विधानसभा चुनावों में आमने-सामने होंगे ‘इंडिया’ के घटक दल

‘इंडिया’ गठबंधन के गठन के पश्चात ही सवाल खड़े होने शुरू हो गये थे, क्योंकि यह गठबंधन सिर्फ  मोदी विरोध पर आधारित था। इस गठबंधन को बनाने वाले नेताओं ने समान विचारधारा या कार्यक्रम की बात नहीं की बल्कि यह कहा कि वे मोदी को सत्ता से हटाना चाहते हैं, इसलिए गठबंधन बनाया जा रहा है। गठबंधन की सबसे बड़ी समस्या यह है कि विपक्ष मोदी को हटाना चाहता है लेकिन उसे यह नहीं पता है कि क्यों हटाना है। अपने आपसी हितों के टकराव के बावजूद ये दल इकट्ठे हो गये क्योंकि इन्हें मोदी को सत्ता से बेदखल करना है।
विधानसभा चुनावों की घोषणा के बाद गठबंधन की कलह सामने आ गई है। भाजपा से लड़ने चले गठबंधन के सहयोगी दलों ने एक-दूसरे से लड़ना शुरू कर दिया है। वास्तव में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) के मुकाबले पहले ही संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) के रूप में एक गठबंधन  मौजूद था। सवाल पैदा होता है कि जब कांग्रेस के पास पहले ही एक गठबंधन था तो उसने नया गठबंधन क्यों बनाया?  ऐसा लगता है कि कांग्रेस को महसूस हुआ कि संप्रग इतना ताकतवर नहीं है कि वह राजग का मुकाबला कर सके। कांग्रेस ने देखा कि राजग और संप्रग से अलग एक नया गठबंधन बन रहा है। उसके बनने से पहले ही कांग्रेस ने एक बड़ा गठबंधन बनाकर तीसरे गठबंधन का रास्ता ही बंद कर दिया।   नितीश कुमार, ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल, अखिलेश यादव और केसीआर मिलकर एक तीसरा मोर्चा बनाने की ओर बढ़ रहे थे लेकिन कांग्रेस ने इनको नये गठबंधन में शामिल करके तीसरे मोर्चे की संभावना को खत्म कर दिया। इस गठबंधन की ताकत ही उसकी कमज़ोरी बन गई है। संप्रग में आपसी कलह नहीं थी, लेकिन नये गठबन्धन में इतने विरोधाभास हैं कि इसका आगे बढ़ना मुश्किल हो गया है। तीन-तीन बैठकें करके भी यह गठबंधन कुछ तय नहीं कर पाया है । 
गठबंधन के घटक दल मिलकर नहीं चल पा रहे हैं, लेकिन उसको छोड़ने से भी डर रहे हैं। कोई भी दल गठबंधन को कमज़ोर करने का आरोप अपने ऊपर नहीं लगवाना चाहता। ये दल भाजपा को हराने के लिये निजी हितों का त्याग करने की कसम खा रहे थे। अब यह सच्चाई सामने आ गई है कि त्याग तो सभी दल चाहते हैं, लेकिन त्याग करना है तो दूसरा करे।   मध्य प्रदेश ने साबित कर दिया है कि यह गठबंधन स्वार्थों पर आधारित है। केजरीवाल ने बिना कोई बात किये मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में अपने उम्मीदवार उतार दिए हैं। नितीश कुमार की जेडीयू ने भी मध्य प्रदेश ने अपने उम्मीदवार उतारने की घोषणा कर दी है। अखिलेश यादव ने मध्य प्रदेश में कांग्रेस से सीट बंटवारे की बात की तो कांग्रेस उनके नेताओं के साथ बैठक करने हेतु राज़ी हो गई, लेकिन दूसरे दिन कांग्रेस ने समाजवादी पार्टी के दावे वाली सीटों पर अपने उम्मीदवारों की घोषणा कर दी। अखिलेश यादव कांग्रेस के इस धोखे से बौखला गये। वह कह रहे हैं कि अगर गठबंधन सिर्फ  लोकसभा के लिये था तो हमें बताना चाहिए था। अब वह कितनी सीटों पर उम्मीदवार उतारेंगे, कहा नहीं जा सकता। भाजपा के खिलाफ  मिलकर लड़ने की घोषणा करने वाले गठबंधन के चार दल मध्य प्रदेश में एक-दूसरे के खिलाफ  ताल ठोकेंगे। राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी कांग्रेस को गठबंधन के दलों का सामना करना पड़ सकता है। विधानसभा के चुनाव गठबंधन की पहली परीक्षा हैं, लेकिन यह अपनी पहली परीक्षा में विफल होता नज़र आ रहा है। 
अगर गठबंधन के नेताओं की बात मान ली जाए कि यह गठबंधन सिर्फ  लोकसभा के लिए बना है तो क्या विधानसभा चुनावों के दौरान चल रहे  झगड़े की अनदेखी की जा सकती है। राज्यों में अलग-अलग चुनाव लड़ना गलत नहीं कहा जा सकता, लेकिन घटक दलों को एक-दूसरे के खिलाफ बयानबाज़ी नहीं करनी चाहिए थी। छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस की सरकार है, इसलिए गठबंधन के दूसरे दल वहां भाजपा नहीं बल्कि कांग्रेस के खिलाफ  ही चुनाव अभियान चलाएंगे। पिछले दिनों छत्तीसगढ़ में केजरीवाल ने चुनाव अभियान के दौरान कांग्रेस की सरकार को जम कर कोसा। दूसरे दल भी इससे कुछ अलग करने वाले नहीं हैं। विपक्षी दलों को सोचना चाहिए कि वे ऐसा करके जनता को क्या संदेश दे रहे हैं। भाजपा पर ये दल जो आरोप लगा रहे हैं, वही आरोप वे अपने गठबंधन के साथी दलों पर भी लगा रहे हैं।  वैसे गठबंधन विधानसभा चुनावों के बाद ही होना चाहिए था। कांग्रेस ने गठबंधन तो बना लिया है लेकिन वह चाहती है कि इसकी रूपरेखा विधानसभा चुनावों के बाद ही तय की जाए। वास्तव में वह इन चुनावों में अपनी ताकत को तोलना चाहती है। अगर वह दो या दो से ज्यादा राज्यों में जीत दर्ज कर लेती है तो उसके मोल-भाव की ताकत बढ़ जायेगी। 
कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व ने बेशक केजरीवाल को गठबंधन में शामिल कर लिया हो लेकिन कई राज्यों के स्थानीय कांग्रेस नेता अभी भी आम आदमी पार्टी का विरोध कर रहे हैं। आम आदमी पार्टी में भी कांग्रेस को लेकर यही धारणा हैं। वास्तव में ज्यादातर विपक्षी दल जिस जमीन पर खड़े हैं, वह उन्होंने कांग्रेस से ही छीनी है। कांग्रेस उस ज़मीन को वापिस पाने का रास्ता ढूंढ रही है और इसका एहसास विपक्षी दलों को अच्छी तरह से है। इसलिए वे कांग्रेस को ऐसा कोई मौका नहीं देना चाहते जिससे कांग्रेस दोबारा उसी ताकत से खड़ी हो सके। दूसरी तरफ  कांग्रेस को भी डर है कि अगर वह विपक्षी दलों को मौका देगी तो वे उसकी और ज़मीन छीन सकते हैं। इस तरह से देखा जाए तो गठबंधन के घटक दल एक-दूसरे से ही डरे हुए हैं। वे मोदी से तो लड़ना चाहते हैं लेकिन इस सच्चाई को भी जानते हैं कि स्थायी रूप से राजनीति में कोई दोस्त और दुश्मन नहीं होता। (युवराज)