बिलकिस बानो के दोषी फिर जायेंगे जेल

कानून के शासन का अर्थ है कि कोई चाहे कितना ही शक्तिशाली व उच्च पद पर हो, वह कानून से ऊपर नहीं है, परिणामों की परवाह किये बिना कानून के शासन का हर हाल में पालन किया जाना चाहिए, अगर अपराधी अपने अपराध के परिणामों को नाकाम कर देंगे तो समाज में अमन व शांति कल्पना बनकर रह जायेगी। इस अदालत की यह ज़िम्मेदारी है कि जल्द से जल्द मनमाने आदेशों को दुरुस्त करे और जनता के विश्वास के आधार को बरकरार रखे।’ यह कहते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 8 जनवरी, 2024 को गुजरात सरकार के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसके तहत 2002 के सांप्रदायिक दंगों के दौरान बिलकिस बानो से सामूहिक दुष्कर्म करने व उनके परिवार के आठ नाबालिगों सहित 14 सदस्यों की हत्या करने के 11 दोषियों को उनकी सज़ा पूरी होने से पहले ही रिहा कर दिया गया था। इन सभी 11 दोषियों को क्षमा देने के मामले में न्यायाधीश बीवी नागरत्ना व न्यायाधीश उज्जल भुइयां की खंडपीठ ने न केवल गुजरात सरकार के आदेश को गलत पाया बल्कि सुप्रीम कोर्ट के ही 2022 के आदेश को रद्द किया, जिसकी वजह से एक दोषी की क्षमा प्रक्रिया आरंभ हुई थी। अब दो सप्ताह के भीतर सभी 11 दोषियों को जेल अधिकारियों के समक्ष समर्पण करना है।
गौरतलब है कि 3 मार्च 2002 को 21 वर्षीय गर्भवती बिलकिस बानो के साथ सामूहिक दुष्कर्म किया गया था और उनके परिवार के 14 सदस्यों की हत्या कर दी गई थी। 21 जनवरी, 2008 को इस जघन्य अपराध के लिए मुंबई की विशेष अदालत ने 11 व्यक्तियों को दोषी पाया और उन्हें आजीवन कारावास की सज़ा सुनायी। 13 मई, 2022 को सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात सरकार को आदेश दिया कि वह एक दोषी की समय-पूर्व रिहाई पर विचार करे। गुजरात सरकार ने 15 अगस्त, 2022 को सभी 11 दोषियों को क्षमा करते हुए रिहा कर दिया। रिहाई पर इन दोषियों का फूल मालाओं व लड्डुओं से सार्वजिनक स्वागत किया गया, जिससे पूरा देश स्तब्ध रह गया। गुजरात सरकार के आदेश के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में अनेक जनहित याचिकाएं दायर की गईं और फिर 30 नवम्बर, 2022 को बिलकीस बानो ने भी एक याचिका दायर की। इस पर 8 जनवरी, 2024 को फैसला सुनाते सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि गुजरात सरकार का आदेश ‘स्टीरियोटाइप्ड’ था, उसने ‘सत्ता का दुरूपयोग किया’, बिना सोचे समझे आदेश पारित किया और उसे रद्द कर दिया। यही नहीं, सुप्रीम कोर्ट ने अपने 13 मई, 2022 के आदेश को भी यह कहते हुए रद्द कर दिया कि दोषी राधेश्याम शाह ने ‘तथ्यों को छुपाकर अदालत को गुमराह किया था’। शाह ने 1992 की नीति के तहत क्षमा की प्रार्थना की थी, जोकि उसके दोषी पाये जाने के समय लागू थी। उसने इस बात को छुपाया था कि गुजरात हाईकोर्ट ने उसकी क्षमा याचिका को ठुकरा दिया था। ध्यान रहे कि 9 जुलाई, 1992 को गुजरात सरकार ने क्षमा नीति जारी की थी, जिसके तहत न्यूनतम 14 वर्ष की सज़ा भुगत चुके मुजरिमों को जल्द रिहा किये जाने के योग्य कर दिया गया था। 
लेकिन इस नीति की जगह 2014 में जो नीति लायी गई, उसमें दुष्कर्म व हत्या के दोषियों को क्षमा दिए जाने पर पाबंदी है। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला तकनीकी आधार पर दिया गया है- दोषियों को क्षमा देने व रिहा करने का अधिकार गुजरात सरकार के पास नहीं था। सीआरपीसी की धारा 432 के अनुसार जिस राज्य में अपराध हुआ है, उसकी सरकार को यह अधिकार है कि वह पूरी सज़ा या उसके कुछ हिस्से को सशर्त या बिना शर्त समाप्त कर सकती है। हालांकि संबंधित मामले में अपराध गुजरात में हुआ था, लेकिन ट्रायल व सज़ा महाराष्ट्र की विशेष अदालत में हुई थी। इसलिए क्षमा देने का अधिकार गुजरात के पास नहीं बल्कि महाराष्ट्र के पास था। सुप्रीम कोर्ट के अनुसार कानून का उद्देश्य उस अदालत को महत्व देना है, जहां ट्रायल व फैसला हुआ। जहां अपराध हुआ या अपराधी जेल में रहे, वह प्रासंगिक नहीं है। 
हालांकि सभी 11 दोषियों को वापस जेल भेजकर सुप्रीम कोर्ट ने क्षमा कानून को एकदम स्पष्ट कर दिया है कि अपराधियों का सुधार व पुनर्वास कानून के शासन की कीमत पर नहीं किया जा सकता, लेकिन यह सवाल भी महत्वपूर्ण है कि क्या जेल में रिपोर्ट करने के लिए दो सप्ताह का समय इसलिए दिया गया है कि अपराधी महाराष्ट्र सरकार से कुछ उम्मीद रख सकें, जहां भाजपा भी सत्ता में शामिल है? यह प्रश्न इसलिए उठा है, क्योंकि अपराधियों को क्षमा देने का संबंध अक्सर राजनीतिक करंट से गहरा जुड़ा हुआ होता है। इस मामले में तो क्षमा देने का घटनाक्रम सीधा सियासी डायमेंशन की ओर इशारा करता है।
बिलकिस बानो केस की जांच सीबीआई ने की थी। इसलिए 2019 में अपराधियों को समय-पूर्व रिहा करने के संदर्भ में सीबीआई की राय ली गई थी। सीबीआई ने कहा था कि इस मामले में राहत देने का कोई केस नहीं बनता है। इसके अगले वर्ष सीबीआई के स्टैंड का समर्थन दाहोद, गुजरात के एसपी व ज़िलाधिकारी ने किया। उन्होंने भी अपराधियों के समय-पूर्व रिहा किये जाने का विरोध किया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि रीमिशन (क्षमा) केवल सज़ा में कमी है, इससे किसी भी सूरत में अपराधियों का दोष कम नहीं हो जाता है। इसलिए दोषी पाये जाने के आधार में कोई बदलाव नहीं आता है। 
क्षमा देने का अधिकार एग्जीक्यूटिव के पास होता है। जांच संस्थाओं की प्रारम्भिक आपत्तियों के बावजूद जब 2022 में क्षमा दी गई तो गुजरात में विधानसभा के चुनाव हो रहे थे। दो पहलू थे, जिनके आधार पर सुप्रीम कोर्ट इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि गुजरात द्वारा क्षमा प्रदान करना अवैध था। चूंकि बिलकीस बानो का केस महाराष्ट्र को ट्रांसफर कर दिया गया था, इसलिए गुजरात उचित सरकार नहीं थी क्षमा संबंधी फैसला करने के लिए। गुजरात सरकार ने इसे 2022 में स्वीकार किया था। नतीजतन, क्षमा आदेश राज्य द्वारा सत्ता उल्लंघन पर आधारित था। यह एक कारण था जिसकी वजह से सुप्रीम कोर्ट ने क्षमा आदेश को रद्द किया। यह सही है कि क्षमा न्यायिक व्यवस्था का अटूट हिस्सा है, लेकिन यह सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है कि यह राजनीतिक सुविधा का मामला न हो। जब सुप्रीम कोर्ट ने यह निष्कर्ष निकाला कि गुजरात सरकार ने क्षमा आदेश जारी करते हुए अपने अधिकारों का उल्लंघन किया है तो यह एकदम स्पष्ट हो गया था कि इशारा न्यायिक व्यवस्था को कमतर करने के प्रयास की ओर था। सुप्रीम कोर्ट के अनुसार गुजरात सरकार का एक्शन कानून के शासन के विरुद्ध था, उसने अपने विवेक का दुरूपयोग किया। सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात सरकार की कड़े शब्दों में आलोचना की और यहां तक कहा कि वह अपराधियों के साथ मिली हुई थी। अन्याय केवल मनमानी गिरफ्तारियों तक ही सीमित नहीं होता बल्कि संदिग्ध क्षमादान भी नाइंसाफी के दायरे में आता है।

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