चीन से कैसे निपट सकते हैं?

 

कुछ ही दिन पहले भारत के अरूणाचल प्रदेश के तवांग सैक्टर में चीन ने अतिक्रमण करने की कोशिश की है। इस भिड़ंत से पूरा भारत चिंतित है। कोई भी व्यक्ति इससे अलग-थलग रह नहीं सकता चाहे उसके राजनीतिक विचार किसी भी पार्टी से मेल खाते हों। विपक्ष संसद की कार्यवाही में बार-बार सवाल पूछ रहा है जोकि एक लोकतांत्रिक देश में जरूरी भी है, परन्तु सरकार स्पष्ट स्वर में कुछ कहने से इन्कार कर रही है। सरकार इतना तो कह ही सकती है कि राष्ट्रीय को सामने रखते हुए जहां तक संभव हो सूचना एक्सचेज करें। परन्तु इतना भी स्वीकार्य नहीं हो रहा। इसकी जगह कांग्रेस और भाजपा दोनों एक-दूसरे की राष्ट्रीय निष्ठा पर ही सवाल उठा रही है भाजपा के नेता कांग्रेस को चीन के पहले हमले पर हुए नुकसान की याद करवाकर चुप करवाना चाहती है। तब देश में कांग्रेस का शासन था। पं. जवाहर लाल नेहरू प्रधानमंत्री थे, जिन्होंने पंचशील के आसूल बनाये थे और शांतिप्रियता में चीन के संभावित हमले को भूल ही गये थे। चीनी हमला उनके लिए एक झटका ही था और हमें काफी नुकसान हुआ था। क्योंकि हम युद्ध के लिए तैयार ही नहीं थे। आज के मुकाबले हमारे बार्डर पर सैनिक तैयारी भी उतनी नहीं थी। न ही उन्नत हथियार थे। अब यह समय एक दूसरे पर लांछन लगाने का नहीं है। दोनों पक्षों में से कोई भी चीन के सामने घुटने टेकने की बात न करे। इसका कोई लाभ भी नहीं होने वाला। दुश्मन दोनों का चीन ही है। सांझा दुश्मन के लिए लोकतांत्रिक प्रणाली का हनन क्यों स्वीकार होगा?
चीन को शत्रु देश कहने में किसी मर्यादा का उल्लंघन नहीं होगा। उसका भारत के साथ व्यवहार मित्रतापूर्ण रहा ही कब है? जो मित्र नहीं होते, वे दुश्मन ही हो, यह जरूरी नहीं परन्तु उसने सदा तटस्थ रहने की जगह शत्रुतापूर्ण व्यवहार ही किया है। भारत-पाकिस्तान को जब-जब विश्व बिरादरी में एक आतंकवादी देश साबित करना चाहता था तब-तब उसने पाकिस्तान को इलज़ाम से बचाने की कोशिश की है। चीन को पिछले कुछ दशकों से लगता रहा है कि दुनिया की सबसे बड़ी ताकत बनकर उभर चुका है। अपने इस लक्ष्य में उसे भारत एक बाधा नज़र आने लगा है। सिर्फ इसलिए नहीं कि भारत भी एशिया में एक महाद्वीप जैसे आकार वाला बड़ा देश है, इसलिए भी भारत एक लोकतांत्रिक देश है। हो न हो चीन के एकदलीय निरंकुश शासन व्यवस्था के लिए यह चुनौती से कम नहीं है। भारत की विकासमान गतिशीलता को देखते हुए यह सभी देशों को लगने लगा है कि आने वाले दिनों में दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक बन कर उभरे। इससे चीन अपने महत्वकांक्षी इरादों में एक चुनौती समझ रहा है। तीसरे, चीन विश्व स्तर पर भारत को अपने अनुकूल नहीं पा रहा। भारत, जापान, आस्ट्रेलिया और अमरीका के साथ क्वाड का सदस्य है। कुछ ही समय पहले एल.ए.सी. के निकट अमरीका के साथ हमने सांझा एयरफोर्स ड्रिल का प्रदर्शन किया, यह चीन किस तरह हज़म कर सकता है? फिर दक्षिण एशिया में वह बड़ा होकर दिखाना चाहता है, भारत इसमें बाधक है।
यही वे कारण है कि चीन एल.ए.सी. पर हरकतें करता नज़र आता है। यह सब यूं ही नहीं हो रहा। इस सबके पीछे एक सुविचारित योजना नज़र आती है। पहले सन् 2020 में गलवान क्षेत्र में झड़प हुई। अक्तूबर 2021 में यांग्त्सी में दखल और अभी तावांग घाटी में हुई मुठभेड़ अनायास ही नहीं हो गयी। यह भी न भूलें कि चीन पिछले कई सालों से लगभग साढे तीन हज़ार कि.मी. लम्बी विवादित एल.ए.सी. पर प्रतिरक्षा के कार्य हेतु ठोस ढांचा निर्मित करता चला जा रहा है। ऐसी स्थिति में भारत को क्या करना चाहिए? क्या चुप होकर बैठ जाना चाहिए? नहीं हर्गिज़ नहीं। अफसोस यही है कि हमारी तैयारी अभी भी आधी अधूरी है। अब खतरे के प्रति पूरा ध्यान नहीं देंगे तो कब देंगे? मौजूदा सरकार ने सीमा पर आप्रेशन इन्फ्रास्ट्रक्चर को कुछ तैयार किया है, जिसमें 150 किलोमीटर आप्रेशन ट्रैक्स के साथ एक बड़ी सड़क शामिल है, जो हिमाचल लदाख के बीच सीधा सम्पर्क करेगी। 
हमारी इस स्तर पर तैयारी भी देश भक्ति का काम होगा। सरकार को टैक्स नीति में ऐसे यूनिटों को कुछ छूट प्रदान करनी चाहिए। इस तैयारी में हम यदि आत्मनिर्भर हो जाएं और फिर विदेश की मार्किट भी संभाल लें तो यह चीन के लिए नयी सिरदर्दी हो सकती है। फिलहाल उसका युद्ध का इरादा नहीं लगता। वह दबाव बनाये रखना चाहता है । अंदरूनी तौर पर उसके हालात खराब हैं, जिसका लाभ हमें मिल सकता है।