विदेशों में भविष्य तलाश रही देश की युवा पीढ़ी

अपने मित्र-बंधुओं में से कोई न कोई हर दूसरे-तीसरे सप्ताह मिठाई का डिब्बा हाथ में लेकर मुस्कुराते हुए आता है और मुंह मीठा करने करवाने की बात करता है। यह मुंह मीठा न तो किसी परीक्षा में उत्तीर्ण होने के लिए, न ही बच्चों की विवाह-शादी के लिए, न ही परिवार में किसी नवजात के आगमन के लिए है, अपितु शिक्षित या अर्द्ध-शिक्षित बेटे-बेटी को विदेश भेज दिया या वीजा मिल गया या विदेश बसते बच्चे पीआर हो गए अर्थात वहां के स्थायी निवासी बनने की आज्ञा पा गए आदि। इसी सप्ताह मेरा एक नज़दीकी थोड़े संकोच के साथ डिब्बा हाथ में लेकर आया, क्योंकि वह जानता था कि मैं विदेश में बच्चों को बसाने की समर्थक नहीं, फिर भी उन्होंने कहा—बेटी पहुंच गई। कहां पहुंच गई इस देश का नाम नहीं बता रही। उसका यह भी कहना था कि अब उसके भविष्य की, नौकरी की, शिक्षा की कोई चिंता नहीं। एक बहुत बड़ा यक्ष प्रश्न है कि आखिर दूसरे देश में पहुंचते ही माता-पिता की बच्चों के भविष्य के लिए सारी चिंता परेशानी समाप्त क्यों और कैसे हो जाती हैं? माता-पिता एक ही बात कहते हैं कि यहां का सिस्टम ठीक नहीं। हर काम के लिए रिश्वत देनी पड़ती है। नौकरी पाने का कोई अवसर ही नहीं, आरक्षण ने भी उनके रास्ते रोक दिए। मैं अपने ढंग से तर्क तो देती हूं पर जिस माता-पिता को बच्चों के भविष्य की चिंता रहती है उनके सामने मेरे तर्क चलने वाले नहीं, मैं भी जानती हूं परन्तु हमारे बच्चे विदेश बसते जाएं, मुझे अच्छा नहीं लगता। हमारे अपने ही शहर में ऐसे बहुत से परिवार हैं जहां केवल वृद्ध हैं।
बात केवल इतनी नहीं, देश से बच्चे जा रहे हैं अर्थात देश की जवानी जा रही है। विदेसी कालेजों में दाखिला लेने के नाम पर प्रतिवर्ष भारी राशि खर्च होती है। कौन नहीं जानता कि मुश्किल से दस प्रतिशत ही बच्चे वहां शिक्षा प्राप्त करते हैं, शेष तो रोटी-रोज़ी के लिए ही संघर्ष करते रहते हैं, यह सभी जानते हैं। अपने देश के कालेजों में विद्यार्थियों की संख्या कम हो रही है, क्योंकि 12वीं तक की शिक्षा लेने के बाद विदेशों में बसने के इच्छुक नौजवान कालेज की नहीं अपितु पासपोर्ट, वीजा पाने की लम्बी लाइनों में लग जाते हैं और आइलेट्स उत्तीर्ण करने के लिए एड़ी चोटी का ज़ोर लगा देते हैं। अब तो विवाह-शादी के रिश्तों में भी विदेश की ओर पलायन करने वाली मानसिकता का असर दिखाई दे रहा है। वर-वधु विज्ञापन में भी विवाह के लिए आइलेट्स पास कर चुके लड़का या लड़की मांग की जाती है या शर्त रखी जाती है। कौन नहीं जानता नकली विवाह भी किये जाते हैं और विदेशों में कांट्रैक्ट मैरिज के नाम पर हमारे बच्चे लाखें रुपये खर्च कर रहे हैं।
सवाल यह है कि इस मानसिकता को बढ़ाया क्यों जा रहा है। न प्रांतीय सरकारें, न भारत सरकार ऐसा कोई संदेश दे रही है कि अपने देश में सुरक्षित भविष्य के विश्वास के साथ किस प्रकार रहा जा सकता है, उन्नति की जा सकती है और बिना रिश्वत व भाई-भतीजावाद के भी नई पीढ़ी बड़े विश्वास के साथ अपने पूर्वजों की तरह ही जीवनयापन कर सकती है। यह देखा गया है कि जो विदेश जाने की तैयारी में हैं, वे पहले से ही उस देश की सभ्यता, जीवन के रंग-ढंग से परिचित होने की तैयारी में लग जाते हैं और विदेश जाने से पहले विदेशी लगने की उनमें होड़ बढ़ती जाती है। भारत ने स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव तो मना लिया, परन्तु इस अमृत महोत्सव में भारतीयों को भारतीय संस्कृति से ओतप्रोत बनाए रखने के लिए कोई प्रयास नहीं हुए। बड़े-बड़े शहरों, मेट्रो महानगरों में ही नहीं, अब तो गांवों तक के स्कूलों में यह स्टेटस सिंबल बन गया कि बच्चे उस स्कूल में पढ़ें जहां भारतीय भाषाओं का प्रयोग नाममात्र है और गले में नेकटाई, मुंह में अंग्रेज़ी, खान-पान में विदेशी भोजन, पहरावा, केश सज्जा, हाथों के हस्ताक्षर सब विदेशी ढंग और विदेशी भाषा में हो रहे हैं। 
प्रश्न यह भी है कि जगतगुरु तो हम बनने जा रहे हैं, ऐसा विश्वास बार-बार दिलाया जा रहा है, सरकारों तथा धर्म-गुरुओं की ओर से। अपने देश में तो जगतगुरु रहते ही हैं। जगतगुरुओं के देश से नालंदा और तक्षशिला का गौरवपूर्ण इतिहास संभालने वाले इस देश के बेटे-बेटियां उच्च शिक्षा के लिए विदेश जा रहे हैं, कैसा अटपटा लगता है। 
हमारे देश के विश्वविद्यालयों में कोई कमी नहीं। एक मैकाले द्वारा दी मानसिकता से जो मुक्त नहीं हो सके, उन्हीं का यह विश्वास बन गया है कि विदेशी शिक्षा पद्धति और शिक्षण संस्थान भारत से ज्यादा बढ़िया हैं, उच्च कोटि के हैं। भारत के धर्मगुरु देश की युवा पीढ़ी को देश की धार्मिक, सांस्कृतिक और शैक्षिक पहचान करवाएं। इसके साथ ही भारत सरकार तथा प्रांतों की सरकारें युवा पीढ़ी को यह विश्वास दिलाएं कि अपने देश में भी वे आगे बढ़ सकते हैं। उनको भ्रष्टाचार मुक्त शासन मिल सकता है, भाई-भतीजावाद की जकड़न से मुक्ति मिल मिल सकती है। उसके बाद यह निश्चित होगा कि बच्चे विदेशों में बसाने के लिए माता-पिता अपनी ज़मीन-जायदाद बेचकर या कज़र् लेकर उनके लिए रुपयों का प्रबंध करने की पीड़ा से मुक्त हो जाएंगे। हमेशा के लिए विदेश भेजे बच्चे की विदाई के बाद लड्डू बांटने की भी ज़रूरत नहीं पड़ेगी।