं भाजपाई तो नहीं...? मैंने उन्हें हलाक करने के लिए अपने तरकश का आखिरी व्यंग्य-बाण चलाते हुए कहा- ‘ओ...तो तुम कमल छपिया हो?’
अचानक वे फट पड़े चोप... एकदम चुप...। मैं कृष्ण मन्दिर का पुजारी.... पंडित जनार्दन त्रिपाठी...! किसी छापे वापे का मोहताज नहीं हूँ। गीतावाले कन्हैया का दास हूं। अपनी मस्ती में रहता हूँ खरी-खरी कहता हूँ। जिस कमल की तुम बात कर रहे हो न, उसके सरोवर का पानी सांप्रदायिकता की गर्मी से सूख रहा है। (अदिति)