केन्द्र एवं पंजाब के मध्य बढ़ते टकराव को कम करने की ज़रूरत

लम्बे ऐतिहासिक काल में पंजाब ने बहुत से उतार-चढ़ाव देखे हैं। मुगल काल और अंग्रेज़ों के शासन से पहले एक समय था जब केन्द्रीय एशिया से बार-बार हमलावर आकर पंजाब में कत्लेआम करते थे और लूट मचाते थे। इसके बाद पंजाब ने लम्बी अवधि तक म़ुगल साम्राज्य का समय देखा। इस काल में भी लोगों पर जुल्म और अत्याचार हुए और उनकी धार्मिक स्वतंत्रताओं पर भी प्रतिबंध लगे। पंजाब के लोगों ने इन सभी स्थितियों का दृढ़ता और दलेरी के साथ मुकाबला किया।
आज़ादी के उपरांत कांग्रेस की श्रीमती इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली सरकार से वर्ष 80 में केन्द्र एवं पंजाब के मध्य बड़ा टकराव हुआ था। इस टकराव की शुरुआत पंजाब से दरियाई पानी और अन्य मुद्दों पर हुए अन्याय के विरुद्ध धर्म युद्ध मोर्चे के रूप में हुई थी तथा आन्दोलन लम्बा होने और आन्दोलन चलाने वाली पार्टी अकाली दल के नियंत्रण से इसके बाहर हो जाने से यह आन्दोलन हिंसक रूप भी धारण कर गया था और इसमें गर्मदलों की भागीदारी भी बढ़ गई थी। इस अवधि के दौरान घटित घटनाक्रमों में से ही साका  ब्लू स्टार, श्रीमती इंदिरा गांधा की हत्या और नवम्बर 1984 के सिख कत्लेआम जैसी घटनाएं निकलीं। नि:सन्देह इस अवधि के दौरान पंजाबियों का बड़ा जानी और आर्थिक नुकसान हुआ। परन्तु इसके बाद कांग्रेस ने पंजाब एवं पंजाबियों के साथ कोई बड़ा टकराव करने से निरन्तर संकोच किया, अपितु डा. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में बहुत-से पग उठा कर इस टकराव को कम किया गया। सैनिक और अन्य कई क्षेत्रों में बड़े पदों पर सिखों की नियुक्तियां करके सिख भाईचारे में बेगानेपन की भावना को भी दूर करने के प्रयास  किये गये। 
परन्तु अब 2019 में केन्द्र में श्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में बड़े बहुमत से पुन: भाजपा की सरकार बनने के बाद केन्द्र और पंजाब के मध्य पुन: बड़े टकराव उत्पन्न होने शुरू हो गये हैं। इनकी शुरुआत तीन कृषि संबंधी कानून बनाने के साथ हुई, जिन्हें पंजाब के 31 संगठनों ने एकजुट होकर मानने से इन्कार कर दिया और इनके विरुद्ध संघर्ष छेड़ दिया। इस संघर्ष को चलते हुए लगभग 6 माह का समय हो गया है। इस अवधि के दौरान जिस प्रकार श्रीमती इंदिरा गांधी की सरकार के समय केन्द्र और आन्दोलनकारी अकाली दल के मध्य अनेक बैठकें हुईर्ं परन्तु मसले का कोई समाधान नहीं निकल सका था, उसी तरह अब किसान आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे किसान संगठनों और केन्द्र के मध्य भी लगभग 11 बैठकें हुईं, जिनमें मसले का कोई समाधान नहीं निकल सका। पंजाब से उठा यह आन्दोलन अब हरियाणा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, बिहार, ओडीशा और कई अन्य राज्यों तक भी फैल चुका है। किसान संगठनों के नेता किसान पंचायतें करके इसे दूसरे राज्यों तक फैलाने के लिए निरन्तर प्रयास कर रहे हैं। परन्तु अभी तक केन्द्र सरकार ने ऐसा कोई संकेत नहीं दिया कि वह उक्त कृषि कानूनों को वापिस ले लेगी। बातचीत के अंतिम दौर के दौरान उसने इन कानूनों में कुछ संशोधन करने की बात ज़रूर कही थी परन्तु किसान संगठनों ने ऐसे संशोधनों के स्थान पर तीनों कानूनों को वापिस लेने की मांग पर ही अधिक ज़ोर दिया, जिस कारण केन्द्र सरकार ने अपना रवैया और अधिक कड़ा कर लिया है। 
अब तो पंजाब में यह भावना भी बढ़ती जा रही है कि मोदी सरकार तीन कृषि कानूनों के विरुद्ध आन्दोलन आरम्भ करने के परिणामस्वरूप पंजाब को सबक सिखाने के रास्ते पर चल पड़ी है। ननकाना साहिब साके की पहली शताब्दी के अवसर पर सिख जत्थे को पाकिस्तान न जाने देना और फिर राज्य से फोर्टीफाइड चावलों की अचानक मांग करके छंटाई किए हुए चावल उठाने से इन्कार करके तथा अब गेहूं की खरीद संबंधी अनेक तरह की शर्तें लगा कर केन्द्र सरकार निरन्तर इसी प्रकार के संकेत दे रही है। यह कुछ संतोषजनक बात है कि चावलों का मसला काफी सीमा तक सुलझ गया है परन्तु इसके कारण लगभग एक माह तक राज्य के शैलर बंद रहे हैं  और उसके कारण उन्हें करोड़ों रुपये का नुकसान हुआ है। अब केन्द्र सरकार द्वारा गेहूं की खरीद के लिए किसानों को सीधी अदायगी करने पर ज़ोर देना और इसके साथ ही एफ.सी.आई. के पास अपनी ज़मीनों का मालिकाना संबंधी रिकार्ड जमा करवाने की शर्त लगाने से गत 6 माह से केन्द्र  सरकार तथा किसानों के मध्य चल रहा टकराव और भी बेहद तीव्र हो गया है। 5 अप्रैल को पंजाब के 22 ज़िलों में 62 से भी अधिक स्थानों पर 11 से 6 बजे तक किसानों, मंडी कर्मचारियों, पल्लेदारों, मुनीमों, आढ़तियों और ट्रांसपोर्टरों ने प्रदर्शन किये हैं। इसी दिन बाघा पुराना में भी किसान संगठनों और आढ़तियों द्वारा एक बड़ी रैली की गई है। इन सभी प्रदर्शनों में यह मांग की गई है कि तीन कृषि कानून वापिस लिए जाएं एवं गेहूं की खरीद संबंधी सीधी अदायगी करने और ज़मीनों की फर्दें ऑनलाइन एफ.सी.आई. के पास जमा करवाने की शर्त वापिस ली जाए। पंजाब के किसान, आढ़ती एवं अनाज के मंडीकरण में लगे अन्य पक्ष यह महसूस कर रहे हैं कि पंजाब की मंडी व्यवस्था को तोड़ने के लिए और कृषि कानूनों के विरुद्ध पंजाब के आन्दोलन को दबाने हेतु ही केन्द्र सरकार द्वारा ऐसा व्यवहार अपनाया गया है। दूसरी तरफ केन्द्र सरकार ने यह पक्ष रखा है कि पंजाब के अलावा अन्य सभी 9 राज्यों ने गेहूं एवं धान की सरकारी खरीद संबंधी सीधी अदायगी की प्रणाली को अपना लिया है, इसलिए पंजाब को भी यह व्यवस्था करनी चाहिए। परन्तु पंजाब के किसान संगठनों और आढ़तियों का पक्ष यह है कि प्रत्येक राज्य की अपनी-अपनी अलग-अलग स्थितियां हैं। इसलिए केन्द्र सरकार द्वारा फसलों के मंडीकरण संबंधी एक जैसी व्यवस्था अपनाने की ज़िद नहीं करनी चाहिए। इनका यह भी कहना है कि पंजाब में किसानों एवं आढ़तियों को बीच दशकों पुराने संबंध हैं और वे अनेक पहलुओं से एक-दूसरे पर निर्भर हैं। इसलिए उनको सीधी अदायगी की आवश्यकता नहीं, बल्कि यह चयन किसानों पर छोड़ देना चाहिए कि उन्होंने सीधी अदायगी लेनी है या आढ़तियों के माध्यम से अदायगी प्राप्त करनी है। इसी तरह गेहूं की खरीद के लिए एफ.सी.आई. के पास रिकार्ड जमा करवाने के मामले में किसानों की ओर से यह पक्ष पेश किया जा रहा है कि लगभग 40 फीसदी किसान ठेके पर ज़मीन लेकर कृषि करते हैं। बहुस-से प्रवासी पंजाबी विदेशों में रहते हैं। उनके खाते भी मुशतरका हैं। इस कारण कृषि करने वाले किसानों को ज़मीनी रिकार्ड जमा करने और उसके आधार पर अदायगी प्राप्त करने में मुश्किलें पेश आ सकती हैं। 
इस समय राज्य में कृषि करने वालों और ज़मीन के मालिकों के बीच टकराव और मुकद्दमेबाज़ी को रोकने के लिए सरकार की ओर से फसलों की गिरदावरियां ज़मीनों के मालिकों के नाम ही की जाती रही हैं। यदि ज़मीनी रिकार्ड जमा करवाने के मामले में काश्तकारों के रूप में कृषि करने वाले किसानों के नाम दर्ज होते हैं तो कुछ समय के बाद ज़मीनों के मालिकों को काश्तकारों से ज़मीनें खाली करवानी मुश्किल हो जाएंगी। क्योंकि पंजाब का मुज़ारा एक्ट यह कहता है कि यदि 3-4 वर्ष तक किसी ज़मीन पर कोई काश्तकार कृषि करता है और काश्तकार के रूप में उसके नाम गिरदावरियां भी हो जाती हैं तो ऐसे काश्तकार से ज़मीन का मालिक ज़मीन खाली नहीं करवा सकता। इससे पंजाब में ज़मीन मालिकों और काश्तकारों के बीच टकराव और मुकद्दमेबाज़ी बढ़ेगी। चाहे केन्द्र सरकार की ओर से इस संबंध में यह कहा जा रहा है कि ऐसे फार्म बनाए जा सकते हैं जिनमें काश्तकार ज़मीन की मालिकी संबंधी दावा नहीं कर सकेगा परन्तु कानूनी विशेषज्ञों का मत है कि पंजाब के मुज़ारा एक्ट के कारण ऐसे फार्मों का कोई कानूनी महत्व नहीं होगा। इसलिए ज़मीनी रिकार्ड जमा कराने की शर्त से पंजाबी समाज में टकराव और अविश्वास बढ़ना लाज़िमी है और इससे ज़मीनों के मालिक ठेके पर ज़मीन देने से भी गुरेज़ करने लगेंगे और पंजाब की ज़मीनें बंजर बन सकती हैं। 
हम समझते हैं कि पंजाब की विशेष स्थितियों के कारण गेहूं की सीधी अदायगी और इसके लिए ज़मीनी रिकार्ड जमा कराने की केन्द्र द्वारा लगाई जाने वाली शर्तें नि:संदेह किसानों, आढ़तियों और ठेके-बटाई पर ज़मीनें देने वाले गैर-काश्तकार  लोगों के बीच अनेक प्रकार के मामले पैदा करेंगी। इसलिए केन्द्र सरकार को पूरे देश में एक व्यवस्था लागू करने के नाम पर पंजाब पर यह शर्तें नहीं थोपनी चाहिएं, बल्कि गेहूं की खरीद पहले चल रही व्यवस्था के आधार पर ही करनी चाहिए। यदि केन्द्र सरकार को इस व्यवस्था में कमियां नज़र आती हैं तो अगली फसल से पहले-पहले केन्द्र सरकार को राज्य सरकार, आढ़तियों और किसान प्रतिनिधियों के साथ बातचीत करके मौजूदा प्रणाली में सुधार करने के लिए आम सहमति बनाने के यत्न करने चाहिएं। जिस तरह देश भर के किसान प्रतिनिधियों से बातचीत किये बिना तीन कृषि कानून बना कर केन्द्र सरकार ने भीषण गलती की है, उसी तरह की गलती अब पंजाब की मंडीकरण की व्यवस्था को एक-तरफा तौर पर बदलने के यत्न करके दोबारा नहीं करनी चाहिए। इससे कोई मामला हल होने की बजाय केन्द्र और पंजाब के भिन्न-भिन्न वर्गों के लोगों के मध्य टकराव बढ़ेंगे और यह बढ़ते हुए टकराव अमन-कानून की कोई गंभीर स्थिति पैदा कर सकते हैं। भाजपा की श्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार को पिछले कांग्रेसकाल के इतिहास से भी सबक लेना चाहिए। पंजाब के साथ निरन्तर बढ़ाया टकराव न देश के हित में है और न ही पंजाब के हित में। भाजपा और इसकी केन्द्र सरकार के लिए भी यह ठीक नहीं होगा।  हम अभी भी उम्मीद करते हैं कि केन्द्र और पंजाब के मध्य उपरोक्त मुद्दों पर जो टकराव बढ़ रहा है, उसे दूर करने के लिए केन्द्र सरकार शीघ्र कोई ठोस कदम उठाएगी।