बलराज साहनी के अनसुने किस्से


फिल्म ‘गर्म हवा’ में बलराज साहनी ने एक गुस्से से भरे मगर सदबुद्धि मुस्लिम व्यक्ति की भूमिका निभाई थी, जो विभाजन के दौरान पाकिस्तान जाने से इंकार कर देता है। आलोचक इसे उनके फिल्मी करियर का सर्वश्रेष्ठ अभिनय मानते हैं। लेकिन इसे वह स्वयं पर्दे पर न देख सके, क्योंकि यह उनकी आखिरी फिल्म साबित हुई। इस फिल्म के लिए अपना आखरी डायलॉग (इंसान कब तक अकेला जी सकता है?) डब करने के बाद जब बलराज साहनी घर लौटे तो उन्हें बताया गया कि अगले दिन उनके कुछ वामपंथी दोस्त आवश्यक वार्ता के लिए उनके पास आयेंगे। क्या बात होनी है, इसका उन्हें अंदाज़ा था, लेकिन विश्वास कम था। वैसे भी उन दिनों वह बहुत दुखी थे कि कुछ समय पहले ही उनकी बेटी शबनम का असमय निधन हो गया था। इसलिए रात बेचौनी में करवटें लेते हुए गुजरी।
राजनीतिक दृष्टि से सक्रिय व सजग बलराज साहनी ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की पूर्वी पाकिस्तान (अब बंग्लादेश) की आज़ादी में भूमिका की खुलकर प्रशंसा की थी, बावजूद इसके कि ऐसा करना उनकी पार्टी (भाकपा) की नीति के विरोध में था। अगले दिन उनके दोस्त इस सूचना के साथ आए कि चूंकि वह पार्टी के वफादार नहीं हैं, इसलिए उन्हें पार्टी से निकाला जाता है। जिस पार्टी व विचारधारा के लिए उन्होंने अपना जीवन समर्पित कर दिया था, उसके लिए जेल गये थे, उसने उनको व्यक्तिगत राय तक रखने की स्वतंत्रता नहीं दी। बेटी के निधन के बाद उनके लिए यह दूसरा बड़ा सदमा था। वह बर्दाश्त न कर सके। उन्हें ज़बरदस्त दिल का दौरा पड़ा। अपनी मृत्युशैय्या पर लेटे हुए बलराज साहनी ने अपनी पत्नी संतोष चंदोख से कहा कि वह ‘दास कैपिटल’ (वामपंथी आन्दोलन की बाइबिल) उनके तकिये के पास लाकर रख दें। उसी रात बलराज साहनी का मुंबई में निधन हो गया। यह 13 अप्रैल 1973 की बात है। तब उनके 60 वर्ष का होने में सिर्फ 18 दिन शेष थे।
बलराज साहनी का जन्म 1 मई 1913 को बहेरा (रावलपिंडी, अब पाकिस्तान में) में एक सम्पन्न पंजाबी परिवार में हुआ था, जो व्यापार से जुड़ा हुआ था। 
उनका नाम युधिष्ठिर रखा गया था, जो स्कूल के ज़माने तक चला, लेकिन बाद में बदलकर बलराज साहनी कर दिया गया। उनके बचपन के बारे में उनके भाई, हिंदी के विख्यात लेखक, भीष्म साहनी ने अपनी पुस्तक ‘बलराज, मेरा भाई’ में लिखा है, ‘साहसिक पहल और कुछ नया करने की चाहत, कल्पनाशील दिमाग, उनके लड़कपन के वर्षों के गुण थे, यह गुण न केवल उनकी शिक्षा में प्रकट होते थे बल्कि उन खेलों में भी जो वह खेलते थे। 
लाहौर यूनिवर्सिटी से हिंदी व अंग्रेजी साहित्यों में डबल एम.ए. करने के बाद 1936 में बलराज साहनी ने दमयंती से शादी की, अपने पिता के बेहतरीन कारोबार में हिस्सा लेने से इंकार किया, टैगोर के शांतिनिकेतन (कोलकाता) में जाकर हिंदी व अंग्रेजी के अध्यापक बन गये और राष्ट्र निर्माण व स्वतंत्रता आंदोलन में हिस्सा लेने लगे। उनके बेटे अजय (परीक्षित) साहनी, जो अभिनेता हैं, का जन्म भी बंगाल में ही हुआ था। इसके बाद बलराज साहनी अपनी पत्नी व बच्चे को लेकर महात्मा गांधी की शरण में उनके वर्धा स्थित सेवाग्राम आश्रम में रहने के लिए चले गये। गांधीजी के आशीर्वाद से वह 1939 में लंदन चले गए, बीबीसी की हिंदी सेवा में काम करने के लिए। 
जब वह 1943 के आखिर में स्वदेश लौटे तो समर्पित वामपंथी थे। वह इप्टा में नियमित कर्मचारी और भाकपा के कार्ड होल्डर हो गए। बलराज साहनी के लिए इप्टा से फिल्मों में आना स्वाभाविक था, क्योंकि इप्टा के बहुत लोग फिल्मों से जुड़े हुए थे। इसलिए जब 1946 में वह मुंबई आए तो उन्होंने ‘इंसाफ’ पहली फिल्म की और फिर ख्वाजा अहमद अब्बास की ‘धरती के लाल’ की जिसमें उनकी पत्नी दमयंती हीरोइन थीं। 
दोनों पति पत्नी इसके अगले साल ‘गुड़िया’ में फिर साथ आए, लेकिन उसी साल दमयंती का निधन हो गया। चूंकि अजय व शबनम छोटे थे, इसलिए दो साल बाद यानी 1949 में बलराज साहनी ने अपनी फर्स्ट कजिन संतोष चंडोक से विवाह कर लिया, जिनसे उनकी एक बेटी सनोबर है, जो कैदियों के बीच अपनी समाज सेवा के लिए विख्यात है। स्वयं संतोष भी लेखिका व टीवी राइटर थीं। आज भी जब ‘ए मेरी जोहरा जबीं’ (व़कत) का गाना बजता है तो बलराज साहनी की याद ताज़ा हो जाती है।
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