डा. मनमोहन सिंह का करियाने की दुकान से कैम्ब्रिज तक का स़फर
1947 में जब उनके दादा जी की हत्या की गई तो उनके पिता पेशावर में ही काम कर रहे थे। मई और जून के माह के दौरान जब गैर-मुसलमानों के लिए माहौल खराब हो रहा था, मनमोहन सिंह के पिता ने अपने सभी बच्चों को रेलगाड़ी से भारत में उत्तर प्रदेश के हलद्वानी में अपने दोस्त के घर लाने का फैसला किया। मनमोहन सिंह का कहना है कि 14 वर्ष की आयु में वह बहुत उत्साहित महसूस कर रहे थे क्योंकि यह उनकी पहली लम्बी रेल यात्रा थी। हलद्वानी आने से पहले मनमोहन सिंह के पिता ने निजी कम्पनी की नौकरी छोड़ दी थी और पेशावर में अपना छोटा सा कारोबार स्थापित किया था। इस दौरान साम्प्रदायिक स्थिति और भी बिगड़ गई थी। उनके पिता को पेशावर में अपना कारोबार बंद करना पड़ा और बाघा सीमा से आज़ाद भारत में आना पड़ा। पेशावर में अपना सारा कारोबार छोड़ने से बाद उनके पास वहां करने के लिए कुछ नहीं था, इसलिए उन्होंने अमृतसर शहर में रहने का फैसला किया और शहर में दाना मंडी के नाम से जाने जाते निकटवर्ती इलाके में रहते हुए मजीठा मंडी क्षेत्र में करियाने की दुकान खोल ली। मनमोहन सिंह ने अपनी बेटी को एक बातचीत में कहा, जिसको उन्होंने अपनी किताब में शामिल किया है, हममें कोई मतभेद नहीं थे, पर मुझे दुकान पर बैठना पसंद नहीं था। मैंने महसूस किया कि मुझे बनता सम्मान नहीं दिया गया। मनमोहन सिंह के पिता उनके साथ अच्छा व्यवहार नहीं करते थे और उनको छोटे-मोटे काम देते थे, जिसके कारण मनमोहन सिंह बहुत दुखी हुए और अपनी पढ़ाई की ओर वापिस आ गये। सितम्बर 1948 में उन्होंने हिन्दू कालेज में दाखिला ले लिया क्योंकि परिवार ने आर्थिक तौर पर अभी अपने पैर नहीं जमाये थे, इसलिए मनमोहन सिंह हिन्दू कालेज में दाखिल हो गये क्योंकि वह पैदल ही वहां जा सकते थे क्योंकि यह 25 मिनट के ही पैदल सफर पर स्थित था। खालसा कालेज बहुत दूर था और वह होस्टल की फीस नहीं भर सकते थे। उन्होंने अर्थ-शास्त्र, राजनीति विज्ञान, गणित, अंग्रेजी और फ्रैंच के साथ ह्यूमैन्टीज़ का चुनाव किया। साल 1950 में उन्होंने यूनिवर्सिटी की परीक्षा में टॉप किया, जिसके साथ उनको कालेज में दो सालों की छात्रवृत्ति मिली।
मनमोहन सिंह की अर्थ-शास्त्र में गहरी दिलचस्पी थी। एक विद्यार्थी के रूप में कुछ देशों के अमीर तथा अन्य देशों के गरीब होने के कारण उनके मन में उत्सुकता थी। इसी उत्सुकता ने उनको एक विश्व-प्रसिद्ध अर्थ-शास्त्री बनने के राह पर पहुंचाया, जिन्होंने राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आर्थिक नीति के साथ संबंधित कई महत्वपूर्ण पद प्राप्त किये। यह वर्ष 1952 की बात है कि अपनी ग्रैजुएशन की परीक्षा में पहला स्थान प्राप्त करके अपने घर से बाहर जाने का मौका मिला और पंजाब यूनिवर्सिटी द्वारा दी गई छात्रवृत्ति पर होशियारपुर कालेज में आगे पढ़ने का मौका प्राप्त किया। दो साल पहले के उलट, उनके पिता अब होस्टल की फीसों का भुगतान कर सकते थे और मनमोहन सिंह घर से 110 किलोमीटर दूर भारत के पंजाब के होशियारपुर शहर चले गये। उनके अर्थ-शास्त्र के सिद्धांत के अध्यापक रंगनेकर ने मनमोहन सिंह को अपनी पढ़ाई जारी रखने के लिए कैंब्रिज यूनिवर्सिटी में छात्रवृत्ति के लिए अर्जी देने के लिए उत्साहित किया क्योंकि वह उनके लिए उज्जवल अकादमिक भविष्य की भविष्यवाणी करते थे। कैंब्रिज यूनिवर्सिटी अर्थ-शास्त्र का मक्का था जो कि बहुत ही होशियार मनमोहन सिंह को ज़रूरी विश्वव्यापी अनुभव प्रदान करेगी। कैंब्रिज में अपनी मनज़ूरी की प्रतीक्षा करते हुए उन्होंने पंजाब कालेज में अपनी अनुसंधान छात्रवृत्ति शुरू की। यूनाइटेड किंगडम जाने के लिए ज़रूरी दस्तावेजों के लिए उनको हर किसी से बहुत सहायता मिली। उनके वाईस चांसलर ने उनको अपनी अनुसंधान छात्रवृत्ति उनके पास रखने दी, जिसके साथ कैंब्रिज के सेंट जॉन्स कालेज में रहने में मदद मिली जहां उनको दाखिला मिल गया। मनमोहन सिंह सितम्बर 1955 में जहाज से यूनाईटेड किंगडम के लिए रवाना हुए।
चाहे रि गांव में जन्मे-पले इस लड़के के लिए कैंब्रिज एक बड़ी तबदीली थी, उन्होंने जल्द ही अपने आप को उसके अनुकूल ढाल लिया। इसका सेहरा बटवारे के तजुर्बे को दिया जा सकता है जिसने उनको अधिक लचकीला बनाया था। यह ऐसा गुण जो 1947 की भयानक घटनाओं के भयानक दौर में से निकलने वाले हर व्यक्ति को प्राप्त हुआ था। इस नौजवान लड़के को परेशान करने वाली एक ही समस्या पैसे की कमी थी। उन्होंने यूनाइटेड किंगडम में अपने प्रवास के अगले दो सालों में होने वाले सभी खर्चों की योजना बनाई और गणना के अनुसार कुल राशि 600 पौंड निकली। उन्हें पंजाब यूनिवर्सिटी की छात्रवृत्ति से लगभग 4160 रुपये मिले थे और बाकी के लिए वह अपने पिता पर निर्भर थे।
उन्होंने कम खर्च करके रहने का फैसला किया क्योंकि वह अपने पिता को ज्यादा परेशान नहीं करना चाहते थे। वह कभी-कभी ही बाहर खाते थे और कालेज के डाइनिंग हाल में ही खाना खाते थे, जहां भोजन दो शिलिंग और 6 पैंस के मुकाबले सस्ता था। फिर भी वह कभी-कभी पैसों की कमी होने पर तंग स्थिति में रहते थे, पर पैसे वह हमेशा घर से ही मंगवाते थे, चाहे पैसे देरी के साथ ही आते थे। उन हालातों में वह खाना छोड़ देते थे और कैडब्री की चॉकलेट बारों पर ही निर्भर रहते थे जिनकी कीमत 6 पैंस होती थी। उन्होंने कालेज में किसी से पैसे उधार न लेने का फैसला किया, एक ऐसी आदत जो उन्होंने हमेशा बरकरार रखी और अपनी ज़िंदगी में कभी भी किसे से उधार नहीं लिया। हालत बहुत खराब होने पर उनकी सहायता के लिए निवेदन करने वाला अकेला व्यक्ति उनका दोस्त मदन लाल सूदन था, जिसको वह होशियारपुर कालेज में पोस्ट ग्रैजूएशन के दिनों से जानते थे। उन्होंने उसको एक पत्र लिखा जिसमें कहा गया था कि उनको यूके में अगले दो साल रहने के दौरान 25 पाऊंड की कमी हो सकती है, और इसलिए उनको उम्मीद थी कि उसका दोस्त उसको उस साल 12 पौंड और अगले साल 13 पौंड भेज सकता है। दो माह बाद उनके लिए 3 पौंड का मनी आर्डर आया, शायद यह सब कुछ था जो उनका प्यारा दोस्त मदन लाल सूदन भेज सकता था। मनमोहन सिंह इस सहायता के लिए अपने दोस्त के सदा के लिए धन्यवादी रहे।
कालेज के पहले साल के अंत में जब परीक्षाओं के परिणाम घोषित किये गये तो पता चला कि मनमोहन सिंह ने परीक्षा पास कर ली है। उन्होंने अपने दोस्त मदन लाल सूदन को लिखा कि उनको और पैसे न भेजे क्योंकि उनको 20 पौंड का ईनाम मिलेगा, जो बजट में अनुमानत: कमी को पूरा करेगा।
साल 1991 में जब मनमोहन सिंह को भारत का 22वां वित्तमंत्री नियुक्त किया गया और उन्होंने संसद में ऐतिहासिक बजट पेश किया, तो उनकी देश में एक बड़े वित्तीय संकट को टालने वाले अर्थ-शास्त्री के तौर पर प्रशंसा की गई थी, क्योंकि भारत के पास विदेशी मुद्रा भंडार सप्ताह का आयात मुल्य का सिर्फ दो दिन का ही बचा था। यह तब था जब उन्होंने देश में विदेशी निवेश के प्रवाह के लिए भारतीय अर्थचारे को कंट्रोल मुक्त करने का सुझाव दिया था। यह व्यापक तौर पर माना जाता है कि पूर्व प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव ने मनमोहन सिंह को वित्तमंत्री पद देकर उम्मीदवार के रूप में देखा था, लेकिन मैं यहां बताना चाहता हूं कि यह सोनिया गांधी ही थीं जिन्होंने उनका नाम बताया और मनमोहन सिंह को सरकार में वित्तीय विभाग के प्रबंधन की जिम्मेदारी सौंपी गई क्योंकि उन्होंने इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की सरकारों के दौरान अलग-अलग वित्तीय और आर्थिक मामलों पर उनके काम को निकट से देखा था। एक छोटे से गांव के इस लड़के ने अपनी सूझ, लगन और लचीलेपन के साथ बड़ी प्राप्तियां कीं, पर बंटवारे ने उनके प्यारे दादा जी को छीन लिया और वह भारत के प्रधानमंत्री के तौर पर अंतिम बार अपने पहले घर जाने का अपना सपना कभी भी पूरा नहीं कर सके।
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