यादों और किताबों में सिमटती सोन चिरिया

वह हमारे गीतों में आती है, किस्सों में आती है, अलंकारों में आती है और प्राचीन भारत के समृद्ध पारिस्थितिकीय इतिहास में आती है। मगर वर्तमान में वह धीरे-धीरे लुप्त होकर अब सिर्फ हमारी यादों और किताबों तक सिमट जायेगी। जी हां, हम सोन चिरिया या सोन चिरैय्या अथवा ग्रेट इंडियन बस्टर्ड की ही बात कर रहे हैं, जिसका वैज्ञानिक नाम अर्देवोटिस निग्रिसेप्स है और आईयूसीएन ने इसे अत्यंत संकटग्रस्त प्रजाति के खाने में डाल रखा है। इसे हिंदी में सोन चिरैय्या और राजस्थानी में गोडावण कहते हैं। सोन चिरैय्या लगभग एक मीटर ऊंची होती है, इनमें नर का वजन आमतौर पर 11 से 15 किलो होता है, जबकि मादा 4 से 7 किलो की ही होती है। इसका जीवनकाल 15 से 20 साल का होता है। अगर ये जंगल में हों तब। इसके लुप्त होते जाने की पारिस्थितिकीय समस्या तो है ही, एक समस्या यह भी है कि यह साल में केवल एक अंडा देती है और उसे भी जमीन पर देती है, जिसे आमतौर पर कुत्तों द्वारा नष्ट कर दिया जाता है। इसलिए भारत की यह खास चिड़िया जो अनेकों किस्सों और रहस्यों को अपने साथ समेटे है, धीरे-धीरे लुप्त होने की कगार पर है, जबकि इसके संरक्षण के लिए महाराष्ट्र और राजस्थान में विशेष प्रयास हो रहे हैं।  महाराष्ट्र में तो ननाज माढोक अभ्यारण्य ही है, जो सिर्फ सोन चिरिया के लिए ही समर्पित है, मगर हैरानी की बात यह है कि इस साल के शुरू में ननाज अभ्यारण्य में किये गये सर्वे में कोई भी सोन चिड़िया नहीं मिली। जबकि 1979 में स्थापित किया गया यह सोन चिरिया के लिए विशेष अभ्यारण्य महाराष्ट्र के सोलापुर ज़िले में स्थित है और इसका क्षेत्रफल 8496 वर्ग किलोमीटर है। यह सोलापुर के ननाज, मांडा, मोहल, कर्नाला और अहमदनगर ज़िला के कर्जत, श्रीगाेंदा और नवाड़ा इलाकों में फैला है। यह इकोरिज्म डेक्कन थॉर्न स्क्रब फॉरेस्ट में आता है, जहां उष्णकटिबंधीय जलवायु और थोड़ी बहुत घास, झाड़ी और विरले पेड़ पाए जाते हैं। वैसे साल 2018 में इनकी अनुमानित संख्या 150 थी। राजस्थान और महाराष्ट्र के अलावा सोन चिरिया गुजरात के कच्छ क्षेत्र में और कर्नाटक व आंध्र प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में भी पायी जाती है। इसके सिर के ऊपरी भाग में एक काली टोपी, ब्लैक कैप होती है। गर्दन स्पष्ट रूप से भूरे रंग की होती है और नर सोन चिरिया में प्रजनन काल के दौरान गले पर पाउच देखा जाता है। इसके बदौलत वह गहरे स्वर के बुलंद नाटीय आवाज़ निकालते हैं, जो आधा किलोमीटर तक सुनायी देती है। 
सोन चिरिया सुबह और शाम सक्रिय रहती है। दिन के समय यह सुस्ती में होती है। मानसून के दौरान यह प्रजनन करती है, तब नर मादा को बुलाने के लिए अपने पाउज से आवाज़ निकालता है। सोन चिरिया अपना घोंसला जमीन पर बनाती है और आमतौर एक या कभी कभी दो अंडे देती है। एक महीने में इसके निष्क्रिय बच्चे उड़ान भरने के काबिल हो जाते हैं। नर सोन चिरिया बच्चों की देखभाल में जरा भी रूचि नहीं लेते। मादा ही बच्चों को पालती है। सोन चिरिया के इस तरह लुप्त होने के कगार पर पहुंचने का कारण इनकी कमजोर दृष्टि है, जिस कारण ये बिजली के तारों से पंसकर मारे जाते हैं। अकेले थार मरूस्थल के क्षेत्र में ही 18 से 20 सोन चिरिया हर साल मरी पायी जाती हैं, जोकि इनकी कुल आबादी का 15 से 18 प्रतिशत होती हैं। क्योंकि इनका आवास घास के मैदानों और खेती के बीच होता था, लेकिन अब घास के मैदान खत्म हो रहे हैं और खेती वाली जगहों पर सड़कें, बिजली के तार और रिन्यूएबल एनर्जी योजना के ढांचे खड़े हो जाने के कारण इनके आवास की समस्या पैदा हो गई है। 
 -इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर 

#यादों और किताबों में सिमटती सोन चिरिया