किस तरह के पति एवं पिता थे डा. मनमोहन सिंह

1969 जब हम मॉडल टाऊन आये, किक्की (उपिंदर सिंह) दस वर्ष की, मैं छ: वर्ष की और अम्मू छ: मास की थी। हम 70वें दशक के मेहनती एवं आज्ञाकारी बच्चे थे, हमें पढ़ने के लिए बार-बार कहना नहीं पड़ता था। गलियां हमारा खेल का मैदान थीं, जो हमारे साथ-साथ गुज़रती कारों एवं गायों सभी के लिए सांझी थी।  मेरे माता-पिता कई वर्ष तुगलक रोड से लेकर बापा नगर, लोधी एस्टेट, कृष्णा मैनन मार्ग और फिर स़फदरजंग लेन तक एक घर से दूसरे घर तक छलांग लगाते रहे तथा अंत रेस कोर्स रोड पहुंच गये। यह वह स्थान था जहां वह सबसे ज्यादा लम्बे समय तक रहे।  
सरकारी नौकरी करते हुए मेरे डैडी ने पूरे खुले मन से अपने विचार प्रकट किए कि क्या ठीक है। यह कहने की ज़रूरत नहीं कि उन्होंने हर सरकारी नियम पूरी ईमानदारी से माना। उन्होंने सरकारी नियमों की सूची में बहुत-से अपने नियम भी जोड़ दिये। ये असूल थे संकीर्णता, भाई-भतीजावाद व पक्षपात पूरी तरह से दूर रहना। किसी साधारण से साधारण स्रोत के लिए कोई छोटा-सा भी अहसान लेने का सवाल ही पैदा नहीं होता। किसी काम में दिलचस्पी रखने वाले पक्षों, थोड़ी-बहुत पहचान वालों एवं अजनबियों से हमप्याला-हमनिवाला होने से गुरेज़ करना, सिर्फ उन लोगों का स्वागत करना जिनसे जान-पहचान हो तथा रोज़गार एवं निजी ज़िन्दगी के बीच की रेखा कभी पार नहीं करनी।  इस मार्ग पर चलते हुए वह पारिवारिक ज़िम्मेदारियों से पीछे हटते चले गए। उनका काम उनकी ज़िन्दगी पर हावी होता गया। प्रतिदिन उनका दफ्तर कपड़े की बड़ी गठरियों में बंधा हुआ उनके साथ घर आता तथा हम उसे कार से बाहर निकालने में उनकी सहायता करते। डैडी के घर होने के दौरान हमने अपने पांवों पर चलना बहुत छोटी उम्र में सीख लिया। वह अपने बिस्तर में बैठ कर काम करते, बैठ जाते और ऊपर एक सिरहाना रखते और फाइलों का ढेर उनके नज़दीक पड़ा होता। अपने कागज़ों पर झुक कर वह छोटी-छोटी साफ-साफ लाइनें खींचते हुए अपनी दाढ़ी खुरचते और मुंह में कुछ बड़बड़ाते। जब वह काम न कर रहे होते तब या तो वह कोई किताब पढ़ रहे होते या अपने ख्यालों में गुम हो जाते। वह अभी भी दोस्तों के साथ समय व्यतीत करते थे, परन्तु पहले जितना नहीं। रात के खाने का निमंत्रण उन अर्थ-शास्त्रियों के लिए आरक्षित होता जो या तो शहर आये होते या शहर से जा रहे होते। हम तीनों बहनें रसोई में खाना पकाने, परोसने एवं छोटे-बड़े कामों में अपनी माता की सहायता करतीं। हमारे डैडी आम तौर पर हमें मेहमानों से मिलाना भूल जाते और न ही हमारे प्रति कोई दिलचस्पी दिखाते। छोटी और निडर होने के कारण अम्मू अक्सर कुर्सी पर बैठ जाती और संसार के भिन्न-भिन्न भागों की आर्थिक स्थिति का ज्ञान पूरे विस्तार से पी लेती, परन्तु हमारा काम खत्म होते ही, किक्की और मैं गायब हो जाते।
मेरी डैडी क्योंकि अक्सर बहुत स़फर करते थे, इसलिए बिना किसी खास मेहनत के मेरे पास सिक्कों का बड़ा गौरवमय खज़ाना इकट्ठा हो गया। कई बार वह दिल्ली सिर्फ अगला जहाज़ चढ़ने के लिए आते। उनकी ओर से कोई वस्तु लेकर देने का तो सवाल ही नहीं उठता था क्योंकि उन्होंने पहले ही स्पष्ट कह दिया था कि उनके पास इसके लिए समय नहीं है। इसलिए हमें प्रतिदिन मिलने वाली चाकलेट के साथ ही गुज़ारा करना पड़ता। कई बार वह अपनी महिला सहायक को अपनी पत्नी एवं तीन बेटियों के लिए रात को पहनने वाले कपड़े लाने के लिए कह देते इसी कारण हम चारों रात को सुन्दर कपड़े पहन कर सोते।
हमारा घुमना-फिरना बहुत कम था। हम स्कूल की छुट्टियों में या किसी शादी के दौरान एक-दो बार अमृतसर गये। इसके अतिरिक्त हमने बहुत कम सैर की। 1974 में हम पांचों छुट्टियां मनाने गये। यह सचमुच एक ऐतिहासिक अवसर था, जो पुन: कभी भी नहीं आया। नैनीताल के इस टूर के बाद हम दिल्ली से एक बार फिर शिमला गये, तब डैडी साथ नहीं थे। 
कुछ पल ऐसे भी होते हैं, जब वह अपने काम को पूरी तरह एक तरफ रख कर हमें बाहर लेकर जाते। हमारी सबसे रोमांचक सैर होती किताबों की दुकानें, कश्मीरी गेट वाली रामा कृष्णा एंड सन्स और कनाट प्लेस की गलगोटिया और न्यू बुक शॉप। खानों में पड़ी ललचाती किताबों के बीच हम खुल कर घूमते, उनके नशे में ठोकरें खाते, अपनी खरीदी हुईं किताबों को कस कर पकड़ लेते। एक दो मास बाद हम पहले से निर्धारित स्थानों जैसे कि दक्षिण भारतीय खाने के लिए कमला नगर की कृष्णा स्वीट्स, म़ुगलई खाने के लिए दरियागंज की तंदुर, चीनी पकवानों के लिए मलचा मार्ग और चाट खाने के लिए बंगाली मार्किट जाते। 
पिता और बेटियों की बातें अक्सर बहुत छोटी होती हैं। उनमें ज्यादातर बातें दफ्तरी और निजी कामों में अन्तर समझाने वाली होती हैं। टैलीफोन सरकारी था इसलिए हमें सिर्फ ज़रूरी काम के लिए फोन करने की इजाज़त थी। इस काम के लिए लगाई गई साफ कॉपी में, हमारे मम्मी महीने में की जाती लम्बी दूरी की दो या तीन कालें नोट करते। इस बात का सन्देह होता था कि फोन रिकार्ड किया जा रहा है। इसलिए हम हर बात बहुत सोच समझ कर करते। कार भी सरकारी थी, जिसका मतलब था कि वह हमें उस कार में कहीं नहीं छोड़ेंगे, उस स्थान पर भी नहीं जो उनके काम पर जाने वाले रास्ते में आता हो। सरकारी स्टेशनरी से लेकर सरकारी रुतबे हमारी पहुंच से बाहर थे। निजी मामलों में हमारी सुरक्षा और हमारी पढ़ाई उनकी चिन्ता का मुख्य विषय थे। सुरक्षा के लिए वह दो बातें हमेशा याद करवाते; कभी किसी से टॉफी नहीं लेनी और चाहे कोई जानकार क्यों न हो, उससे लिफ्ट नहीं लेनी। बीमारी, चाहे कितनी भी छोटी हो, उन्हें बहुत परेशान कर देती। हल्की सी खांसी या एक छींक उन्हें बेचैन करने के लिए काफी होती।
प्रतिदिन की ज़िन्दगी की छोटी-छोटी बातों में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी। उनसे ऊपर उठ कर वह सिर्फ सूझवान एवं सादगी भरी बातें करते थे। जब कभी बहनों का आपस में झगड़ा हो जाता तो हमें ‘जैंटल बैन’ बनने का परामर्श देते। हम न्यूयार्क में टैलीविज़न पर आने वाला एक धारावाहिक देखते थे जिसमें एक दयालु भालू का नाम बैन था। एक और बात सिखाई जाती थी, ‘कड़वे शब्द न बोलो।’ ज़िन्दगी की कड़वी सच्चाइयों को याद रखने के लिए हमें समझाया जाता कि ‘ज्यादा नाज़ुक न बनो’ और ‘जो ठीक न हो रोग, उसे लो भोग।’ 
मैं स्वयं कुछ-कुछ जोकर हूं। मुझे मेरे डैडी बहुत अद्भुत इन्सान लगते हैं। जब वह सोच में डूबे हुए बैठे होते हैं तो उनकी बीच वाली अंगुली नाक के एक तरफ टिकी होती। वह घर के कामों में बिल्कुल ही पीछे थे। न तो वह अंडा उबाल सकते थे, न ही टी.वी चला सकते थे। यह भी आज तक पता नहीं चला कि वह अपनी चलने की रफ्तार पर नियन्त्रण क्यों नहीं कर सकते थे। एक बार वह चल पड़ते तो फिर इतनी  गति पकड़ लेते कि अपने साथियों को पीछे छोड़ जाते। वह व्यायाम भी बहुत तेज़ी से करते, जल्दी-जल्दी हाथ-पैर फड़फड़ाते। उनके स्वास्थ्य की समस्या चिन्ता का कारण बनती। थोड़ा-सा भी ज़ुकाम उन्हें नमोनिया जैसा लगता तथा सीने में हल्की-सी भी दर्द उन्हें दिल का दौरा लगती। अर्थ-शास्त्रियों के अतिरिक्त आने वाला कोई भी मेहमान उन्हें दहशत में डाल देता और वह उससे बचने का हर सम्भव यत्न करते परन्तु यदि सफल न होते तो वह थोड़ी-सी बात करने का भी बहुत कम यत्न करते।  उनके भीतर हंसने वाली वृत्ति है परन्तु वह तभी दिखाई देती जब वह अपने दोस्तों के साथ होते, चाहे दोस्त अर्थ-शास्त्री ही क्यों न हों। यह देख कर बहुत सकून मिलता कि वह हंसते भी हैं तथा चुटकले भी सुना सकते हैं। हमारे साथ उन्होंने ये दोनों बातें कभी नहीं कीं। उनकी एक और मज़ेदार बात लोगों के नाम रखना है। उन लोगों को नहीं पता कि हमारे एक चाचा जी ‘जौहन बाबू एक और चाचा जी जियूल बाबू और तीसरे जिनकी पगड़ी बहुत तीखी होती वाले’ थे। मम्मी उनके लिए ‘गुरुदेव’ और हम तीनों ‘किक, छोटी नान और छोटू राम’, हैं। उनके द्वारा रखे गए कुछ नाम ज्यादा सख्त थे। जहां तक मेरी सोच थी, मेरे मम्मी को कोई पराजित नहीं कर सकता था। वह किसी भी समय, कुछ भी कर सकते थे, कहीं भी जा सकते थे, किसी से भी निपट सकते थे-सिवाय मेरे डैडी के। उन्होंने पूरा घर अकेले ही सम्भाला।

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