जम्मू-कश्मीर को कब मिलेगा पूर्ण राज्य का दर्जा ?

कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाली धारा-370 के 135-ए वाले हिस्से को बेअसर करने का ऐतिहासिक कदम उठाने के बाद चार साल से ज़्यादा का समय गुज़र चुका है, लेकिन अभी तक कश्मीर में राजनीतिक प्रक्रिया की शुरुआत नहीं हो पाई है। राज्य की हैसियत से घटा कर दो केंद्र शासित प्रदेश बने जम्मू-कश्मीर और लद्दाख के इलाके एक बार फिर से पूर्ण प्रदेश बनने का इंतज़ार कर रहे हैं। जब भी इससे संबंधित सवाल उठाया जाता है, सरकार फौरन दलील देने लगती है कि वहां आतंकवाद की घटनाएं बहुत कम हो गई हैं। ़खास बात यह है कि सरकार जैसे ही इस तरह के दावे करती है, वैसे ही दक्षिण कश्मीर में कोई न कोई आतंकवादी वारदात हो जाती है। मोटे तौर पर सरकार की यह बात सही है कि कश्मीर में पिछले दिनों आतंकी हिंसा पहले के मुकाबले कुछ कम हुई है, लेकिन क्या केवल इसीलिए कश्मीर को तथाकथित रूप से मुख्यधारा से जोड़ा गया था? प्रश्न यह है कि कश्मीर कब उत्तर प्रदेश या बिहार जैसे किसी भी सामान्य प्रांत जैसा बनेगा, या वैसा बनने की तरफ अपना सफर शुरू करेगा? क्या कभी नहीं? इस प्रश्न का कम से कम एक उत्तर तो यही नज़र आता है कि कश्मीर में सामान्य हालत पैदा करने के लिए पहले वहां लोकतांत्रिक राजनीतिक प्रक्रिया बहाल करने की प्राथमिक शर्त पूरी की जाए। आइए, देखें इसमें क्या-क्या दिक्कतें हैं?
कश्मीर की संवैधानिक हैसियत बदलने के लिए केंद्र सरकार ने अपना ऐतिहासिक हस्तक्षेप उस दौरान किया था जब वहां की पारम्परिक राजनीतिक शक्तियों की साख पूरी तरह से गिर चुकी थी। पीपुल्स डैमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) भारतीय जनता पार्टी के साथ गठजोड़ सरकार चलाने से हुए राजनीतिक नुकसान से उबरने में नाकाम थी। लोकसभा चुनाव में महबूबा म़ुफ्ती समेत उसके सभी उम्मीदवार उस दक्षिण कश्मीर में चुनाव हार गए थे, जो कुछ दिन पहले उनका गढ़ हुआ करता था। नैशनल कांफ्रैंस की हालत यह थी कि चुनाव में कुछ सकारात्मक परिणाम मिलने के बावजूद उसकी सांगठनिक हालत खस्ता दिखाई दे रही थी। अब्दुल्ला परिवार के नेतृत्व की चमक पहले जैसी नहीं रह गई थी। फारूक अब्दुल्ला भ्रष्टाचार के मामलों में बुरी तरह से फंसे हुए थे, और उमर अब्दुल्ला ने कोई पंद्रह दिन पहले ही कार्यकर्ताओं के बीच जाना शुरू करके अपनी निष्क्रियता तोड़ी थी। कांग्रेस का संगठन घाटी में पहले ही ठंडा पड़ा था। ऊपर से लोकसभा चुनाव में करारी हार के कारण उसके आला कमान की हताश निष्क्रियता ने उसे और भी निष्प्रभावी कर दिया था। 
दरअसल, केंद्र पहले ही इस स्थिति को भांप चुका था। कश्मीर के जानकार मानते हैं कि भाजपा सरकार ने एक तिहरी रणनीति बनाई। एक तरफ तो उसने भाजपा की घाटी में उपस्थिति बढ़ाने के लिए बड़े पैमाने पर सदस्यता भर्ती अभियान चलाना शुरू किया। अगर भाजपा के दावों पर भरोसा किया जाए तो उसने दो महीनों में ही लगभग 85,000 सदस्य केवल घाटी से ही भर्ती कर लिये थे। हो सकता है कि यह आंकड़ा कुछ बढ़ा-चढ़ा हो, लेकिन फिर भी इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि भाजपा मुस्लिम बहुल घाटी में अपने कदम मज़बूत करने में लगी हुई थी ताकि केंद्र शासित विधानसभा के चुनाव में कम से कम 9-10 सीटें जीत सके। भाजपा की गतिविधियों को ध्यान से देखने वाले समझ रहे हैं कि घाटी के कुछ इलाके ऐसे हैं, जहां भाजपा की संभावनाएं परवान चढ़ सकती हैं। जैसे बडगाम ज़िला है जो शिया बहुल आबादी वाला है। हम जानते हैं कि शिया मुसलमान सत्तर के दशक से ही पहले जनसंघ और अब भाजपा के प्रति हमदर्दी रखते हैं। ध्यान रहे कि अनंतनाग निर्वाचन क्षेत्र के त्राल विधानसभा क्षेत्र (जो सर्वाधिक आतंकवाद पीड़ित है) में भाजपा को नैशनल कांफ्रैंस, पीडीपी और कांग्रेस से ज़्यादा वोट मिले थे। भाजपा तो यह भी मानती है कि अगर घाटी से बाहर रह रहे कश्मीरी पंडितों को वोट डालने के लिए एम फार्म भरने के जटिल झंझट से न गुज़रना पड़ता तो फारूक अब्दुल्ला तक को चुनाव में हराया जा सकता था। इसलिए भाजपा पंडित मतदाताओं को इस बंधन से निकालना चाहती है ताकि वे खुल कर कमल के सामने का बटन दबा सकें।
दूसरी तरफ केंद्र ने पहले से ही घाटी में नयी राजनीतिक शक्तियों को बढ़ावा देना शुरू कर दिया था। आईएएस में आ कर नाम कमाने वाले शाह फैज़ल के नेतृत्व में एक पार्टी बनवा दी गई थी। विधानसभा में भाजपा विधायकों के हाथों जिस इंजीनियर रशीद का मुंह काला करवाया गया था, उनकी पार्टी भी अपना काम कर रही थी। उन्होंने फैज़ल की पार्टी के साथ मिल कर गठजोड़ बना लिया था। रशीद स्थानीय अ़ख्बारों में पहले से मोदी समर्थक लेख लिख कर घाटी के बारे में कोई असाधारण कदम उठाने की अपीलें कर रहे थे। इस दोतरफा रणनीति का मतलब यह निकलता था कि निकट भविष्य में जब नेतागण रिहा किये जाते तो घाटी में होने वाली राजनीतिक गोलबंदी एकतरफा भारत-विरोधी नहीं होती।
तीसरे, भाजपा विधानसभा के ऊपर से घाटी का प्रभुत्व घटाने की जुगाड़ में थी। विधानसभा में कुल 87 सीटें थीं जिनमें 46 घाटी के, 37 जम्मू के और 4 लद्दाख के हिस्से की थीं। ज़ाहिर है कि घाटी में जीतने वाला कश्मीर पर हुकूमत करता था। ऐसा लगता है कि इस समीकरण को बदलने के लिए सरकार दो विधियां अपना सकती थी। पहली, परिसीमन आयोग बना कर जम्मू क्षेत्र की सीटों की संख्या कुछ बढ़ाई जा सकती थी (क्योंकि जम्मू की जनसंख्या घाटी से अधिक है)। दूसरी, पाक अधिकृत कश्मीर, कश्मीर की नुमाइंदगी करने वाली 24 सीटें फ्रीज़ पड़ी हुई थीं। इनमें से कुछ सीटें इस होशियारी के साथ डिफ्रीज़ की जा सकती थीं कि उनका लाभ भी भाजपा को मिले। विश्लेषकों को लग रहा था कि उस समय तक विधानसभा चुनाव टाले जाते रहेंगे, जब तक सीटों का यह समीकरण भाजपा के अनुकूल नहीं हो जाता।
गृह मंत्री अमित शाह ने वायदा किया था कि जम्मू-कश्मीर को हालात ठीक होते ही फिर से पूर्ण राज्य का दर्जा दे दिया जाएगा। सरकार का यह इरादा ठीक है, परन्तु सवाल यह है कि हालात कब ठीक होंगे? ऐसी स्थिति बनना आसान नहीं होगी। इसके लिए पाकिस्तान के हाथ को प्रभावहीन करना पड़ेगा। उसके लिए संसद में बहुमत के सहारे बनाये गये कानून के दम पर कोई जादू नहीं होगा। उसके लिए अमरीका, चीन और रूस के रवैयों को ध्यान में रखते हुए प्रभावी अंतर्राष्ट्रीय राजनीति करने की ज़रूरत थी। कश्मीर पर कदम उठाने के हफ्ते भर पहले ही भारत ने अमरीकी विदेश मंत्री को अपने इरादों की खबर दे दी थी, लेकिन अमरीका यह कहने लगा कि भारत ने तो पहले उसे कुछ बताया ही नहीं। इससे स्पष्ट हो गया कि धारा-370 हटाना जितना आसान था, उतना ही कठिन कश्मीर के इर्द-गिर्द होने वाली अंतर्राष्ट्रीय राजनीति होने वाली थी। 
अब तो सुप्रीम कोर्ट ने भी केंद्र के कश्मीर संबंधी फैसले पर अपनी मुहर लगा दी है। इसलिए अब यह सही मौका है कि केंद्र सरकार बिना देर किये कश्मीर में राजनीतिक प्रक्रिया शुरू करे। परिसीमन भी हो चुका है। अमित शाह ने संसद में परिसीमन से बनी नयी  परिस्थिति भी खोल कर रख दी है। जम्मू के हिस्से में आने वाली 37 सीटें अब बढ़ कर 43 हो चुकी हैं। कश्मीर घाटी की 46 सीटों में केवल एक का ही इजाफा हुआ है। पाक कब्ज़े वाले कश्मीर के लिए 24 सीटें आरक्षित हैं। अनुसूचित जनजातियों के लिए 9, कश्मीर के विस्थापितों के लिए 2, कब्ज़े वाले कश्मीर के विस्थापितों के लिए 1 और नामज़दगी के लिए 5 सीटों का प्रावधान किया गया है। ज़ाहिर है कि केंद्र ने अपनी शतरंज बिछा दी है। ऊपर से खिलाड़ी केवल एक ही है। उसे ही शह देनी है, और उसे ही मात देनी है। बाकी खिलाड़ी काफी हद तक निष्प्रभावी दिखाई दे रहे हैं। पूरा देश प्रतीक्षा कर रहा है कि केंद्र द्वारा नियुक्त खिलाड़ी के रूप में अमित शाह कब अपनी चाल चलते हैं। 

-लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्रोफेसर और भारतीय भाषाओं में अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।