माटी की कलात्मक मूर्तियों के लिए विख्यात है मोलेला

राजस्थान का सुदूरवर्ती दक्षिणांचल क्षेत्र में झीलों की नगरी के नाम से विख्यात उदयपुर ज़िले से 60 किलोमीटर दूर स्थित मोलेला गांव लोक देवताओं की टेराकोटा की मूर्तियां बनाने के लिए यहां के शिल्पकार पूरे विश्व में प्रसिद्धि पा चुके हैं। यहां मूर्तियां बिना सांचों के बनाई जाती है। ये मूर्तियां डेढ़ से दो फुट की बनती हैं। यहां बनने वाली मूर्तियों की यह विशेषता है कि ये केवल मोलेला के समीप अवला नामक तालाब की मिट्टी से ही बनाई जाती है। यह मिट्टी चिकनी व कंकड रहित होती है। इसे पानी में भिगों कर नरम कर लिया जाता है। नम मिट्टी को तप्पड़ से ढक कर कुछ समय के लिए छोड़ दिया जाता है। ये मूर्तियां यहां के कुम्भ कलाकार खुले आकाश के नीचे न बनाकर घर के आंगन में बनाते हैं। मूर्ति बनाकर उसे सूखने के लिए 15-20 दिनों तक छोड़ देते हैं। इसके बाद कोयले के अलाव में इन मूर्तियों को पकाया जाता है। अलाव को यहां के कलाकार स्थानीय बोली में झाकासा कहकर पुकारते हैं। झाकासा में पकने वाली मूर्तियों की यह विशेषता है कि वे काली नहीं पड़ती हैं। 
मूर्तियों को पकाने के बाद विभिन्न रंगों व पन्नियों से मूर्तियों को मनमोहक व आकर्षक रुप दिया जाता है। मूर्तियों को रंगने से पूर्व उस पर चूने के सफेद रंग का पोत चढ़ाया जाता है। इन रंगों में सिंदूर, पियावड़ी, काला, नीला रंग को मिलाकर इसका उपयोग किया जाता है। मूर्तियों पर रंग लम्बे समय तक टिका रखने हेतु रंगों में गोंद, मंगरूप नामक खान की खड़ी व जिलई मिलाई जाती है। लेकिन अब कलाकार इसमें फेविकोल भी मिलाने लगे हैं। 
यहां कलात्मक मूर्तियां बनाने वाले कलाकारों ने बताया कि वे धर्मराज की मूर्तियां विशेष रूप से बनाते हैं, इसके अलावा भक्तों की मांग पर काला गोरा भैरु, नारसिंघी, कालका, पाबूजी, सुहारबाबा, फुवार जी, गोगाजी, गणेश, चावण्डा, हस्तीमाता, मच्छीमाता, कुकड़ामाता, नागणी माता, सांड माता, आवजमाता की प्रतिमाएं बहुतायत से बनाई जाती है। ज़रूरत पड़ने पर ग्राहक की मनचाही मूर्ति एक ही दिन में बनाकर दे देते हैं। देवी मूर्तियों को बलि चढ़ती तो धर्मराज को मीठा प्रसाद ही चढ़ता है। रोचक बात यहां यह भी देखने को मिली कि मोलेला में पचास परिवार आऊल गोत्र से संबद्ध कुम्हार गधे नहीं पालते हैं। उनका कहना है कि देवताओं की मूर्तियां बनाने वाली मिट्टी वे गधे पर नहीं लादते है, चूंकि देवता उनके सिर माथे रहते हैं, अत: मिट्टी वे सिर पर ही रखकर लाते हैं। देश के विभिन्न अंचलों से भक्तगण मूर्तियां खरीदने के लिए यहां पैदल ही आते हैं व अपने सिर पर ही मूर्तियां रखकर देवेरे (मंदिर) में ले जाकर प्रतिष्ठित करते हैं। यहां के सिद्धहस्त कलाकारों को मूर्ति निर्माण कला कौशल की श्रेष्ठता फलस्वरूप राष्ट्रपति पुरुस्कार महाराणा मेवाड फाउंडेशन द्वारा महाराणा सज्जन सिंह पुरुस्कार व राज्य सरकार द्वारा प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है।

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