अत्यधिक अपरिपक्वता का शिकार हुए चिराग

गत वर्ष बिहार में हुए विधानसभा चुनावों में मुख्यमंत्री पद की बाट जोह रहे लोक जनशक्ति पार्टी प्रमुख चिराग पासवान राजनीति के दंगल में चारों खाना चित्त हो गए हैं। दरअसल उन्हें मुख्यमंत्री नितीश कुमार के ‘धोबिया पछाड़’ का शिकार होना पड़ा है क्योंकि चिराग ने चुनावों के दौरान नितीश के विरुद्ध जमकर बयानबाड़ी की थी और उनकी पूरी कोशिश थी कि नितीश राज्य का मुख्यमंत्री न बनने पाएं। यह और बात है कि उनके नेतृत्व में लोक जन शक्ति पार्टी ने कुल खड़े किये गए 137 उम्मीदवारों में से केवल एक उम्मीदवार ने ही जीत हासिल की थी। परन्तु जनता दल यूनाइटेड के नेताओं का मानना है कि चिराग के उम्मीदवारों के चलते उन्हें लगभग 30 सीटों पर नुक्सान उठाना पड़ा है। चुनाव में एक ओर तो चिराग खुद को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का हनुमान बता रहे थे तो दूसरी तरफ वह भारतीय जनता पार्टी के लगभग 25 बागी नेताओं को लोजपा का उम्मीदवार भी बना रहे थे। चुनाव के कुछ ही समय पूर्व जब राम विलास पासवान की मृत्यु हो गई थी, उस समय भले ही सहानुभूतिवश पार्टी नेताओं ने उनके प्रति समर्थन जताते हुए उनके हर फैसले पर खामोशी जताई हो परन्तु एक न एक दिन लिहाज़ व संकोच का यह पर्दा भी हटना था और नितीश कुमार को भी सही समय पर चिराग को उनकी राजनीतिक हैसियत का अंदाज़ा कराना था। केंद्रीय मंत्रिमंडल में विस्तार की इन दिनों चल रही खबरों के बीच यह चर्चा ज़ोरों पर उठी कि जदयू केंद्रीय मंत्रिमंडल में अपनी हिस्सेदारी चाह रहा है। हालांकि इस समय केवल रिपब्लिकन पार्टी के राम दास अठावले ही केंद्रीय मंत्रिमंडल में गैर भाजपायी मंत्री हैं, परन्तु केंद्रीय मंत्री राम विलास पासवान की मृत्यु के बाद लोक जन शक्ति पार्टी का भी केंद्रीय मंत्रिमंडल में प्रतिनिधित्व समाप्त हो चुका है। लिहाज़ा इस बात की संभावना थी कि स्व. राम विलास पासवान की जगह उनके पुत्र चिराग पासवान को केंद्रीय मंत्रिमंडल के संभावित विस्तार में जगह मिले। अभी चिराग केंद्रीय मंत्री बनने के सपने संजो ही रहे थे कि अचानक उनपर पार्टी में विद्रोह जैसा वज्रपात हो गया। इसके सूत्रधार तो बेशक उनके सांसद चाचा पशुपति कुमार पारस बने परन्तु दरअसल यह सारा खेल नितीश कुमार जैसे राजनीति के उस मंझे हुए खिलाड़ी द्वारा रचा गया, जो ज़रूरत पड़ने पर नरेंद्र मोदी, लालू प्रसाद यादव और शरद यादव जैसे नेताओं के साथ भी राजनीति की शतरंज पर सफलतापूर्वक शह-मात के खेल खेल चुके हैं। बहरहाल, लोजपा का राम विलास पासवान के समय वाला स्वरूप अब खत्म हो चुका है। न तो चिराग पासवान में और न ही उनके चाचा पशुपति पारस में इतनी सलाहियत व योग्यता है कि लोजपा को उस स्वरूप में ला खड़ा कर सकें जहां तक राम विलास पासवान ले गए थे। सत्ता में बने रहने के सफल समीकरण बनाना व उसकी आहट को पहचानना राम विलास पासवान को इतना आता था कि लालू यादव ने उन्हें  ‘राजनीति का मौसम वैज्ञानिक’ बता डाला था। परन्तु ठीक इसके विपरीत लोजपा की बागडोर हाथ आते ही चिराग न तो नितीश कुमार से ताल मेल बिठा सके न ही अपने परिवार के सदस्यों से, और मोदी का हनुमान बताने के बावजूद न ही भाजपा से। नतीजतन उनके सांसद चाचा पशुपति कुमार पारस ने अपने साथ 5 लोजपा सांसदों के समर्थन का दावा करते हुए इसे असली लोजपा घोषित कर दिया और चिराग को अकेला छोड़ दिया। इतना ही नहीं चिराग देर से ही सही परन्तु जब इस ‘राजनीतिक विस्फोट’ के बाद अपने चाचा से मिलने उनके घर पहुंचे तो दो घंटे तक प्रतीक्षा करने के बावजूद उन्होंने चिराग से भेंट करना मुनासिब नहीं समझा क्योंकि अब तक काफी देर हो चुकी थी। इस पूरे लोजपा विघटन प्रकरण से एक और बात सामने आती है कि संपत्ति और सत्ता की विरासत संभालने में बहुत अंतर होता है। भारतीय राजनीति में शायद इंदिरा गांधी अकेली अपवाद के रूप में गिनी जाने वाली नेता थीं जिन्होंने अपने पिता स्वर्गीय पंडित जवाहर लाल नेहरू की मृत्यु के पश्चात् बड़ी ही सूझ बूझ, कुशलता व मज़बूती के साथ अपने पिता की विरासत को संभाला। वह घर से लेकर 1947 से 1964 तक नेहरू जी के साथ अधिकांश विदेशी दौरों पर साथ रहकर राजनीति के गुण सीखती थीं। वह नेहरू जी की मृत्यु के पश्चात् राज्य सभा की सदस्य बनीं। फिर स्व. लाल बहादुर शास्त्री के मंत्रिमंडल में सूचना प्रसारण मंत्री बनीं। इस तरह सिलसिलेवार तरीके से वह प्रधानमंत्री के पद तक पहुंचीं। उसके बाद उनकी सफलता के किस्से इतिहास में दर्ज हैं। परन्तु यह कहना गलत नहीं होगा कि स्व. इंदिरा गांधी जिन प्रतिभाओं की स्वामिनी थीं, उनके बाद राजीव गांधी कांग्रेस को उस प्रकार का नेतृत्व नहीं दे सके। वजह यही थी कि उन्होंने राजनीति के गुण हर समय मां के साथ रहकर नहीं सीखे थे, न ही उन्हें इसमें दिलचस्पी थी। भारतीय राजनीति में इस तरह के सैकड़ों उदाहरण मिलेंगे कि दादा या पिता ने तो अपने जीवनकाल में राजनीतिक कौशल का लोहा मनवाया परन्तु उनकी संतानों ने पुत्र या पुत्री होने की वजह से राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं तो ज़रूर पाल लीं परन्तु उस तरह की सलाहियत व योग्यता नहीं दिखा सके जो उनके दादा, पिता या माता ने दिखाई थीं। नि: संदेह चिराग पासवान भी राजनीति के एक ऐसे ही खिलाड़ी थे जो कभी फिल्म में अपना भविष्य तलाश कर रहे थे परन्तु उस क्षेत्र में असफल होने के बाद उन्होंने राजनीति का रुख किया। गोया जो समय राजनीति के गुण सीखने का था वह उन्होंने अन्यत्र बर्बाद किया। परिणाम स्वरूप नितीश कुमार से टकराने व अपने ही राजनीतिक व पारिवारिक कुनबे को साथ न ले चल सकने के कारण उन्हें यह दिन देखना पड़ा।