क्या सुप्रीम कोर्ट चुनावी बांड्स को पारदर्शी बना सकेगी ?

चुनावी बांड्स की वैधता के प्रश्न पर सुप्रीम कोर्ट में जो सुनवायी चल रही थी, उसके अंतिम दिन (2 नवम्बर 2023) दो महत्वपूर्ण अधिकारों का टकराव सामने आया, जिसका समाधान संभवत: उस फैसले में देखने को मिलेगा, जिसे फिलहाल अदालत ने सुरक्षित रखा है, चुनाव आयोग से यह कहते हुए कि वह दो सप्ताह के भीतर बंद लिफाफे में उन दानकर्ताओं की विस्तृत जानकारी दे, जिन्होंने 2018 से अब तक पंजीकृत राजनीतिक पार्टियों को दान दिया है और साथ में चुनावी बांड्स के ज़रिये दिए गये दान का भी विवरण हो। गौरतलब है कि चुनावी बांड्स के माध्यम से गोपनीय दान देने का सिलसिला 2018 में ही आरंभ हुआ था, जब कम्पनीज़ एक्ट, इन्कम टैक्स एक्ट, जनप्रतिनिधि कानून और आरबीआई एक्ट में संशोधन किया गया था। चुनावी बांड्स का प्रयोग अधिकतर कॉर्पोरेट घरानों ने ही किया है। इस विवादित सुविधा से दो महत्वपूर्ण अधिकारों के बीच टकराव हो गया है—एक, मतदाताओं का जानने का अधिकार कि राजनीतिक फंडिंग का स्रोत क्या है ताकि चुनावी प्रक्रिया को पारदर्शी बनाना सुनिश्चित किया जा सके और दूसरा, कम्पनियों का निजता (प्राइवेसी) व गोपनीयता का अधिकार कि वह अपनी मज़र्ी से किस राजनीतिक पार्टी को फण्ड करना चाहती हैं। 
सुप्रीम कोर्ट में अनेक याचिकाओं के ज़रिये चुनावी बांड्स को इस आधार पर चुनौती दी गई थी कि राजनीतिक दलों की फंडिंग के स्रोत को गुप्त रखना मतदाताओं के जानने के अधिकार का उल्लंघन है। इस पर अपना फैसला सुरक्षित रखने से पहले भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़, न्यायाधीश संजीव खन्ना, न्यायाधीश भूषण आर. गवई, न्यायाधीश जे.बी. पारदीवाला और न्यायाधीश मनोज मिश्रा की खंडपीठ ने चुनाव आयोग के इस दृष्टिकोण को रद्द कर दिया कि 12 अप्रैल, 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने केवल 2019 के दानकर्ताओं के बारे में विवरण एकत्र करने के लिए आदेश दिया था। ध्यान रहे कि 12 अप्रैल, 2019 को चुनावी बांड्स जारी करने पर रोक लगाने से इन्कार करते हुए सभी राजनीतिक दलों को निर्देश दिया था कि उन्होंने चुनावी बांड्स के ज़रिये जो दान लिया है, उसकी जानकारी बंद लिफाफे में चुनाव आयोग को दें और यह भी कि दानकर्ता कौन है, किस बैंक खाते से कितना दान दिया गया और किस तारीख को क्रेडिट किया गया था? 
चुनाव आयोग के वकील अमित शर्मा ने 12 अप्रैल, 2019 के आदेश के एक पैराग्राफ पर अदालत का ध्यान आकर्षित किया कि केवल 2019 का डाटा देने के लिए कहा गया था। इस स्पष्टीकरण को सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए ठुकरा दिया कि आदेश में डाटा एकत्र करने की कोई समय सीमा नहीं दी गई थी। खंडपीठ के अनुसार, ‘हमारा अंतरिम आदेश निरन्तर परमादेश है। चुनाव आयोग को चुनावी बांड्स के जारी होने व राजनीतिक पार्टियों द्वारा कैश कराने के बाद दानकर्ताओं का डाटा एकत्र करना चाहिए था। अगर उसे कोई शक था, तो उसे सुप्रीम कोर्ट के पास स्पष्टीकरण के लिए आना चाहिए था।’ चुनावी बांड्स स्टेट बैंक ऑफ इंडिया द्वारा जारी किये जाते हैं, जिसे यह अधिकार आरबीआई एक्ट में संशोधन करके दिया गया, जिसके तहत आरबीआई बेयरर बांड्स जारी करने की एकमात्र अधिकारी है। बेयरर बांड्स चुनावी बांड्स जैसे ही होते हैं। अपनी ईमानदारी दिखाने के लिए केंद्र ने सोलिसिटर जनरल तुषार मेहता के ज़रिये कहा कि अगर अदालत की यह इच्छा है तो वह निर्देश जारी कर सकता है कि एसबीआई की जगह केवल आरबीआई को चुनावी बांड्स जारी करने का अधिकार होगा।
बहरहाल, सरकार अब चाहती है कि नागरिकों के जानने के अधिकार को निजता के अधिकार से संतुलित किया जाये। अगर नागरिकों को यह जानने का हक है कि राजनीतिक पार्टियां को किस तरह से फंडिंग हो रही हैं तो दानकर्ताओं को भी यह अधिकार है कि उनके सियासी झुकाव की प्राइवेसी बनी रहे। पुत्तास्वामी केस में सुप्रीम कोर्ट ने निजता के अधिकार को मौलिक अधिकारों में शामिल किया था। इसी का हवाला देते हुए तुषार मेहता ने कहा, ‘कोई अधिकार पूर्ण व बिना शर्त नहीं होता है। जानने का अधिकार भी अपवाद नहीं है। जानने के अधिकार को निजता के अधिकार से संतुलित किया जाये। राजनीतिक अभिव्यक्ति अपनी पसंद की पार्टी या प्रत्याशी के लिए चाहे मतदान के ज़रिये हो या दान के माध्यम से, वह निजता के दायरे में आती है, जिसके सम्मान की सरकार पर संवैधानिक ज़िम्मेदारी है। इसलिए प्राइवेसी के क्षेत्र में हस्तक्षेप करने के लिए कोई आवश्यक हित प्रदर्शित करना आवश्यक है।’
इसका अर्थ यह है कि सरकार चुनावी फंड्स के स्रोतों को गुप्त ही रखना चाहती है। इस सिलसिले में सुप्रीम कोर्ट का क्या फैसला होगा, यह तो फैसला आने के बाद ही मालूम हो सकेगा, लेकिन फिलहाल वह इस बात से सहमत प्रतीत नहीं होता कि निजता के पर्दे में मतदाता को यह जानने का अधिकार नहीं कि सियासी दलों के पास पैसा कहां से आ रहा है, उसका कहना है, ‘(दानकर्ता) कौन है, इस बारे में हर कोई जानता है, पार्टी जानती है। केवल एक व्यक्ति जो इस जानकारी से वंचित है, वह मतदाता है। आपका यह कहना कि मतदाताओं को यह जानने का अधिकार नहीं ...थोड़ा कठिन है। ...वर्तमान व्यवस्था में जो कम्पनी घाटे में चल रही है, वह भी दान कर सकती है... इससे यह आरोप मज़बूत होते हैं कि राजनीतिक पार्टियों को दान देने के लिए बड़े कॉर्पोरेट घराने फर्जी (शैल) कम्पनियों का प्रयोग कर रहे हैं। ...सत्ता केन्द्रों के बीच चुनावी बांड्स कुछ के लिए कुछ वैध करने का माध्यम नहीं बनना चाहिये। ...आप एक अन्य व्यवस्था डिज़ाइन करें जिसमें इस व्यवस्था की खामियां मौजूद न हों। ...वर्तमान व्यवस्था अपारदर्शिता व अस्पष्टता को प्रोत्साहित करती है, जिसे दूर किया जाना चाहिए। यह कैसे होगा, इसे सरकार या लेजिस्लेचर को तय करना है।’
सुप्रीम कोर्ट की इन टिप्पणियों से ज़ाहिर होता है कि वह चुनावी बांड योजना में सुधार चाहता है। इसलिए उसने केंद्र सरकार से मालूम किया है कि क्या वह कम्पनीज एक्ट में संशोधन करेगी कि राजनीतिक फंडिंग के लिए कम्पनी अपने लाभ का केवल निर्धारित अंश तक ही दान कर सकती है? दरअसल, सुप्रीम कोर्ट चुनावी व्यवस्था में काले धन के प्रयोग पर अंकुश लगाने का इच्छुक है। इसलिए वह केवल लाभ अर्जित करने वाली कम्पनियों को ही चुनावी दानकर्ता के रूप में देखना चाहता है यानी शैल कम्पनियों के ऑपरेशन पर वह विराम लगाना चाहता है। चुनावी व्यवस्था को बेहतर बनाने के लिए उसने पांच बिन्दुओं पर विचार करने का सुझाव दिया है—चुनावी व्यवस्था में नकद के प्रयोग को कम किया जाये, लेन-देन अधिकृत बैंकिंग चैनलों के ज़रिये ही हो, इस प्रकार के लेन-देन को प्रोत्साहित किया जाये, पारदर्शिता हो और किकबैक व कुछ के लिए कुछ के चलन को खत्म किया जाये। 
चुनावी फंडिंग में पारदर्शिता निश्चित रूप से होनी चाहिए। इससे निजता के अधिकार की दुहाई देकर नहीं बचा जा सकता क्योंकि मतदाता को यह मालूम होना चाहिए कि राजनीतिक पार्टी के पास पैसा कहां से आ रहा है, विशेषकर इसलिए कि सत्ता में आने के बाद पार्टियां अक्सर अपने दानकर्ताओं के हित में योजनाएं बनाती हैं, जिसका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रभाव मतदाताओं पर ही पड़ता है। उम्मीद है सुप्रीम कोर्ट अपने फैसले में इस बात पर गौर करेगा।


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