दीपावली की कुछ कथाएं

भारत वर्ष की पुण्य पावन धरती पर विभिन्न पर्व, उत्सव और त्यौहारों का आयोजन समय-समय पर होता रहता है। ये उत्सव हमारे प्राचीन सांस्कृतिक गौरव और नयी परम्परा को दर्शाते हैं।
भारत में एक अनूठा उत्सव मनाया जाता है, जो पांच दिन तक चलता है और महीने भर पहले से ही इसकी तैयारियां शुरू हो जाती हैं। यह उत्सव है दीपावली। इसे दीपोत्सव भी कहा जाता है।
शरदकाल में कार्तिक कृष्ण अमावस्या को दीपावली पर्व प्राचीन काल से मनाया जाता रहा है। दीपावली पर रात्रि में धन की देवी मां लक्ष्मी का पूजन किया जाता है। मिट्टी के दीपकों में बाती जलाकर रोशनी की जाती है। पड़ोसी लोगों व संबंधियों के घर पर ये दीपक भेजे जाते हैं। एक-दूसरे के घर दीपक भेजना खुशियाें का प्रतीक है। धूम धड़ाका, आतिशबाजी और रोशनी से काली अंधियारी रात में भी धरती जगमगा उठती है।
इस त्यौहार के मनाये जाने के संबंध में विभिन्न मत प्रचलित हैं किन्तु उन सब मतों में सर्वाधिक मान्यता प्राप्त मत है श्री राम की अयोध्या वापसी।
दीपावली पर्व लक्ष्मीपूजा का पर्व भी माना जाता है। लक्ष्मी पूजन ही दीपावली उत्सव की मुख्य विशेषता है। ऐसी भी कथा प्रचलित है जिसके अनुसार कार्तिक माह में इसी दिन समुद्र मंथन से लक्ष्मी जी निकली थीं। कथा के अनुसार कार्तिक पूर्णिमा के दिन देवतागण भोग विलास में डूबे हुए थे। यह देख लक्ष्मी जी अपने पिता के घर समुद्र में चली गईं। इससे देवताओं की स्थिति दरिद्रतापूर्ण हो गयी। देवताओं ने असुरों के सहयोग से समुद्र मंथन किया। उस समुद्र मंथन से 14 रत्न प्राप्त हुए।
समुद्र मंथन से प्राप्त चौदह रत्न क्र मश: इस प्रकार थे- कौस्तुभ मणि, ऐरावत, उच्चेश्रवा, कल्पवृक्ष, रम्भा, विष, धन्वन्तरि, वारुणि, कामधेनु, चन्द्रमा, लक्ष्मी, पारिजात वृक्ष, अमृत, शंख। इससे देवताओं को पुन: श्रीलक्ष्मी प्राप्त हुई और उनकी सुख समृद्धि पुन: लौट आयी। इस खुशी में दीप जलाकर उत्सव मनाया गया। कहा जाता है तभी से दीपावली पर्व की धार्मिक मान्यता है।
विद्धान लोग विष्णु पुराण का संदर्भ देते हुए एक अन्य कथा प्रस्तुत करते हैं, जिसके अनुसार दीपावली पूजन राजा बलि की दानशीलता की स्मृति में किया जाता है।
दैत्यराज बलि ने अपनी शक्ति से तीनों लोकों पर शासन हासिल कर रखा था। देवता आतंकित होकर विष्णु के पास गये। वामन रूप धारण कर विष्णु बलि से भिक्षा लेने पहुंचे और तीन पग भूमि दान में मांगी। दानवीर राजा बलि ने उन्हें पहचान लिया। फिर भी तीन पग भूमि लेने को कह दिया। विष्णु ने दो पग में तीनों लोक नाप लिये और जब तीसरा पग नापने हेतु भूमि मांगी तो बलि ने स्वयं को ही इस हेतु प्रस्तुत किया। विष्णु प्रसन्न हो गये और उन्हें पाताल लोक का स्वामी बना दिया। उन्होंने बलि को वरदान दिया कि आज के दिन जो भी अपने घर दीपक जलाएगा, उसके घर धनदेवी लक्ष्मी का आगमन होगा। इसी कारण दीपावली पर्व मनाते हुए लक्ष्मी आगमन की प्रतीक्षा व अभिलाषा की जाती है।
जैन धर्मावलम्बियों के मतानुसार लगभग 2821 वर्ष पूर्व कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की रात्रि को सत्य व अहिंसा के पुजारी 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर ने निर्वाण प्राप्त किया था। अत: जैन मत के अनुयायी इस दिन 24 दीप प्रज्ज्वलित कर 24 तीर्थंकरों का सम्मान करते हैं।
सिख धर्म में दीपावली पर्व का विशेष महत्त्व है। सिखों के चौथे गुरु रामदास जी ने अमृतसर के प्रसिद्ध स्वर्ण मन्दिर की नींव कार्तिक अमावस्या को ही रखी थी।
सिखों के छठे गुरु हरगोविन्द साहिब मुगल सम्राट जहांगीर के ग्वालियर किले से 52 साथी राजाओं को मुक्त करा के ग्वालियर से अमृतसर पहुंचे तो उनके स्वागत में दीप जलाये गये और आतिशबाजी छोड़ी गयी।
दीपावली पर्व किसी समय संभवत: शरद पूर्णिमा को भी मनाया जाता था। मौर्य काल में सम्राट चन्द्रगुप्त ने इसी प्रकार शरद पूर्णिमा को नावों में दीपक जलाने और कौमुदी महोत्सव मनाने की प्रेरणा दी थी जिसके कारण चाणक्य व चन्द्रगुप्त के मध्य इतिहास प्रसिद्ध विवाद हुआ था।
दीपावली पर्व से जुड़ी कई अन्य इतिहास प्रसिद्ध व महत्त्वपूर्ण कई घटनाएं हैं जो इस पर्व के महत्त्व में वृद्धि करती हैं। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों से लड़ते-लड़ते अपनी मातृभूमि की रक्षा करते हुए जिस दिन प्राण त्यागे थे उन्होंने वह दिन भी दीपावली अर्थात कार्तिकी अमावस्या का था।
कार्तिकी अमावस्या को ही राष्ट्रधर्म की भावना को जागृत करने वाले स्वामी रामतीर्थ जी ने जल समाधि ली। उनका जन्म भी इसी तिथि को हुआ था और संयास भी उन्होंने इसी दिन लिया था।
आर्य समाज के संस्थापक प्रसिद्ध समाज सुधारक महर्षि दयानन्द सरस्वती का निर्वाण भी इसी दिन हुआ था। भूदान आंदोलन के अग्रणी संत विनोबा भावे भी कार्तिकी अमावस्या को यह संसार त्याग गोलोकवासी हुए। यह पर्व अंधकार में प्रकाश फैलाने का पर्व है, अत: वास्तविक अर्थों को समझते हुए दीपावली का संदेश ‘अंधेरा दूर कर प्रकाश फैलाइये’ को सार्थक बनायें। (उर्वशी)