मेरी दिल्ली, मेरा मीशा तथा मंडेर

दिल्ली के पूर्व पुलिस कमिश्नर गुरदयाल सिंह मंडेर के अनुभव ने मुझे एस.एस. मीशा तथा दिल्ली में अपना 32 वर्षों का समय याद करवा दिया है। 1966 में मेरा तथा गुरदयाल मंडेर का कार्यालय कज़र्न रोड दिल्ली की 1947 में पाकिस्तान से आए शरणार्थियों के निर्मित बैरकों में था। उन्हे स्थायी ठिकाने मिल जाने के बाद ये बैकरें सरकारी कार्यालयों के लिए इस्तेमाल की जाने लगीं। मंडेर उस समय एस.पी.  ट्रैफिक था। उसका कार्यालय नीचे वाली बैरक में था और मेरा ऊपरी मंज़िल वाली में। एक बार पंजाबी कवि एस.एस. मीशा उसे मिलने आया तो उसे मंडेर से पता चला कि ऊपरी मंज़िल वाली बैरक में मैं बैठता हूं। मंडेर का सहायक मीशा को मेरे कार्यालय में छोड़ गया और कुछ समय बाद मैं और मंडेर अक्सर ही एक दूसरे को मिलते रहे। 
उस समय दिल्ली के पुलिस कर्मचारियों की संख्या लगभग पचास हज़ार थी जिनमें से एक चौथाई महिलाएं थीं। एक दो बार मैंने गुरदयाल की मदद से अपने मित्रों के ट्रैफिक चालान भी माफ करवाये। गुरदयाल नई दिल्ली के जिमखाना क्लब का सदस्य था तथा वह मेरी तरह कॉफी हाऊस नहीं जाता था। हमारी साझ मीशा के कारण बनी जो शीघ्र ही पारिवारिक साझ में बदल गई। यह बात अलग है कि समय के साथ हमारी साझ अंतिका में दर्ज एस.एस. मीशा के उस शेअर जैसी रह गई जिसमें रूप-रेखा भूलने का ज़िक्र है। मीशा मित्र मोह का मुजसमा था। ऐसे ही नहीं उसके निधन के 35 वर्ष बाद हमारे सांझे मित्र बरजिन्दर सिंह हमदर्द ने उसकी रचनाओं को सहज एवं सुरीली आवाज़ में गा कर तथा उनकी सीडीज़ तैयार करवा कर उसे तथा उसके प्यार-मुहब्बत वाले स्वभाव को अमर किया। 
फिर जब मंडेर की पदोन्नति दिल्ली के पुलिस कमिश्नर के रूप में हो गई तो उसे इंडिया इटरनैशनर सैंटर के सामने लोधी रोड की कोठी अलाट हो गई और मैं भारती नगर की 63 नम्बर कोठी में आ गया। फिर तो हम दोनों के परिवार एक-दूसरे से अच्छी तरह अवगत हो गये। कभी कभार मंडेर तथा उसकी पत्नी सुखमिंदर उर्फ छोटी से भी शाम की सैर के समय मुलाकात हो जाती। दोनों बड़े प्यार से मिलते। 1985 से मेरे चंडीगढ़ आने के बाद हमारी मुलाकतां में ऐसा विघ्न पड़ा कि गत कई वर्षों से मुलाकात ही नहीं हुई। उसके चले जाने का समाचार भी मीडिया के माध्यम से मिला। 
यह भी सबब की बात है कि मेरी लम्बे ठहराव वाली दिल्ली बारे बलबीर माधोपुरी की पुस्तक ‘दिल्ली इक विरासत’ का नया संस्करण भी इन दिनों में ही मेरे हाथ लगा है। मेरी तरह वह भी दोआबे वाला है। जालन्धर के गांव माधोपुर से। मैं उसकी आत्मकथा ‘छांगिआ रुख’ से काफी प्रभावित था, परन्तु यह नहीं जानता था कि उसका खोजी स्वभाव दिल्ली की नींव खगालने  में भी कमाल का है। आरसी पब्लिशर्स दिल्ली द्वारा प्रकाशित 395 रुपये की इस पुस्तक के 176 पृष्ठों में से लगभग आधे उस दिल्ली की बात करते हैं जो अढ़ाई हज़ार वर्षों में सात बार, उजड़ चुकी है। 
बलबीर माधोपुरी ने इनमें से इन्द्रप्रस्थ, लाल कोट, किला राय पिथोरा, कुतुब मीनार, अल्लाही दरवाज़ा, अलतमश का मकबरा, अल्लाही मीनार, लोह-सतम्भ, भूल-भलैया, हौज-ए-समरी, जहाज़ महल, गंधक की मसजिद, राजो की बैन, बलबन का मकबरा, सुल्तान गढ़ी, सीरी, हौज़ खास, लोधी गर्डन, मकबरा खाना-ए-खाना, सब्ज़ बुर्ज, डीयर पार्क, हमायूं का मकबरा, मलिका मुनीरका दरवाज़ा, सफदरजंग का मकबरा, जहांपनाह, कोटला फिरोज़शाह तुगलकाबाद, मस्जिद मोठ शाहजहानाबाद तथा लाल किला की योजनाबंदी, प्रसंग तथा महिराबों एवं गुंबदों की खूबसूरती का बहुत बढ़िया वर्णन है, लेखक की अपनी टिप्पणी सहित जो उसने आंखों देखी और पूछताछ करके की है, भी किताब में दर्ज है।   
इस पुस्तक में प्रचीन मस्जिदों तथा मकबरों के अतिरिक्त ऐतिहासिक गुरुद्वारों तथा मंदिरों का विवरण भी विस्तार में दिया है। नानक पियाओ, मजनूं दा टिल्ला, बंगला साहिब, बाला साहिब, शीश गंज, रकाब गंज, मोती बाग, दमदमा साहिब, माता सुंदरी तथा बंदा बहादर नामक 10 गुरद्वारों में से अधिकतर शाह आलम द्वितीय के कार्यकाल में बने जब माझा के प्रसिद्ध योद्धा बघेल सिंह ने चार अन्य कमांडरों की सहायता से तीस हज़ार सिख घुड़सवारों की मदद से पूरी दिल्ली पर कब्ज़ा कर लिया था। उसने तय किया कि अनेक ऐतिहासिक गुरुधामों की तो मुगलों ने मसीतें बना ली हैं, उसने दिल्ली से पीछे हटने के लिए शाह आलम से बड़ी मांग ऐतिहासिक सिख धामों पर गुरुद्वारे स्थापित करने की रखी। इस सभी गुरुद्वारों के पास बहुत बड़े हाल कमरे, लंगर हाल, मुसाफिर खाने तथा बाग हैं जिन पर नतमस्तक होने के लिए पूरे विश्व की सिख संगत ही नहीं आती अपितु सिंधी तथा अन्य परिवार भी आते हैं। शाह आलम ने घबेल सिंह की मांग पर फूल चढ़ाते हुए गुरधामों के लिए स्थान ही रिक्त नहीं करवाये, अपितु नज़राने भी दिये। बघेल सिंह ने जिस स्थान पर तीस हज़ार घोड़े रखे थे उसे आज तीस हज़ारी किया जाता है। 
माधोपुरी ंपजाबी साहित्य का उद्यमी, हठी तथा समर्पित योद्धा है जो पिछड़े तथा प्रताड़ित लोगों की हौंसला आफज़ाई के लिए सदैव तत्पर रहता है। प्रस्तुत पुस्तक तो यह भी बताती है कि मुगलों से सात-आठ सौ वर्ष पहले मुहम्मद-बिन-कासिम जैसे अरबी धाड़वी अखंड हिन्दुस्तान के उत्तरी राज्यों पर काबिज़ होते आए थे। यहां के निवासी अहिंसा के पुजारी थे। इतिहास गवाह है कि इस प्रकार की राजनीतिक उथल-पुथल विश्व भर में सदियों से होती आई है। आज के दिन भारत में रह रहे मुसलमानों, ईसाइयों या पुरतगालियों का कोई दोष नहीं। इस मामले को प्रतिदिन उभारना अपने हिन्दू बुज़ुर्गों की निंदा करने के समान है। 
प्रस्तुत लेख की विषय वस्तु गुरदयाल सिंह मंडेर की दिल्ली ने तैयार की थी। प्रस्तुत शब्द मंडेर के प्रति श्रद्धांजलि भी हैं। 
अंतिका
—एस.एस. मीशा—
शाम दी न सवेर दी गल्ल है
वक्त दे हेर फेर दी गल्ल है
तेरे चेहरे दा ज़िक्र हुआ था
लोक समझे सवेर दी गल्ल है
मैंनूं तेरा मुहांदरा भुल्लिया
सोच, किन्ने हनेर दी गल्ल है