जन-आंदोलनों से घबराती हैं सरकारें

क्या जनांदोलनों से इस देश की राजनीति बदली जा सकती है? इस प्रश्न का उत्तर यह पता लगाने से मिल सकता है कि लोकतंत्र में सरकार आंदोलनों के लिए कितनी गुंजाइश छोड़ती है। कुछ समाज-वैज्ञानिकों ने इस प्रश्न पर ़गौर किया है। उनके अध्ययनों से नतीजा निकलता है कि लोकतंत्र के नाम पर स्वयं आंदोलन करके सत्ता में आई पार्टियां आंदोलन-विरोधी साबित होती रही हैं। कांग्रेस उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन करके सत्ता में आई थी। भाजपा रामजन्मभूमि आंदोलन की पैदाइश है। उसे भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का भी लाभ मिला है। लेकिन ये दोनों पार्टियां सत्ता संभालते ही आंदोलनों के विरोध में बोलते और योजना बनाते हुए देखी जा सकती हैं। 
शालिनी शर्मा ने ‘ये आज़ादी झूठी है!’ : शेपिंग ऑ़फ द अपोज़ीशन इन द ़फर्स्ट इयर ऑ़फ द कांग्रेस राज’ शीर्षक से किये गये अनुसंधान में तथ्यात्मक दृष्टि से इस पैटर्न का शुरुआती ़खाका पेश किया है। इस शोध में निजी पत्राचार, सार्वजनिक वक्तव्यों और अन्य दस्तावेज़ों की मदद से दिखाया गया है कि चाहे कम्युनिस्ट हों, समाजवादी हों, हिंदुत्ववादी संगठन हों या मुस्लिम लीग का बचा-खुचा नेतृत्व हो— कांग्रेस ने सत्ता में आते ही सभी की खुफिया निगरानी शुरू करवा दी। वल्लभभाई पटेल का विचार था कि कांग्रेस के नेतृत्व में चलने वाली राष्ट्रनिर्माण की प्रक्रिया या नये भारत के निर्माण को समर्थन न देने वाले गद्दार से कम नहीं हैं। चूंकि आज़ादी के आंदोलन का नेतृत्व कांग्रेस ने किया है, इसलिए उसका विरोध करने वाले देश की आज़ादी को अस्थिर करने वाले समझे जाने चाहिए। 
इसी तज़र् पर आज़ादी के दस दिन पहले गोविंद वल्लभ पंत का कहना था कि ऐसे लोगों को राष्ट्रद्रोही घोषित करके उनके मुंह पर कालिख पोत देनी चाहिए। नेहरू, पटेल और अन्य कांग्रेसी नेताओं द्वारा कम्युनिस्टों और अन्य वामपंथियों की निष्ठाओं को देश के बाहर केंद्रित बताना एक आम बात थी। मज़दूर आंदोलन के सवाल पर कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व उद्योगपतियों और श्रमिकों के बीच किसी भी तरह के संघर्ष का खुला विरोधी था। पटेल द्वारा हड़ताली मज़दूरों को ‘टेररिस्ट’ करार देने, और नेहरू द्वारा आंदोलनकारी छात्रों और मज़दूरों में अनुशासन की कमी के प्रति चिंता जताने जैसे वक्तव्य आज़ादी के पहली साल के राजनीतिक रोज़नामचे में आसानी से देखे जा सकते हैं। इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट एक्ट और निवारक नज़रबंदी ़कानून इसी अवधि की देन हैं जिनका मुख्य म़कसद जनांदोलनों के विरोध में सरकार की दमनकारी बांह को और शक्ति देना था। कुल मिला कर कांग्रेस के नेताओं का आग्रह था कि धरना, प्रदर्शन और हड़ताल अंग्रेज़ी राज में ठीक थे। अब अपनी सरकार आ गई है, इसलिए इन उपायों का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। इतिहासकार दीपेश चक्रवर्ती ने अपनी एक रचना में दिखाया है कि स्वतंत्रता के बाद नये सत्ताधारियों ने अचानक किये जाने वाले प्रदर्शनों, सत्याग्रहों और हड़तालों को सीमित करने की भरपूर कोशिश की। कांग्रेसी वक्तव्यों में ‘सत्याग्रह’ के आंदोलनकारी औज़ार की स्वातंत्र्योत्तर वैधता पर विशेष तौर से सवालिया निशान लगता हुआ दिखता था।
कहना न होगा कि 2014 में आयी नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार भारतीय राजनीतिक संस्कृति में गहराई से उतर चुकी अवज्ञा की संस्कृति से अच्छी तरह वाक़िफ थी। उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन की प्रतिष्ठा से सम्पन्न होने के बावजूद नेहरू के नेतृत्व वाली भारत की पहली सरकार को भी इस अवज्ञा का सामना करना पड़ा था। सत्ता के केंद्रीकरण और मीडिया के ज़रिये शक्तिशाली हुई इंदिरा गांधी की दुर्गति भी अवज्ञा के इसी स्वर के कारण हुई थी। नेहरू से भी ज्यादा बड़ा जनादेश प्राप्त करने वाले राजीव गांधी का भी कुछ ऐसा ही हश्र हुआ था। इस सबसे ऊपर मोदी सरकार यह कैसे भुला सकती थी कि स्वयं उसका वजूद दो बड़े अवज्ञाकारी आंदोलनों का परिणाम था। इनमें से एक था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा पंद्रह साल तक चलाया गया रामजन्मभूमि आंदोलन जिसकी सफलता चुनी हुई सरकारों से लेकर सुप्रीम कोर्ट के आदेशों तक की परवाह न करने पर आधारित थी। यह आंदोलन देश भर में कई बार साम्प्रदायिक हिंसा को बढ़ावा देता हुआ भी दिखा। भाजपा के संगठक के रूप में स्वयं मोदी भी इस आंदोलन में भागीदारी थे। 
दूसरी अवज्ञाकारी जन-गोलबंदी थी। 2011 से 2013 के बीच में चला भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन जिसके कारण कांग्रेस के नेतृत्व वाली तत्कालीन सरकार की साख तार-तार हो गई थी। इस आंदोलन में शुरुआत से ही संघ परिवार विवेकानंद फाउंडेशन के ज़रिये, भाजपा के शहरी समर्थकों द्वारा रामलीला मैदान और जंतरमंतर के धरनों में भीड़ बढ़ाने के ज़रिये, या मुहल्लों-बस्तियों में मोमबत्ती-प्रदर्शन करने के ज़रिये भागीदारी कर रहा था। इस आवेगपूर्ण राजनीति के कारण बने कांग्रेस विरोधी माहौल का सर्वाधिक लाभ 2013 के बाद नरेंद्र मोदी की चुनावी मुहिम को मिला। मोदी और उनके रणनीतिकारों ने अवज्ञाकारी राजनीति के इन प्रकरणों से पूरा लाभ उठा चुकने के बाद तय किया कि वे इस तरह के राजनीतिक प्रतिरोध से हो सकने वाले नुकसान से बचने की पूरी पेशबंदी करेंगे। इसलिए सत्ता में आते ही सरकार ने शुरुआत से ही चार बातें सुनिश्चित कीं। 
पहली, सत्ता में पहला ़कदम रखते ही प्रधानमंत्री ने संविधान को ‘पवित्र ग्रंथ’ घोषित कर दिया। इस घोषणा में एक विडम्बना निहित थी। प्रधानमंत्री की राजनीतिक शिक्षा-दीक्षा एक ऐसी संस्कृति में हुई थी जो शुरू से ही संविधान को स्वीकार करने से न केवल कतराती थी, बल्कि आलोचना करते हुए बुलंद आवाज़ में उसे ़खारिज करने की हद तक चली जाती थी। मोदी से पहले भाजपा के पहले प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने तो संविधान को बदलने के लिए उसकी समीक्षा करने हेतु एक आयोग तक बना डाला था। अपने राजनीतिक इतिहास के इन पहलुओं को ठंडे दिमाग से नज़रंदाज़ करने के पीछे एक कुशल रणनीति थी। चूंकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन की विरासत से वंचित था, इसलिए भारतीय राष्ट्रवाद के इस प्रमुख आयाम से वह अपना ताल्ल़ुक केवल परले दर्जे की संविधानपरस्ती के ज़रिये ही कायम कर सकता था। इसी कारण से मोदी सरकार ने संविधान के साथ अपने संबंधों को उत्तरोत्तर प्रगाढ़ करने का व्यवस्थित उद्यम किया। अक्तूबर, 2015 में केन्द्र सरकार ने 26 नवम्बर को संविधान दिवस मनाने का ़फैसला किया। 1949 के इसी दिन संविधान सभा ने संविधान के अंतिम मसविदे पर अपनी मुहर लगाई थी। 2018 में भाजपा के विचारधारात्मक सरपरस्त और संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने स्पष्ट रूप से घोषणा की कि संविधान को बदलने में संघ की कोई दिलचस्पी नहीं है, ‘संविधान के अनुशासन का पालन करना सबका कर्तव्य है। संघ इसको पहले से मानता है। अभी तक मैंने जो बोला है। हम स्वतंत्र भारत के सब प्रतीकों का और संविधान की भावना का पूर्ण सम्मान करके चलते हैं। हमारा संविधान भी ऐसा प्रतीक है। शतकों के बाद हमें फिर से अपना जीवन अपने तंत्र से खड़ा करने का म़ौका मिला। उसके बाद हमारे देश के मूर्धन्य लोगों ने, विचारवान लोगों ने एकत्रित आकर विचार करके संविधान का निर्माण किया है, वह ऐसे ही नहीं बना। जिन विचारवान लोगों ने इस संविधान का निर्माण किया, उन्होंने उसके एक-एक शब्द पर बहुत मंथन किया और सर्वसहमति उत्पन्न करने के पूर्ण प्रयास के बाद बनी सहमति के बाद यह संविधान बना।’
दूसरी, सार्वजनिक जीवन के विमर्श को मीडिया के ज़रिये नियंत्रित करते हुए ‘प्रतिरोध की राजनीति’ के सभी रूपों की वैधता पर सवालिया निशान लगाने की शुरुआत कर दी गई। इसके लिए ज़रूरी था कि सरकारी पार्टी स्वयं अपने आंदोलनकारी इतिहास को विस्मृत करने का प्रयास करती। ऐसा ही किया गया। न केवल रामजन्मभूमि आंदोलन को फिर से जिलाने की किसी भी कोशिश को प्रधानमंत्री व्यक्तिगत रूप से हतोत्साहित करते नज़र आए, बल्कि उन्होंने संघ परिवार के ऐसे अन्य संगठनों (भारतीय किसान संगठन, भारतीय मज़दूर संघ, स्वदेशी जागरण मंच वगैरह) की गतिविधियों पर एक भीतरी रोक लगवा दी जो अटल बिहारी सरकार के ज़माने में सरकारी नीतियों की आलोचना और सांकेतिक किस्म के आंदोलनकारी कार्यक्रमों के लिये जाने जाते थे। अपने भीतर से उठ सकने वाले विरोध को ठंडा करवाने के बाद सरकार और उसके समर्थक उत्साह से संसदीय विपक्ष की राजनीतिक पहल़कदमियों से लेकर नागरिक समाज की ़गैर-पार्टी शक्तियों के कार्यक्रमों को देशहित के लिए प्रतिकूल बताने में जुट गए। एन.आई.टी.आई. आयोग के सी.ई.ओ. अमिताभ कांत द्वारा भारत में कुछ ज्यादा ही लोकतंत्र होने का अ़फसोस व्यक्त करने वाला ताज़ा वक्तव्य इसका बड़ा सबूत है। मीडिया-नियंत्रण की एक अनौपचारिक सरकारी योजना बनाई गई जिसके 97 पृष्ठीय दस्तावेज़ के पीछे सरकार के नौ वरिष्ठ मंत्रियों द्वारा 14 जून से 9 जुलाई, 2021 तक हुई छह बैठकों में हुआ विचार-विमर्श था। 

(इस विश्लेषण की दूसरी किश्त अगले अंक में पढ़ें) 
लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।