चुनावी दंगल की कन्सोआं

लोकसभा चुनाव का बिगुल बजने के बाद राजनीतिक पार्टियां तथा मतदाता अपने-अपने पैंतरे ढूंढ रहे हैं। सत्तारूढ़ पार्टी तथा इसकी पिट्ठू एजेंसियां सेवा निवृत्ति तथा मौजूदा मुख्यमंत्रियों को जेलों के दरवाज़े दिखाने के लिए तत्पर हैं। भारतीय लोकतंत्र एक दिन ऐसे निम्न स्तर पर चला जाएगा, स्वतंत्रा के लिए संघर्ष करने वालों ने ऐसा सोचा भी नहीं होगा। चुनाव दंगल में भाग लेने वाली राजनीतिक पार्टियों में से 6 राष्ट्रीय स्तर की हैं, 58 राज्य स्तर की तथा 2,597 अन्य। आज़ाद उम्मीदवार इनसे अलग हैं जिनमें कई तो घर फूंक कर तामाशा देखने वाले ही हैं। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह समेत चार दर्जन सदस्यों के राज्यसभा से सेवा-निवृत्त होने से रिक्त हुए स्थान को भरने के मामले का गर्माना भी स्वाभाविक है। परिणाम क्या निकलता है, सभी भारत वासियों का ध्यान इस ओर लगा हुआ है। 
इन्फोर्समैंट डायरैक्टोरेट (ईडी) द्वारा दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल को जेल भेजने से चुनावी दंगल पूरी तह गर्मा गया है। उसे जिसकी पार्टी को विधानसभा के पांच में से चार हिस्सों पर बहुमत हासिल है। इससे पहले झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को अपनी कुर्सी छोड़ते ही गिरफ्तार कर लिया गया था। उधर नई दिल्ली का उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया वर्ष भर से जेल में है। इस प्रकार की कार्रवाइयां और भी हैं। अभी थोड़े दिन पहले मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस को 135 करोड़ रुपये की वसूली का नोटिस दिया गया था, जो चार दिन के बाद 35 सौ करोड़ रुपये से भी बढ़ा दी गई। इन नोटिसों से पहले आयकर विभाग द्वारा पार्टी के सभी बैंक खातों को भी सीज़ कर दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस वसूली पर रोक लगाना बताता है कि यह घोर ज़्यादती थी।
नई दिल्ली वाली ‘इंडिया’ गठबंधन रैली में विपक्षी पार्टी द्वारा मौजूदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तथा राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) को निशाना बनाना स्वाभाविक था। इसलिए भी कि भाजपा तथा उसका गठबंधन पुन: बहुमत लेता है तो देश के संविधान की भी खैर नहीं। सोशल मीडिया ने इस सब कुछ का नोटिस लिया है, परन्तु चिन्ता की बात यह है कि सीटों के बटवारे का शोर इस मोर्चे को किसी किनारे नहीं लगने दे रहा। समय मांग करता है कि विपक्षी दल अपना-अपना अहं त्याग कर आगे बढ़ें। 
सोशल मीडिया तो भाजपा की ओर से चुनिंदा विरोधियों को अपनी पार्टी में शामिल करने का भी नोटिस ले चुका है, उनके इस कार्यन्वयन के चोर रास्तों का भी। वह यह कि भाजपा में शामिल होने से पहले तो केन्द्रीय एजेंसियां उन पर कई प्रकार के आरोप लगा रही थीं, परन्तु उनके भाजपा में शामिल होने के बाद इस बारे चुप्पी धारण करे बैठी हैं। लोकतांत्रिक परम्पराओं के कायम रखने के लिए ऐसी पार्टी को किनारे लगाना अत्यंत ज़रूरी है जो इस ओर बढ़ने से बाज़ नहीं आ रही।
कच्चाथीवू द्वीप का शोर
आजकल तमिलनाडु के रामानाथपुरम क्षेत्र से सटा कच्चाथीवू द्वीप भी चर्चा का विषय बना हुआ है। नरेन्द्र मोदी सरकार ने यहां भी एक सो रही कला को जगा दिया है। वह यह कि इंदिरा गांधी ने 1974 में यह द्वीप इसकी सुरक्षा शक्ति को पहचाने बिना श्रीलंका को दे दिया था। उन्होंने यह फैसला लेने से पहले इस क्षेत्र के इतिहास को भी नहीं जाना। डेढ़ सौ वर्ष पहले ब्रिटिश शासन के समय 1880 में रामानाथपुरम के डिप्टी कुलेक्टर एडवर्ड टर्नर तथा स्थानीय राजा ने एक लीज़ पर हस्ताक्षर किये थे जिसके तहत स्थानीय राजा को 70 गांवों के आस-पास के 11 द्वीपों पर जिनमें यह द्वीप भी शामिल था, की मालिकी के अधिकार दिये थे। फिर 1885 तथा दोबारा 1913 में इस लीज़ को दोहराया गया था, जो इस तथ्य की पुष्टि करती है कि ब्रिटिश सरकार भी, जिसकी कमांड के अधीन उस समय भारत ही नहीं श्रीलंका भी शामिल था, इस द्वीप को भारत का भाग मानती थी। इतिहास कुछ भी बताता हो, नरेन्द्र मोदी द्वारा अपने कार्यकाल के दसवें वर्ष में लोकसभा चुनाव से बिल्कुल पहले इस द्वीप के महत्व को उभारना रानजीतिक दुराचार नहीं तो और क्या है?
अंतिका
—जोगा—
वैर काहतों पै गिया तेरा ख्याल,
रोज़ ही क्यों आंवदै तेरा ख्याल।
एक जी करदा है इसनूं कहि दियां,
मेरियां सोचां ’च ना आया करे।
एक जी करदा है इसनूं कहि दियां, 
आ जाये, पर मुड़ के ना जाया करे।